यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 28
ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - विराडार्षी जगती
स्वरः - निषादः
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त्वाम॑ग्ने॒ऽअङ्गि॑रसो॒ गुहा॑ हि॒तमन्व॑विन्दञ्छिश्रिया॒णं वने॑वने। स जा॑यसे म॒थ्यमा॑नः॒ सहो॑ म॒हत् त्वामा॑हुः॒ सह॑सस्पु॒त्रम॑ङ्गिरः॥२८॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम्। अ॒ग्ने॒। अङ्गि॑रसः। गुहा॑। हि॒तम्। अनु॑। अ॒वि॒न्द॒न्। शि॒श्रि॒या॒णम्। व॑नेवन॒ इति॒ वने॑ऽवने। सः। जा॒य॒से॒। म॒थ्यमा॑नः। सहः॑। म॒हत्। त्वाम्। आ॒हुः॒। सह॑सः। पु॒त्रम्। अ॒ङ्गि॒रः॒ ॥२८ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वामग्नेऽअङ्गिरसो गुहा हितमन्वविन्दञ्छिश्रियाणँवनेवने । स जायसे मथ्यमानः सहो महत्त्वामाहुः सहसस्पुत्रमङ्गिरः ॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वाम्। अग्ने। अङ्गिरसः। गुहा। हितम्। अनु। अविन्दन्। शिश्रियाणम्। वनेवन इति वनेऽवने। सः। जायसे। मथ्यमानः। सहः। महत्। त्वाम्। आहुः। सहसः। पुत्रम्। अङ्गिरः॥२८॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्याह॥
अन्वयः
हेऽङ्गिरोऽग्ने! त्वं स मथ्यमानोऽग्निरिव विद्यया जायसे, यथा महत्सहो युक्तं सहसस्पुत्रं वनेवने शिश्रियाणं गुहा हितं त्वामाहुरङ्गिरसोऽन्वविन्दंस्तथा त्वामहं बोधयामि॥२८॥
पदार्थः
(त्वाम्) (अग्ने) विद्वन्! (अङ्गिरसः) विद्वांसः (गुहा) गुहायां बुद्धौ। अत्र सुपां सुलुग्॰ [अ॰७.१.३९] इति ङेर्लुक् (हितम्) हितकारिणम् (अनु) (अविन्दन्) प्राप्नुयुः (शिश्रियाणम्) श्रयन्तम् (वनेवने) रश्मौ रश्मौ पदार्थे पदार्थे वा (सः) (जायसे) (मथ्यमानः) संघृष्यमाणः (सहः) बलम् (महत्) (त्वाम्) तम् (आहुः) कथयन्ति (सहसः) बलवतो वायोः (पुत्रम्) उत्पन्नम् (अङ्गिरः) प्राणवत् प्रिय॥२८॥
भावार्थः
द्विविधोऽग्निर्मानसो बाह्यश्चास्ति तयोराभ्यन्तरं युक्ताभ्यामाहारविहाराभ्यां बाह्यं मन्थनादिभ्यः सर्वे विद्वांसः सेवन्ताम्। तथेतरे भजन्तु॥२८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (अङ्गिरः) प्राणवत्प्रिय (अग्ने) विद्वन्! जैसे (सः) वह (मथ्यमानः) मथन किया हुआ अग्नि प्रसिद्ध होता है, वैसे तू विद्या से (जायसे) प्रकट होता है, जिस को (महत्) बड़े (सहः) बलयुक्त (सहसः) बलवान् वायु से (पुत्रम्) उत्पन्न हुए पुत्र के तुल्य (वनेवने) किरण-किरण वा पदार्थ-पदार्थ में (शिश्रियाणम्) आश्रित (गुहा) बुद्धि में (हितम्) स्थित हितकारी (त्वाम्) उस अग्नि को (आहुः) कहते हैं, (अङ्गिरसः) विद्वान् लोग (अन्वविन्दन्) प्राप्त होते हैं, उसका बोध (त्वाम्) तुझे कराता हूँ॥२८॥
भावार्थ
अग्नि दो प्रकार का होता है-एक मानस और दूसरा बाह्य। इस में आभ्यन्तर को युक्त आहार-विहारों से और बाह्य को मन्थनादि से सब विद्वान् सेवन करें, वैसे इतर जन भी सेवन किया करें॥२८॥
विषय
अग्नि के समान राजा का शक्तिपुंज होना ।
भावार्थ
