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यजुर्वेद अध्याय - 15

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  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 12
    ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः देवता - आदित्या देवताः छन्दः - निचृद्ब्रह्मी जगती, ब्रह्मी बृहती स्वरः - निषादः, मध्यमः
    79

    स॒म्राड॑सि प्र॒तीची॒ दिगा॑दि॒त्यास्ते॑ दे॒वाऽअधि॑पतयो॒ वरु॑णो हेती॒नां प्र॑तिध॒र्त्ता स॑प्तद॒शस्त्वा॒ स्तोमः॑ पृथि॒व्याश्र॑यतु मरुत्व॒तीय॑मु॒क्थमव्य॑थायै स्तभ्नातु वैरू॒पꣳ साम॒ प्रति॑ष्ठित्याऽअ॒न्तरि॑क्ष॒ऽऋष॑यस्त्वा प्रथम॒जा दे॒वेषु॑ दि॒वो मात्र॑या वरि॒म्णा प्र॑थन्तु विध॒र्त्ता चा॒यमधि॑पतिश्च॒ ते त्वा॒ सर्वे॑ संविदा॒ना नाक॑स्य पृ॒ष्ठे स्व॒र्गे लो॒के यज॑मानं च सादयन्तु॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒म्राडिति॑ स॒म्ऽराट्। अ॒सि॒। प्र॒तीची॑। दिक्। आ॒दि॒त्याः। ते॒। दे॒वाः। अधि॑पतय॒ इत्यधि॑ऽपतयः। वरु॑णः। हे॒ती॒नाम्। प्र॒ति॒ध॒र्त्तेति॑ प्रतिऽध॒र्त्ता। स॒प्त॒द॒श इति॑ सप्तऽद॒शः। त्वा॒। स्तोमः॑। पृ॒थि॒व्याम्। श्र॒य॒तु॒। म॒रु॒त्व॒तीय॑म्। उ॒क्थम्। अव्य॑थायै। स्त॒भ्ना॒तु॒। वै॒रू॒पम्। साम॑। प्रति॑ष्ठित्यै। प्रति॑स्थित्या॒ इति॒ प्रति॑ऽस्थित्यै। अ॒न्तरि॑क्षे। ऋष॑यः। त्वा॒। प्र॒थ॒म॒जा इति॑ प्रथम॒ऽजाः। दे॒वेषु॑। दि॒वः। मात्र॑या। व॒रि॒म्णा। प्र॒थ॒न्तु॒। वि॒ध॒र्त्तेति॑ विऽध॒र्त्ता। च॒। अ॒यम्। अधि॑पति॒रित्यधि॑ऽपतिः। च॒। ते। त्वा॒। सर्वे॑। सं॒वि॒दा॒ना इति॑ सम्ऽविदा॒नाः। नाक॑स्य। पृ॒ष्ठे। स्व॒र्ग इति॑ स्वः॒ऽगे। लो॒के। यज॑मानम्। च॒। सा॒द॒य॒न्तु॒ ॥१२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सम्राडसि प्रतीची दिगादित्यास्ते देवाऽअधिपतयो वरुणो हेतीनाम्प्रतिधर्ता सप्तदशस्त्वा स्तोमः पृथिव्याँ श्रयतु मरुत्वतीयमुक्थमव्यथायै स्तभ्नातु वैरूपँ साम प्रतिष्ठित्याऽअन्तरिक्षऽऋषयस्त्वा प्रथमजा देवेषु दिवो मात्रया वरिम्णा प्रथन्तु विधर्ता चायमधिपतिश्च ते त्वा सर्वे सँविदाता नाकस्य पृष्ठे स्वर्गे लोके यजमानञ्च सादयन्तु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सम्राडिति सम्ऽराट्। असि। प्रतीची। दिक्। आदित्याः। ते। देवाः। अधिपतय इत्यधिऽपतयः। वरुणः। हेतीनाम्। प्रतिधर्त्तेति प्रतिऽधर्त्ता। सप्तदश इति सप्तऽदशः। त्वा। स्तोमः। पृथिव्याम्। श्रयतु। मरुत्वतीयम्। उक्थम्। अव्यथायै। स्तभ्नातु। वैरूपम्। साम। प्रतिष्ठित्यै। प्रतिस्थित्या इति प्रतिऽस्थित्यै। अन्तरिक्षे। ऋषयः। त्वा। प्रथमजा इति प्रथमऽजाः। देवेषु। दिवः। मात्रया। वरिम्णा। प्रथन्तु। विधर्त्तेति विऽधर्त्ता। च। अयम्। अधिपतिरित्यधिऽपतिः। च। ते। त्वा। सर्वे। संविदाना इति सम्ऽविदानाः। नाकस्य। पृष्ठे। स्वर्ग इति स्वःऽगे। लोके। यजमानम्। च। सादयन्तु॥१२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 12
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ कीदृशौ स्यातामित्याह॥

