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यजुर्वेद अध्याय - 15

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  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 56
    ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    अ॒यं ते॒ योनि॑र्ऋ॒त्वियो॒ यतो॑ जा॒तोऽअरो॑चथाः। तं जा॒नन्न॑ग्न॒ऽआ रो॒हाथा॑ नो वर्धया र॒यिम्॥५६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम्। ते॒। योनिः॑। ऋ॒त्वियः॑। यतः॑। जा॒तः। अरो॑चथाः। तम्। जा॒नन्। अ॒ग्ने॒। आ। रो॒ह॒। अथ॑। नः॒। व॒र्ध॒य॒। र॒यिम् ॥५६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयन्ते योनिरृत्वियो यतो जातोऽअरोचथाः । तञ्जानन्नग्नऽआरोहाथा नो वर्धया रयिम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अयम्। ते। योनिः। ऋत्वियः। यतः। जातः। अरोचथाः। तम्। जानन्। अग्ने। आ। रोह। अथ। नः। वर्धय। रयिम्॥५६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 56
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे अग्ने! योऽयं ते तव ऋत्वियो योनिरस्ति यतो जातो जाता त्वं चारोचथास्तं जानन् जानन्ति चारोहाथ, नो रयिं वर्धय॥५६॥

    पदार्थः

    (अयम्) (ते) तव (योनिः) गृहम् (ऋत्वियः) ऋतुः प्राप्तोऽस्य सः (यतः) यस्य विद्याध्ययनस्याध्यापनस्य च सकाशात् (जातः) जाता च (अरोचथाः) प्रदीप्येथाः (तम्) (जानन्) जानन्ति च (अग्ने) विद्वन् विदुषि! च (आ) (रोह) (अथ) आनन्तर्य्ये। निपातस्य च [अ॰६.३.१३६] इति दीर्घः (नः) अस्माकम् (वर्धय) अन्येषामपि॰ [अ॰६.३.१३७] इति दीर्घः (रयिम्) संपत्तिम्। [अयं मन्त्रः शत॰८.६.१.२४ व्याख्यातः]॥५६॥

    भावार्थः

    विवाहे स्त्रीपुरुषाभ्यामियमपि द्वितीया प्रतिज्ञा कारयितव्या। येन ब्रह्मचर्य्येण यया विद्यया च युवां स्त्रीपुरुषौ कृतकृत्यौ भवथस्तत्तां च सदैव प्रचारयतम्। पुरुषार्थेन धनादिकं च वर्धयित्वैतत् सन्मार्गे वीतम्। इत्येतत् सर्वं हेमन्तस्य ऋतोर्व्याख्यानं समाप्तम्॥५६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विद्वन् वा विदुषि! (अयम्) यह (ते) तेरा (ऋत्वियः) ऋतु अर्थात् समय को प्राप्त हुआ (योनिः) घर है, (यतः) जिस विद्या के पठन-पाठन से (जातः) प्रसिद्ध हुआ वा हुई तू (अरोचथाः) प्रकाशित हो (तम्) उस को (जानन्) जानता वा जानती हुई (आ, रोह) धर्म पर आरूढ़ हो, (अथ) इसके पश्चात् (नः) हमारी (रयिम्) सम्पत्ति को (वर्धय) बढ़ाया कर॥५६॥

    भावार्थ

    स्त्री-पुरुषों से विवाह में यह भी दूसरी प्रतिज्ञा करानी चाहिये कि जिस ब्रह्मचर्य और जिस विद्या के साथ तुम दोनों स्त्री-पुरुष कृतकृत्य होते हो, उस-उस को सदैव प्रचारित किया करो और पुरुषार्थ से धनादि पदार्थ को बढ़ा के उस को अच्छे मार्ग में खर्च किया करो। यह सब हेमन्त ऋतु का व्याख्यान पूरा हुआ॥५६॥