हे (अग्ने) अग्नि के समान प्रकाशमान तेजस्विन्! गुहा हितम्) अपने हृदय के गुह्य स्थान में स्थित और (वने वने शिश्रियाणम्) वन २ प्रत्येक आमा आत्मा में विद्यमान(त्वाम्) तुझ परमेश्वर का ( अंगिरस ) ज्ञानी योगाभ्यासी पुरुष जिस प्रकार ( अनु अविन्दन् ) साक्षात् दर्शन करते हैं या प्रथम अपने आत्मा का और फिर उसमें भी व्यापक तेरा साक्षात् करते हैं और जिस प्रकार ( वने वने शिश्रियाणम् ) प्रति पदार्थ या प्रत्येक काष्ठ में या प्रत्येक जल के परमाणु में विद्यमान ( गुहा हितम् ) गुप्त रूप से स्थित अग्नि तत्व को ( अङ्गिरसः ) विज्ञान वेता ( अनु अविन्दन् ) प्राप्त करते हैं और जिस प्रकार (सः) वह तू (मध्य- मान:) प्राणायाम, ज्ञान, ध्यानाभ्यास से मथित होकर परमेश्वर प्रकट होता है और जिस प्रकार अरणियों से मथा जाकर अग्नि प्रकट होता है उसी प्रकार ( मथ्यमानः ) अपनी और शत्रु सेना के बीच में युद्धादि द्वारा मथा जाकर ( महत् सहः ) बड़े भारी बल रूप से ( जायसे ) प्रकट होता है। हे (अंगिरः) सूर्य के समान या अंगारों के समान तेजस्विन् या शरीर में प्राण के समान राष्ट्र के प्राणरूप ! (त्वाम् ) तुझको ( सहसः पुत्रम् ) बल का, पुन शक्ति का पुतला शक्ति से उत्पन्न हुआ ( आहुः ) कहते हैं ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अग्निर्देवता विराडार्षी जगती । निषादः ॥
विषय
सहसस्पुत्रः
पदार्थ
१. हे (अग्ने) = अग्रेणी-सर्वोन्नति - साधक प्रभो ! (गुहा हितम्) = हृदयरूप निगूढ प्रदेश में स्थित (त्वाम्) = आपको (अङ्गिरसः) = अङ्ग अङ्ग में रसवाले, अर्थात् पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति (अनु अविन्दत्) = आत्मदर्शन के बाद [अनु] प्राप्त करते हैं। जब मनुष्य चित्तवृत्ति का निरोध करके अन्तर्यात्रा करता हुआ अपने स्वरूप में अवस्थित होता है तभी वह प्रभु-दर्शन कर पाता है। २. उस प्रभु को देख पाता है जो (वनेवने) = सब जितेन्द्रिय पुरुषों में तथा [वन=' ray of light] ज्ञान के पुञ्ज बने हुए पुरुषों में (शिश्रियाणम्) = अवस्थित हैं, आश्रय किये हुए हैं। जितेन्द्रिय व ज्ञानी पुरुष ही प्रभु का आश्रय बनते हैं। सर्वव्यापकता के नाते सर्वत्र होते हुए भी प्रभु इन्हीं में प्रकट होते हैं। ३. हे प्रभो! (सः) = वे आप (जायसे) = प्रकट होते हैं। कब? जबकि (मथ्यमानः) = वे अङ्गिरस् आपका मन्थन करते हैं। जैसे दो अरणियों की रगड़ से अग्नि प्रकट होती है, इसी प्रकार हृदय व मस्तिष्करूप अरणियों के मन्थन से प्रभुरूप अग्नि का प्रकाश होता है । ४. (सहः महत्) = हे प्रभो! आप महान् बल हो । जिसमें भी आपका प्रकाश होता है, वह आपकी इस शक्ति से शक्ति सम्पन्न बनता है । ५. हे (अङ्गिर:) = अङ्ग-अङ्ग में रस का सञ्चार करनेवाले प्रभो! (त्वाम्) = आपको (सहसः पुत्रम्) = बल का पुतला = बल का पुञ्ज (आहुः) = कहते हैं। अथवा (सहसः) = बल के द्वारा (पुत्रम्) = [पुनाति त्रायते] पवित्र करनेवाला व रक्षा करनेवाला कहते हैं। 'सहस्' सर्वोत्तम शक्ति का वाचक है-यह आनन्दमयकोश का बल है। इसके साथ ही सब गुणों का वास है। इसके होने पर ही मनुष्य में सब उत्तमताओं का विकास होता है। इस 'सहस्' को प्राप्त करनेवाले 'अङ्गिरस्' लोग ही प्रभु का दर्शन कर पाते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम अङ्गिरस् बनें। सहस् व बल का धारण करें। जितेन्द्रिय बनकर ज्ञानी बनें तभी हम हृदयस्थ प्रभु का दर्शन कर पाएँगे।
मराठी (2)
भावार्थ
अग्नी दोन प्रकारचा असतो. एक मानस व दुसरा बाह्य. यापैकी अभ्यंतर अग्नीला आहार व विहार यांनी, तर बाह्य अग्नी मन्थनाने, प्रकट होतो हे सर्व विद्वानानी जाणावे आणि इतर लोकांनीही ते जाणून घ्यावे.
