यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 59
ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः
देवता - इन्द्राग्नी देवते
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
88
लो॒कं पृ॑ण छि॒द्रं पृ॒णाथो॑ सीद ध्रु॒वा त्वम्। इ॒न्द्रा॒ग्नी त्वा॒ बृह॒स्पति॑र॒स्मिन् योना॑वसीषदन्॥५९॥
स्वर सहित पद पाठलो॒कम्। पृ॒ण॒। छि॒द्रम्। पृ॒ण॒। अथो॒ इत्यथो॑। सी॒द॒। ध्रु॒वा। त्वम्। इ॒न्द्रा॒ग्नी इती॑न्द्रा॒ग्नी। त्वा॒। बृह॒स्पतिः॑। अ॒स्मिन्। योनौ॑। अ॒सी॒ष॒द॒न्। अ॒सी॒स॒द॒न्नित्य॑सीसदन् ॥५९ ॥
स्वर रहित मन्त्र
लोकम्पृण छिद्रम्पृणाथो सीद धु्रवा त्वम् । इन्द्राग्नी त्वा बृहस्पतिरस्मिन्योनावसीषदन् ॥
स्वर रहित पद पाठ
लोकम्। पृण। छिद्रम्। पृण। अथो इत्यथो। सीद। ध्रुवा। त्वम्। इन्द्राग्नी इतीन्द्राग्नी। त्वा। बृहस्पतिः। अस्मिन्। योनौ। असीषदन्। असीसदन्नित्यसीसदन्॥५९॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे स्त्रि! त्वं लोकं पृण, छिद्रं पृण, ध्रुवा सीद, अथो इन्द्राग्नी बृहस्पतिश्चास्मिन् योनौ त्वाऽसीषदन्॥५९॥
पदार्थः
(लोकम्) इमं परं च (पृण) सुखय (छिद्रम्) (पृण) पिपूर्द्धि (अथो) (सीद) (ध्रुवा) निश्चला (त्वम्) (इन्द्राग्नी) इन्द्रः परमैश्वर्य्यश्चाग्निर्विज्ञाता च तौ (त्वा) त्वाम् (बृहस्पतिः) अध्यापकः (अस्मिन्) (योनौ) गृहाश्रमे (असीषदन्) सादयन्तु। [अयं मन्त्रः शत॰८.७.२.६ व्याख्यातः]॥५९॥
भावार्थः
सुदक्षया स्त्रिया गृहकृत्यसाधनानि पूर्णानि कृत्वा कार्य्याणि साधनीयानि विदुषीणां च गृहाश्रमकृत्येषु प्रीतिर्यथा स्यात् तथोपदेष्टव्यम्॥५९॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे स्त्रि! (त्वम्) तू इस (लोकम्) लोक तथा परलोक को (पृण) सुखयुक्त कर, (छिद्रम्) अपनी न्यूनता को (पृण) पूरी कर और (ध्रुवा) निश्चलता से (सीद) घर में बैठ (अथो) इसके अनन्तर (इन्द्राग्नी) उत्तम धनी ज्ञानी तथा (बृहस्पतिः) अध्यापक (अस्मिन्) इस (योनौ) गृहाश्रम में (त्वा) तुझ को (असीषदन्) स्थापित करें॥५९॥
भावार्थ
अच्छी चतुर स्त्री को चाहिये कि घर के कार्यों के साधनों को पूरे करके सब कार्यों को सिद्ध करे। जैसे विदुषी स्त्री और विद्वान् पुरुषों की गृहाश्रम के कर्त्तव्य कर्मों में प्रीति हो, वैसा उपदेश किया करे॥५९॥
विषय
राजा के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
व्याख्या देखो (अ० १२ ।म० ५४ ) शत० ८।७।२।१-१९॥८।७।३।८ ॥
विषय
इन्द्र, अग्नि व बृहस्पति
पदार्थ
१. पत्नी के लिए कहते हैं कि तू (लोकं पृण) = प्रकाश को [लोकं = आलोकं] (पृण) = [पिपूर्धि - म० ] भरनेवाली हो और इस प्रकार सबको [लोकं] सुखी कर [पृण] । २. (छिद्रं पृण) = घर के दोषों को फिर से ठीक कर देनेवाली हो, छिद्र को भर दे, दोषों को दूर कर दे । ३. (अथ उ) = और अब प्रकाश को भरने व दोषों को दूर करने के साथ (त्वम् ध्रुवा सीद) = तू ध्रुव होकर यहाँ घर में रह । ४. (इन्द्राग्नी) = इन्द्र और अग्नि तथा (बृहस्पतिः) = ज्ञान का स्वामी (त्वा) = तुझे (अस्मिन् योनौ) = इस घर में (असीषदन्) = स्थापित करें-बिठाएँ, अर्थात् तेरे पति की तीन विशेषताएँ हों। [क] सर्वप्रथम वह 'इन्द्र' हो, जितेन्द्रिय हो। पति का असंयत जीवन पत्नी के जीवन पर एक ऐसा अशुभ प्रभाव उत्पन्न करेगा कि वह घर में ध्रुव होकर कभी न रह सकेगी। [ख] पति 'अग्नि' हो, उसके अन्दर गरमी व उत्साह हो। ऐसा ही पति घर की उन्नति का कारण बन सकता है और वही पत्नी के जीवन में उत्साह उत्पन्न करके उसे घर की उन्नति के कार्यों में व्यापृत रखनेवाला होता है। [ग] पति 'बृहस्पति हो, यह ऊँचे-से-ऊँचे ज्ञान का पति हो। ऐसा ही पति पत्नी से उचित आदर पा सकता है और पत्नी के हृदय में अपने लिए स्थान बना सकता है। इस पति के साथ ही पत्नी अपने सम्बन्ध का ध्यान करती हुई अपने को गौरवान्वित अनुभव करती है। असंयमी, उत्साहशून्य, मूर्ख पति पत्नी की स्थिरता का कारण नहीं बन सकता। 'इन्द्र' बनकर यह शरीर को सुन्दर बनाता है, 'अग्नि' बनकर मन को शक्तिशाली बनाता है, बृहस्पति बनकर यह मस्तिष्क को ज्ञानोज्ज्वल करता है। यही परमेष्ठी बनना है।
भावार्थ
भावार्थ- पत्नी घर में अपने सौन्दर्य व ज्ञान से प्रकाश भर दे, दोषों को दूर करनेवाली हो, स्थिर वृत्तिवाली हो। पति 'जितेन्द्रिय, उत्साही तथा उत्कृष्ट ज्ञान सम्पन्न' हो। ऐसा ही पति 'परमेष्ठी' कहला सकता है।
मराठी (2)
भावार्थ
चतुर स्त्रीने गृहकृत्ये करताना साधनांची पूर्तता करून सर्व कार्ये सिद्ध करावीत. गृहस्थाश्रमातील विद्वान व विदुषींची कर्तव्य कर्माची आवड वाढेल असाच उपदेश करावा.
