यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 63
ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः
देवता - विदुषी देवता
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
84
आ॒योष्ट्वा॒ सद॑ने सादया॒म्यव॑तश्छा॒याया॑ समु॒द्रस्य॒ हृद॑ये। र॒श्मी॒वतीं॒ भास्व॑ती॒मा या द्यां भास्या पृ॑थि॒वीमोर्व॒न्तरि॑क्षम्॥६३॥
स्वर सहित पद पाठआ॒योः। त्वा॒। सद॑ने। सा॒द॒या॒मि॒। अव॑तः। छा॒याया॑म्। स॒मु॒द्रस्य॑। हृद॑ये। र॒श्मी॒वती॒मिति॑ रश्मि॒ऽवती॑म्। भास्व॑तीम्। आ। या। द्या॒म्। भासि॑। आ। पृ॒थि॒वीम्। आ। उ॒रु। अ॒न्तरि॑क्षम् ॥६३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आयोष्ट्वा सदने सादयाम्यवतश्छायायाँ समुद्रस्य हृदये । रश्मीवतीम्भास्वतीमा या द्याम्भास्या पृथिवीमोर्वन्तरिक्षम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
आयोः। त्वा। सदने। सादयामि। अवतः। छायायाम्। समुद्रस्य। हृदये। रश्मीवतीमिति रश्मिऽवतीम्। भास्वतीम्। आ। या। द्याम्। भासि। आ। पृथिवीम्। आ। उरु। अन्तरिक्षम्॥६३॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
विदुष्या किं कर्त्तव्यमित्याह॥
अन्वयः
हे स्त्रि! या त्वं द्यां पृथिवीमन्तरिक्षमुर्वाभासि तां रश्मीवतीं भास्वतीं वा त्वामायोः सदनेऽवतश्छायायामा सादयामि समुद्रस्य हृदयेऽहमा सादयामि॥६३॥
पदार्थः
(आयोः) न्यायानुगामिनो दीर्घजीवितस्य (त्वा) त्वाम् (सदने) स्थाने (सादयामि) (अवतः) रक्षणादि कुर्वतः (छायायाम्) आश्रये (समुद्रस्य) (हृदये) मध्ये (रश्मीवतीम्) प्रशस्तविद्याप्रकाशयुक्ताम्। अत्र अन्येषामपि [अ॰६.३.१३७] इति दीर्घः (भास्वतीम्) देदीप्यमानाम् (आ) (या) (द्याम्) प्रकाशम् (भासि) दीपयसि (आ) (पृथिवीम्) भूमिम् (आ) (उरु) (अन्तरिक्षम्) आकाशम्। [अयं मन्त्रः शत॰८.७.३.१३ व्याख्यातः]॥६३॥
भावार्थः
हे स्त्रि! सम्यक् पालकस्य पत्युः सदने तदाश्रये समुद्रवदक्षोभां हृद्यां त्वां स्थापयामि त्वं गृहाश्रमधर्मं प्रकाश्य पत्यादीन् सुखय, त्वां चैते सुखयन्तु॥६३॥
हिन्दी (3)
विषय
विदुषी स्त्री को क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे स्त्रि! (या) जो तू (द्याम्) प्रकाश (पृथिवीम्) भूमि और (अन्तरिक्षम्) आकाश को (उरु) बहुत (आ, भासि) प्रकाशित करती है, उस (रश्मीवतीम्) शुद्ध विद्या के प्रकाश से युक्त (भास्वतीम्) शोभा को प्राप्त हुई (त्वा) तुझ को (आयोः) न्यायानुकूल चलने वाले चिरंजीवी पुरुष के (सदने) स्थान में और (अवतः) रक्षा आदि करते हुए के (छायायाम्) आश्रय में (आ, सादयामि) अच्छे प्रकार स्थापित तथा (समुद्रस्य) अन्तरिक्ष के (हृदये) बीच (आ) शुद्ध प्रकार से मैं स्थित कराता हूं॥६३॥
भावार्थ
हे स्त्रि! अच्छे प्रकार पालने हारे पति के आश्रयरूप स्थान में समुद्र के तुल्य चञ्चलतारहित गम्भीरतायुक्त प्यारी तुझ को स्थित करता हूं। तू गृहाश्रम के धर्म का प्रकाश कर पति आदि को सुखी रख और तुझ को भी पति आदि सुखी रक्खें॥६३॥
विषय
राजशक्ति का वर्णन ।