विषय
पुन्हा तोच विषय पुढील मंत्रात वर्णित आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (अड्गिर:) प्राणप्रिय (अग्ने) विद्वान, ज्याप्रमाणे (स:) तो अग्नी (मथ्यमान:) मंथन अथवा घर्षण करून प्रकट होतो, त्याप्रमाणे आपण (शिष्याच्या बुद्धीत) ज्ञानाद्वारे (जायसे) प्रकट होता (प्रयत्न करून शिष्याला ज्ञानाने संपन्न करता) या अग्नीला (महत्) महान (सह:) बलशाली (म्हणतात). (सहस:) शक्तिशाली वायूद्वारे (पुत्रम्) उत्पन्न पुत्राप्रमाणे असलेल्या (त्वाम्) त्या अग्नीला (वनेवने) सूर्याच्या प्रत्येक किरणांमधे अथवा पदार्थांमधे (शिश्रियाणम्) राहणारा आणि (गुहा बुद्धीसाठी (हितम्) हितकारी (आहु:) म्हणतात. (अड्गिरस:) विद्वज्जन त्या अग्नीला (अन्वविन्दन्) प्राप्त करतात (त्याविषयी अधिक शोध करतात) (हे ज्ञानार्थी शिष्या) मी (त्वाम्) तुला त्या अग्नीचे ज्ञान करून देत आहे. ॥28॥
भावार्थ
भावार्थ - अग्नी दोन प्रकारचा असतो. एक मानस अग्नी आणि दुसरा बाह्य अग्नी यापैकी आभ्यंतर अग्नीचे युक्त आहार-विहाराद्वारे सेवन करावे आणि विद्वज्जन ज्याप्रमाणे बाह्य अग्नीचे सेवन करतात, इतर लोकांनी त्याप्रमाणे अग्नीचे सेवन करावे ॥28॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O learned person, dear like life, thou shinest with knowledge, like fire with attrition. Fire, highly serviceable, residing in the inmost recesses of out heart, present in all rays and objects, is called the son of highly strong and powerful air. The learned master it. I preach unto thee its significance.
Meaning
Agni, fire, universal light of life, saints and scholars search for you and discover your presence hidden in the heart, abiding in every current of energy. Such as you are, churned out of nature you rise, and they find you mighty, great and awful child of the Wind, dear as the very breath of life.
Translation
О adorable Lord, earnest seekers discover your knowledge, which remains hidden in mystery, like flames taking refuge from wood to wood. Similar to fire produced by attrition, your glory is manifested by hard toil and great endurance. Therefore, devotees call you, O dearest Lord, the source of strength. (1)
Notes
Aügirasah, विद्वांस:, earnest seekers. Guha hitam, hidden in a cave. There is a legend, that once Agni quarelled with gods and then went into hiding in the waters. Sisriánam, अवस्थितं ‚ seeking shelter in. Vane vane, नाना वनस्पतिषु,in various trees, or plants; wood of different types. Mahat sahah, great heat, blaze, or glory. Sahasasputram, soh of strength; or source of strength. Mathyamáànah, produced by attrition of woods, i. e. two aranis.
बंगाली (1)
विषय
পুনঃ স কীদৃশ ইত্যাহ ॥
পুনঃ সে কেমন হইবে, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।
पदार्थ
পদার্থঃ–হে (অঙ্গিরঃ) প্রাণবৎ প্রিয় (অগ্নে) বিদ্বান্! যেমন (সঃ) সে (মথ্যমানঃ) মন্থন করা অগ্নি প্রসিদ্ধ হয় সেইরূপ তুমি বিদ্যা দ্বারা (জায়সে) প্রকট হও যাহাকে (মহৎ) মহৎ (সহঃ) বলযুক্ত (সহসঃ) বলবান বায়ু দ্বারা (পুত্রম্) উৎপন্ন পুত্র তুল্য (বনে বনে) কিরণ কিরণ বা পদার্থ পদার্থে (শিশ্রিয়াণম্) আশ্রিত (গুহা) বুদ্ধিতে (হিতম্) স্থিত হিতকারী (ত্বাম) সেই অগ্নিকে (আহুঃ) বলে । (অঙ্গিরসঃ) বিদ্বান্গণ (অন্ববিন্দন্) প্রাপ্ত হন্ উহার বোধ (ত্বাম্) তোমাকে করাই ॥ ২৮ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–অগ্নি দুই প্রকারের হয়–এক মানস এবং দ্বিতীয় বাহ্য । ইহার মধ্যে আভ্যন্তরকে যুক্ত আহার-বিহারের দ্বারা এবং বাহ্যকে মন্থনাদি দ্বারা সকল বিদ্বান্ সেবন করুক সেইরূপ ইতর জনও সেবন করিতে থাকিবে ॥ ২৮ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
ত্বাম॑গ্নে॒ऽঅঙ্গি॑রসো॒ গুহা॑ হি॒তমন্ব॑বিন্দঞ্ছিশ্রিয়া॒ণং বনে॑বনে ।
স জা॑য়সে ম॒থ্যমা॑নঃ॒ সহো॑ ম॒হৎ ত্বামা॑হুঃ॒ সহ॑সস্পু॒ত্রম॑ঙ্গিরঃ ॥ ২৮ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ত্বামগ্ন ইত্যস্য পরমেষ্ঠী ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । বিরাডার্ষী জগতী ছন্দঃ ।
নিষাদঃ স্বরঃ ॥
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