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    विषय

    ऐश्वर्य वृद्धि ।

    भावार्थ

    व्याख्या देखो ( ३ । १४ ) और ( अ० १२ ।५२ ) । शत० ८ । ६ । ३ । २४ ॥

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    विषय

    रयि वर्धन

    पदार्थ

    १. पिछले मन्त्र की ही भावना को कि 'हममें यज्ञों का प्रणयन हो', घर-घर में यज्ञ हों, प्रस्तुत मन्त्र में इस प्रकार कहते हैं कि हे (अग्ने! अयं ते योनिः) = यह घर तो तेरा ही है। यह हमारा घर न होकर तेरा ही है। २. तू यहाँ ('ऋत्वियः') = [ऋतौ ऋतौ प्राप्तः] समय-समय पर प्राप्त होता है। तू यहाँ प्रातः-सायं सदा अग्निकुण्ड में उबुद्ध होता है। (यतः) = क्योंकि (जात:) = उत्पन्न हुआ हुआ तू (अरोचथाः) = [रोचयसि] हम सबके जीवनों को दीप्त करनेवाला होता है। जिस घर में भी तेरा प्रणयन होता है, वहाँ तू सब गृहवासियों को सौमनस्य देनेवाला होता है। उनके जीवन को तू रोचक व आनन्दयुक्त कर देता है । ३. (तं जानन्) = अपने उस घर को जानता हुआ, अर्थात् घर की रक्षा को न भूलता हुआ तू (आरोह) = [पुनरुद्धरणाय प्रविश - म०] सबके उद्धार के लिए यहाँ प्रवेश कर। इस घर में तेरा स्थान सर्वोपरि हो। तू ही तो सब घरवालों का रक्षक है। ४. (अथ) = और अब हमें स्वस्थ व सुमनस् बनाकर (नः) = हमारे (रयिम्) = धन को (वर्धय) = बढ़ा। अग्नि हमारी सम्पत्ति को कम न करके बढ़ाता ही है। यह समझना कि 'पचास ग्राम घी जल गया' ठीक नहीं। वह घृत सूक्ष्म कणों में विभक्त होकर सर्वत्र फैल गया है, वह वायु में रोगकृमियों का नाशक बनता है, यही अग्नि का 'रक्षो दहन' है। अग्नि हमें स्वस्थ बनाता है। ठीक समय पर वृष्टि आदि का कारण बनकर प्रचुर मात्रा में पौष्टिक अन्नों के उत्पादन का कारण बनता है। इस प्रकार हमारे धनों की वृद्धि का हेतु होता है। दवाइयों के व्यय को भी समाप्त करके हमारे धनों का रक्षक बनता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारा घर यज्ञाग्नि का ही घर हो जाए-' यज्ञभवन' बन जाए । यह अग्नि हमारे स्वास्थ्य आदि का रक्षक और हमारे धनों का वर्धन करनेवाला हो ।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    विवाहाच्या वेळी स्त्री-पुरुषांकडून ही दुसरी प्रतिज्ञा करवून घेतली पाहिजे की, ज्या ब्रह्मचर्य व विद्येमुळे तुम्ही स्त्री-पुरुष कृतकृत्य झाला आहात त्याचा सदैव प्रसार करा व पुरुषार्थाने धन वगैरे वाढवा व ते चांगल्या कामासाठी खर्च करा. येथे हेमंत ऋतूची व्याख्या पूर्ण झालेली आहे.