भावार्थ
हे राज्यशक्ते ! ( रश्मिवतीम् ) किरणों से युक्त, प्रभा के समान तेजस्विनी, (भास्वतीम् ) सूर्य की दीप्ति के समान प्रकाशवाली (त्वा) तुझ को (आयोः) न्याय मार्ग पर चलने वाले दीर्घायु ( अवतः ) प्रजा के रक्षक राजा के ( सदने ) आश्रय पर और ( छायायाम् ) उसके आश्रय में और ( समुद्रस्य हृदये ) समुद्र के समान गम्भीर अक्षय कोशवान् राजा के ( हृदये ) हृदय में, उसके चित्त में ( सादयामि ) स्थापित करता हूं । तू (या) जो ( द्याम् पृथिवीम् उरु अन्तरिक्षम् ) आकाश, पृथिवी और विशाल अन्तरिक्ष तीनों को अपने तेज से ( आभासि ) प्रकाशित करती है | शत० ८ ।७।३।१३ ॥ स्त्री पक्ष में- ( आयो : ) आयुष्मान, पूर्णायु ( अवतः ) पालक ( समुद्रस्य) गम्भीर, अक्षय वीर्यवान् पुरुष के ( सदने ) गृह में, उसकी ( छायायाम् ) छाया में, उसके गहरे हृदय में स्थापित करता हूं । तू प्रभा के समान रश्मिवती और भास्वती, तेजस्विनी हो । तू अपने सद्गुणों से तीनों लोकों को प्रकाशित कर ।
विषय
आयु-अवन् व समुद्र
पदार्थ
१. पत्नी से कहते हैं कि (त्वा) = तुझे (आयोः) = [एति] गतिशील पुरुष के (सदने) = घर में (सादयामि) = स्थापित करते हैं। पति की प्रथम विशेषता यही है कि वह क्रियाशील हो, आलसी नहीं । २. (अवतः) = वासनाओं से अपना रक्षण करनेवाले पुरुष की (छायायाम्) = आश्रय में तुझे स्थापित करते हैं। वासनामय वृत्तिवाला पुरुष एकपत्नीव्रत न होकर गृहस्थ को नरक - सा बना देता है। विलास के कारण वह अपनी शक्ति को क्षीण करनेवाला होता है और पत्नी को भी रोगों का घर बना देता है। ३. (समुद्रस्य) = सदा आनन्दमय स्वभाववाले [स+मुद] पुरुष के हृदये हृदय में तुझे स्थापित करते हैं। खिझनेवाला पति घर को सुखी नहीं बना पाता। आर्थिक दृष्टि से भी वह घर को उन्नत बनाने में समर्थ नहीं होता। संसार में आगे बढ़ने के लिए प्रसन्न मनोवृत्ति नितान्त आवश्यक है। प्रसन्न मनोवृत्तिवाला ही पत्नी से भी उचित प्रेम कर पाता है। ४. कैसी तुझको ? जो तू (रश्मीवतीम्) = लगामवाली है, कर्मेन्द्रियों को मनरूप लगाम से काबू करके ही विषयों में विचरनेवाली है तथा (भास्वतीम्) = ज्ञानेन्द्रियों के (उचितं) = व्यापार से ज्ञान की खूब दीप्तिवाली बनी है। ५. (या) = जो तू (द्याम्) = अपने मस्तिष्करूप द्युलोक को (आभासि) = ज्ञान से खूब दीप्त कर लेती है और जो (पृथिवीम्) = शरीररूप पृथिवीलोक को पूर्ण स्वास्थ्य से (आभासि) = तेजस्वी बनानेवाली है तथा (उरु अन्तरिक्षम्) = अपने विशाल हृदयान्तरिक्ष को (आभासि) = नैर्मल्य से चमका देती है।
भावार्थ
भावार्थ- पति को गतिशील, वासनाओं से अपनी रक्षा करनेवाला व प्रसन्न स्वभावावाला होना है तथा पत्नी ने वश्येन्द्रिय व प्रकाशमय जीवनवाला बनकर मस्तिष्क, शरीर व हृदय तीनों को ही दीप्त करना है।
मराठी (2)
भावार्थ
चंचलतारहित समुद्राप्रमाणे गंभीर असणाऱ्या हे स्त्रिये ! उत्तम पतीच्या आश्रयाने गृहस्थाश्रमाचा स्वीकार करून धर्मयुक्त बनून पतीला सुखी कर. पतीनेही तुला सुखी करावे.
