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  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 53
    ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिगार्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    स॒म्प्रच्य॑वध्व॒मुप॑ सं॒प्रया॒ताग्ने॑ पथो॒ दे॑व॒याना॑न् कृणुध्वम्। पुनः॑ कृण्वा॒ना पि॒तरा॒ युवा॑ना॒न्वाता॑सी॒त् त्वयि॒ तन्तु॑मे॒तम्॥५३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒म्प्रच्य॑वध्व॒मिति॑ स॒म्ऽप्रच्य॑वध्वम्। उप। स॒म्प्रया॒तेति॑ स॒म्ऽप्रया॑त। अग्ने॑। प॒थः। दे॒व॒याना॒निति॑ देव॒ऽयाना॑न्। कृ॒णु॒ध्व॒म्। पुन॒रिति॒ पुनः॑। कृ॒ण्वा॒ना। पि॒तरा॑। युवा॑ना। अ॒न्वाता॑सी॒दित्य॑नुऽआता॑सीत्। त्वयि॑। तन्तु॑म। ए॒तम् ॥५३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सम्प्रच्यवध्वमुप सम्प्र याताग्ने पथो देवयानान्कृणुध्वम् । पुनः कृण्वाना पितरा युवानान्वाताँसीत्त्वयि तन्तुमेतम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सम्प्रच्यवध्वमिति सम्ऽप्रच्यवध्वम्। उप। सम्प्रयातेति सम्ऽप्रयात। अग्ने। पथः। देवयानानिति देवऽयानान्। कृणुध्वम्। पुनरिति पुनः। कृण्वाना। पितरा। युवाना। अन्वातासीदित्यनुऽआतासीत्। त्वयि। तन्तुम। एतम्॥५३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 53
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    भावार्थ -
    हे विद्वान् पुरुषो ! प्रजाजनो ! आप लोग ( सम् पृच्यध्वम् ) अच्छी प्रकार मिलकर आओ और (सं प्रयात) साथ मिलकर प्रयाण करो ! हे ( अग्ने ) अग्रणी नेता और विद्वान् पुरुषो ! आप सब मिलकर ( देव यानान् पथः ) देवों, विद्वानों के जाने योग्य मार्गों को धर्माचरण की व्यवस्थाओं को और देव, राजा के जाने योग्य विशाल मार्गों को या विजयार्थी सेनाओं के जाने योग्य मार्गों को ( कृणुध्वम् ) बनाओ। और हे ( अग्ने ) नेत: राजन् ! ( युवाना पितरा ) युवा माता पिता, ( पुन: ) वार २ ( त्वयि ) तेरे आश्रय पर, तेरी रक्षामें रहते हुए ( कृण्वाना ) ब्रह्मचर्य का पालन एवं गृहस्थ धर्म का आचरण करते हुए ( एतम्) इस ( तन्तुम् ) विस्तृत राष्ट्र रूप यज्ञ को या प्रजोत्पालन रूप सन्तति कार्य को ( अनु आतांसीत् ) बराबर बनाये रक्वें । ० ' कुण्वाना:' 'पितरा' ऐसा महीधर और उव्वटाभिमत पाठ है। तदनुसार --- प्रजाजन ही ( युवाना पितरौ कृण्वानाः ) युवा युवतियों को ही अगली सन्तान के निमित्त पिता माता बनाते हुए त्वयि ) तुझ राजा ( के आश्रय में ( पुनः एतम् तन्तुम् अनु आंतासीत् ) फिर भी इस प्रजातन्तु को बनाये रक्खें । शत० ८। ६ । ३ । २२ ॥ पूर्व पक्ष में 'अन्वातांसीत्' यहां व्यत्यय से द्विवचन के स्थान में एक वचन है । और दूसरे पक्ष में बहु बचन के स्थान में एक वचन है । परन्तु यह शतपथाभिमत पाठ के विरुद्ध होने से उपेक्षा योग्य है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अग्निर्देवता भुरिगार्षी पंक्तिः । पञ्चमः ॥

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