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    विषय

    पुढील मंत्रात तोच विषय प्रतिपादित आहे-

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (घरातील वरिष्ठजन, श्वसुर आदी घरातील पतीस वा पत्नीस म्हणत आहेत) हे (अग्ने) विद्वान पुरुष (पती) वा हे विदुषी स्त्री (पत्नी), (अयम्) हे (ते) तुझे (ऋत्विय:) ऋतूप्रमाणे का वय आदीप्रमाणे प्राप्त झालेले (योनि:) घर आहे. (युवावस्था प्राप्त झाल्यानंतर गृहाश्रमाची कर्तव्ये पार पाडण्यासाठी तुला हे घर मिळाले आहे) (यत:) ज्या विद्या (कला) आदींच्या पठन-पाठनासाठी (जात:) तू प्रसिद्ध आहेस, त्या विद्या-कला आदी क्षेत्रात) (अरोचथा:) अधिक वा उत्तरोत्तर प्रकाशमान, कीर्तिमान हो (तम्) त्या विद्येला (जानन्) जाणत, तू (आ रोह) धर्ममार्गावर आरुढ हो. (अथ) आणि या नंतर तू (न:) आमची वा आमच्यासाठी (रदिम्) संपत्ती-समृद्धी (वर्धय) वाढव. ॥56॥

    भावार्थ

    भावार्थ - विवाहाप्रसंगी वर-वधुकडून ही एक दुसरी प्रतिज्ञा देखील म्हणवून घेतली पाहिजे की तुम्ही दोघे ब्रह्मचर्य आणि विद्या यांमुळे प्रशंसित वा महनीय झाला आहात. त्या ब्रह्मचर्य आणि विद्या-प्रसार कार्याचा नेहमी प्रचार करीत जा. तसेच आपल्या पुरुषार्थाने धनादी पदार्थांची वृद्धी करून त्या संपत्तीचा उपयोग चांगल्या कामासाठी करीत जा. इथपर्यंत हेमन्त ऋतूविषयीचे व्याख्यान पूर्ण होत आहे ॥56॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O learned man or woman, this is thy house comfortable in all seasons. Stick fast to religion keeping in mind the education received, whereby thou hast attained to name and fame. Cause then our riches to increase.

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    Meaning

    Agni, fire and power of life, this home of yajna is your seat of action in accordance with the time and season. From here emerging, you shine and illuminate the world around. Knowing this, proceed and rise, and develop the wealth of life for us.

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    Translation

    O fire divine,this is your right place of birth, in all seasons, whence, as soon as you spring to life, you ever shine. Knowing this, may you stay here and make our riches grow. (1)

    Notes

    Repeated from III. 14 and XII. 52.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে (অগ্নে) বিদ্বন্ বা বিদুষি! (অয়ম্) এই (তে) তোমার (ঋত্বিয়ঃ) ঋতু অর্থাৎ সময়ে প্রাপ্ত (য়োনিঃ) গৃহ, (য়তঃ) যে বিদ্যা পঠনপাঠন দ্বারা (জাতঃ) প্রসিদ্ধ হইয়াছ এমন তুমি (অরোচথাঃ) প্রকাশিত হও । (তম্) তাহাকে (জানন্) জানিয়া (আ, রোহ) ধর্মের উপর আরূঢ় হও (অথ) ইহার পশ্চাৎ (নঃ) আমাদের (রয়িম্) সম্পত্তিকে (বর্ধয়) বৃদ্ধি কর ॥ ৫৬ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–স্ত্রী-পুরুষদিগের বিবাহে ইহাও দ্বিতীয় প্রতিজ্ঞা করান উচিত যে, যে ব্রহ্মচর্য্য এবং যে বিদ্যা সহ তোমরা উভয়ে স্ত্রী-পুরুষ কৃতকৃত্য হও তাহা সর্বদা প্রচারিত করিতে থাকিবে এবং পুরুষার্থ দ্বারা ধনাদি পদার্থকে বৃদ্ধি করিয়া উহাকে উত্তম পথে খরচা করিতে থাকিবে । এই সমস্ত হেমন্ত ঋতুর ব্যাখ্যান পূর্ণ হইল ॥ ৫৬ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অ॒য়ং তে॒ য়োনি॑র্ঋ॒ত্বিয়ো॒ য়তো॑ জা॒তোऽঅরো॑চথাঃ ।
    তং জা॒নন্ন॑গ্ন॒ऽআ রো॒হাথা॑ নো বর্ধয়া র॒য়িম্ ॥ ৫৬ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অয়ং ত ইত্যস্য পরমেষ্ঠী ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । নিচৃদনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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