विषय
विदुषी स्त्रीने काय करावा (तिचे कर्तव्य काय?) याविषयी पुढील मंत्रात कथन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (विदुषी गृहिणी) (या) जी तू (द्याम्) प्रकाशलोकाला (पृथिवीम्) भूमीला आणि (अन्तरिक्षम्) आकाशाला (आपल्या विद्वत्तेने आणि यशाने) (उस) अत्यंत (आ भासि) प्रकाशित करतेस. अशा (रश्मीवतीम्) विद्येच्या किरणांनी दीप्तीमान आणि (भास्वतीम्) सुशोभना असलेल्या (त्वा) तुला (आयो:) न्यायानुकूल आचरण करणार्या दीर्घजीवी पतीच्या (सदने) घरात आणि (अवत:) चांगल्या प्रकारे तुझे रक्षण करणार्या (वीर पतीच्या) (छायायाम्) आश्रयात मी (आ सादयामि) निश्चित होऊन ठेवतो. तसेच (समुद्रस्य) अंतरिक्षाच्या (हृदये) मध्ये मी (एक विद्वान वा परमेश्वर) (आ) चांगल्या प्रकारे स्थित करतो (कारण तुझ्या विद्येला समर्थ सुरक्षेची आवश्यकता आहे) ॥36॥
भावार्थ
भावार्थ - हे विदुषी स्त्री (गृहपत्नी), मी (एक विद्वान पुरोहित वा परमेश्वर) उत्तम प्रकारे तुझे पालन करणार्या पतीच्या आश्रमरुप स्थानात ठेवते. तू तिथे समुद्राप्रमाणे अचंचल व गुरुगंभीर होऊन स्थायीपणे राहा. तू गृहाश्रमधर्माच्या नियमाप्रमाणे वागून पती आणि घरातील इतर लोकांना सुखी ठेव. तसेच घरातील पती आदी सदस्यांनी तुला देखील आनंदी ठेवावे. ॥63॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O woman, thou illuminest the Sky, the Earth, and airs broad realm between them. Thou art full of grace, and the light of pure knowledge, I set thee in the house of thy husband, who will live long, I place thee under his care, thy protector. I set thee in his heart, deep like the ocean.
Meaning
Learned woman, lady light of the home, mistress of sunbeams shining in heaven, illuminate the earth and fill the wide skies with brilliance. I place you in the house of your husband — long live he ! I set you in the soothing shade of your protective man, in the very core of his heart deep in love as the bottomless sea.
Translation
I settle you in the home of a man destined to live long, under the shelter of a protector and in the heart of delightful surroundings you, who are luminous, illuminating the whole sky, the earth and the vast mid-space with your brightness. (1)
Notes
āyoh, आयोः आदित्यस्य; of the sun. Or, आयुष्मतः, of one, who is destined to live long. Avataḥ, जगत् पालयितु:, of the protector (of the world). 1 Samudrasya hṛdaye, in the middle of the ocean. Or, in theheart ofdelightful surroundings. Also, समुद्रस्य, मुद्राभिः सहितस्य हृदये, in the heart of a moneyed person. Ya dyain prthivim urvantariksarn ā bhāsi, द्यु लोकं, पृथ्वी लोकं, उरु विस्तीर्ण अन्तरिक्षलोकं च आभासि प्रकाशयसि, who illu minates the sky, the earth and the vast mid-space.
बंगाली (1)
विषय
বিদুষ্যা কিং কর্ত্তব্যমিত্যাহ ॥
বিদুষী স্ত্রীকে কী করা উচিত, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।
पदार्थ
পদার্থঃ–হে স্ত্রী! (য়া) তুমি (দ্যাম্) প্রকাশ (পৃথিবীম্) ভূমি এবং (অন্তরিক্ষম্) আকাশকে (উরু) বহু (আ, ভাসি) প্রকাশিত কর, সেই (রশ্মিবর্তাম্) শুদ্ধ বিদ্যার প্রকাশ যুক্ত (ভাস্বতীম্) শোভিত হইয়া (ত্বা) তোমাকে (আয়োঃ) ন্যায়ানুকূল গমনকারী চিরঞ্জীবী পুরুষের (সদনে) স্থানে এবং (অবতঃ) রক্ষাদি কারীর (ছায়ায়াম্) আশ্রয়ে (আ, সাদয়ামি) উত্তম প্রকার স্থাপিত তথা (সমুদ্রস্য) অন্তরিক্ষের (হৃদয়ে) মধ্যে (আ) শুদ্ধ প্রকারে আমি স্থিত করাই ॥ ৬৩ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–হে স্ত্রী! উত্তম প্রকার পালনকারী পতির আশ্রয়রূপ স্থানে সমুদ্রের তুল্য চঞ্চলতারহিত গম্ভীরতাযুক্ত প্রিয় তোমাকে স্থিত করি । তুমি গৃহাশ্রম ধর্মের প্রকাশ করিয়া পতি আদিকে সুখী রাখ এবং তোমাকেও পতি আদি সুখী রাখুক ॥ ৬৩ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
আ॒য়োষ্ট্বা॒ সদ॑নে সাদয়া॒ম্যব॑তশ্ছা॒য়ায়া॑ᳬं সমু॒দ্রস্য॒ হৃদ॑য়ে ।
র॒শ্মী॒বতীং॒ ভাস্ব॑তী॒মা য়া দ্যাং ভাস্যা পৃ॑থি॒বীমোর্ব॒ন্তরি॑ক্ষম্ ॥ ৬৩ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
আয়োষ্ট্বেত্যস্য বসিষ্ঠ ঋষিঃ । বিদুষী দেবতা । বিরাট্ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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