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  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 63
    ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः देवता - विदुषी देवता छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    आ॒योष्ट्वा॒ सद॑ने सादया॒म्यव॑तश्छा॒याया॑ समु॒द्रस्य॒ हृद॑ये। र॒श्मी॒वतीं॒ भास्व॑ती॒मा या द्यां भास्या पृ॑थि॒वीमोर्व॒न्तरि॑क्षम्॥६३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒योः। त्वा॒। सद॑ने। सा॒द॒या॒मि॒। अव॑तः। छा॒याया॑म्। स॒मु॒द्रस्य॑। हृद॑ये। र॒श्मी॒वती॒मिति॑ रश्मि॒ऽवती॑म्। भास्व॑तीम्। आ। या। द्या॒म्। भासि॑। आ। पृ॒थि॒वीम्। आ। उ॒रु। अ॒न्तरि॑क्षम् ॥६३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आयोष्ट्वा सदने सादयाम्यवतश्छायायाँ समुद्रस्य हृदये । रश्मीवतीम्भास्वतीमा या द्याम्भास्या पृथिवीमोर्वन्तरिक्षम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आयोः। त्वा। सदने। सादयामि। अवतः। छायायाम्। समुद्रस्य। हृदये। रश्मीवतीमिति रश्मिऽवतीम्। भास्वतीम्। आ। या। द्याम्। भासि। आ। पृथिवीम्। आ। उरु। अन्तरिक्षम्॥६३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 63
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    भावार्थ -
    हे राज्यशक्ते ! ( रश्मिवतीम् ) किरणों से युक्त, प्रभा के समान तेजस्विनी, (भास्वतीम् ) सूर्य की दीप्ति के समान प्रकाशवाली (त्वा) तुझ को (आयोः) न्याय मार्ग पर चलने वाले दीर्घायु ( अवतः ) प्रजा के रक्षक राजा के ( सदने ) आश्रय पर और ( छायायाम् ) उसके आश्रय में और ( समुद्रस्य हृदये ) समुद्र के समान गम्भीर अक्षय कोशवान् राजा के ( हृदये ) हृदय में, उसके चित्त में ( सादयामि ) स्थापित करता हूं । तू (या) जो ( द्याम् पृथिवीम् उरु अन्तरिक्षम् ) आकाश, पृथिवी और विशाल अन्तरिक्ष तीनों को अपने तेज से ( आभासि ) प्रकाशित करती है | शत० ८ ।७।३।१३ ॥ स्त्री पक्ष में- ( आयो : ) आयुष्मान, पूर्णायु ( अवतः ) पालक ( समुद्रस्य) गम्भीर, अक्षय वीर्यवान् पुरुष के ( सदने ) गृह में, उसकी ( छायायाम् ) छाया में, उसके गहरे हृदय में स्थापित करता हूं । तू प्रभा के समान रश्मिवती और भास्वती, तेजस्विनी हो । तू अपने सद्गुणों से तीनों लोकों को प्रकाशित कर ।

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