विषय
पुढील मंत्रातही तोच विषय (पति-पत्नी कर्तव्य) आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे स्त्री (गृहपत्नी), (व्यम्) तू या (लोकम्) लोकाला आणि परलोकाला (घराला आणि गाव किंवा समाजाला) (पृण) सुखाने परिपूर्ण कर. (छिद्रम्) आपल्या (स्वभावात वा वागण्यात जी) न्यूनता असेल, ती (पृण) पूर्ण कर (दूर कर) आणि या गृहाश्रमात (ध्रुवा) निर्भय व निश्चल (सीद) राहून सुखी रहा. यानंतर (इन्द्राग्नी) श्रेष्ठ धनवान मनुष्याने तथा ज्ञानी मनुष्यांनी तसेच (बृहस्पति:) अध्यापकांनी (त्वा) तुला (अस्मिन्) या (योनौ) गृहाश्रमात (असीषदन्) स्थिर करावे (समाजातील धनी, ज्ञानी व शिक्षक व्यक्तींनी गृहिणींना गृहाश्रमातील कर्तव्ये सांगावीत व या आश्रमाविषयी प्रेम वाढवावे) ॥59॥
भावार्थ
भावार्थ - विवेकी कुशल गृहिणीचे कर्तव्य आहे की तिने घरासाठी आवश्यक ती सर्व साधनें प्राप्त करावीत आणि सर्व गृहकार्य पूर्ण करावेत. तसेच ज्यायोगे विदुषी स्त्रिया आणि विद्वान पुरुष यांना गृहाश्रमातील कर्तव्यांविषयी प्रीती निर्माण होईल, असाच उपदेश त्या सर्वांना सदैव करावा. ॥59॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O woman, make this life and the next comfortable, Remove thy weaknesses ; and stay at home with firmness of purpose. May the glorious, learned teachers establish thee in this domestic life.
Meaning
Noble lady of the house, fulfil this life. Fill up the holes, complete and perfect the life and stay firm and stead-fast in this home. May Indra, lord of excellence, Agni, lord of light, and Brihaspati, lord of knowledge, establish you happily in this family home.
Translation
O brick, may you fill the space. May you fill the gap. May you be seated here firmly. The resplendent Lord, and the adorable Lord as well as the Lord supreme has set you in this abode. (1)
Notes
Repeated from XII. 54-56.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে স্ত্রী! তুমি এই (লোকম্) লোক-পরলোককে (পৃণ) সুখযুক্ত কর, (ছিদ্রম্) নিজস্ব নূ্যনতাকে (পৃণ) পূর্ণ কর এবং (ধ্রুবা) নিশ্চলতাপূর্বক (সীদ) গৃহে উপবেশন কর, (অথো) ইহার অনন্তর (ইন্দ্রাগ্নী) উত্তম ধনী জ্ঞানী তথা (বৃহস্পতিঃ) অধ্যাপক (অস্মিন্) এই (য়োনৌ) গৃহাশ্রমে (ত্বা) তোমাকে (অসীষদন্) স্থাপিত করুক ॥ ৫ঌ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–উত্তম চতুর স্ত্রীর কর্ত্তব্য যে, গৃহের কার্য্যের সাধনসকলকে পূর্ণ করিয়া সমস্ত কার্য্যকে সিদ্ধ করিবে । যেমন বিদুষী স্ত্রী এবং বিদ্বান্ পুরুষদিগের গৃহাশ্রমের কর্ত্তব্য কর্ম্মে প্রীতি হয় সেইরূপ উপদেশ করিতে থাকিবে ॥ ৫ঌ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
লো॒কং পৃ॑ণ ছি॒দ্রং পৃ॒ণাথো॑ সীদ ধ্রু॒বা ত্বম্ ।
ই॒ন্দ্রা॒গ্নী ত্বা॒ বৃহ॒স্পতি॑র॒স্মিন্ য়োনা॑বসীষদন্ ॥ ৫ঌ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
লোকং পৃণেত্যস্য পরমেষ্ঠী ঋষিঃ । ইন্দ্রাগ্নী দেবতে । বিরাডনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
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