    अन्वयः

    हे स्त्रि! या प्रतीची दिगिव सम्राडसि तस्यास्ते पतिरादित्या देवा अधिपतय इवायं सप्तदशश्च स्तोमो वरुणो हेतीनां प्रतिधर्त्ताधिपतिस्त्वा पृथिव्यां श्रयत्वव्यथायै मरुत्वतीयमुक्थं प्रतिष्ठित्यै वैरूपं साम च स्तभ्नातु ये च दिवो मात्रया वरिम्णा सहान्तरिक्षे प्रथमजा ऋषयो देवेषु वर्त्तन्ते तद्वत् त्वा विद्वांसः प्रथन्तु। यथा विधर्त्ता चाधिपतिश्च राजा प्रजाः सुखे स्थापयतु तथा ते सर्वे संविदानाः सन्तस्त्वा यजमानं च नाकस्य पृष्ठे स्वर्गे लोके सादयन्तु॥१२॥

    पदार्थः

    (सम्राट्) या सम्यक् प्रदीप्यते (असि) (प्रतीची) पश्चिमा (दिक्) दिशन्ति यया सा दिक् तद्वत् (आदित्याः) विद्युद्युक्ताः प्राणा वायवः (ते) तव (देवाः) दिव्यसुखप्रदाः (अधिपतयः) स्वामिनः (वरुणः) जलसमुदाय इव दुष्टानां बन्धकः (हेतीनाम्) विद्युताम् (प्रतिधर्त्ता) (सप्तदशः) एतत्संख्यापूरकः (त्वा) त्वाम् (स्तोमः) स्तोतुमर्हः (पृथिव्याम्) (श्रयतु) (मरुत्वतीयम्) बहवो मरुतो व्याख्यातारो मनुष्या विद्यन्ते यस्मिँस्तत्र भवम् (उक्थम्) वाच्यम् (अव्यथायै) अविद्यमानात्मसंचलनायै (स्तभ्नातु) गृह्णातु (वैरूपम्) विविधानि रूपाणि प्रकृतानि यस्मिंस्तत् (साम) (प्रतिष्ठित्यै) (अन्तरिक्षे) (ऋषयः) गतिमन्तः (त्वा) (प्रथमजाः) प्रथमाद् विस्तीर्णात् कारणाज्जाता वायवः (देवेषु) दानसाधकेषु (दिवः) प्रकाशस्य (मात्रया) भागेन (वरिम्णा) (प्रथन्तु) (विधर्त्ता) विविधानां रत्नानां धारकः (च) (अयम्) (अधिपतिः) (च) (ते) (त्वा) (सर्वे) (संविदानाः) सम्यग्लब्धज्ञानाः (नाकस्य) (पृष्ठे) (स्वर्गे) (लोके) (यजमानम्) (च) (सादयन्तु)॥१२॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्वांसः पश्चिमां दिशं तत्रस्थान् पदार्थाँश्चान्येभ्यो विज्ञापयन्ति। तथा स्त्रीपुरुषाः स्वापत्यादीन् विद्ययाऽलंकुर्वन्तु॥१२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे स्त्री-पुरुष कैसे हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे स्त्रि! जो तू (प्रतीची) पश्चिम (दिक्) दिशा के समान (सम्राट्) सम्यक् प्रकाशित (असि) है, उस (ते) तेरा पति (आदित्याः) बिजुली से युक्त प्राणवायु (देवाः) दिव्य सुखदाता (अधिपतयः) स्वामियों के तुल्य (अयम्) यह (सप्तदशः) सत्रह संख्या का पूरक (च) और (स्तोमः) स्तुति के योग्य (वरुणः) जलसमुदाय के समान (हेतीनाम्) बिजुलियों का (प्रतिधर्त्ता) धारण करने वाला (अधिपतिः) स्वामी (त्वा) तुझ को (पृथिव्याम्) पृथिवी पर (श्रयतु) सेवन करे (अव्यथायै) स्वरूप से अचल तेरे लिये (मरुत्वतीयम्) बहुत मनुष्यों के व्याख्यान से युक्त (उक्थम्) कथनयोग्य वेदवचन तथा (प्रतिष्ठत्यै) प्रतिष्ठा के लिये (वैरूपम्) विविध रूपों के व्याख्यान से युक्त (साम) सामवेद को (स्तभ्नातु) ग्रहण करे और जो (दिवः) प्रकाश के (मात्रया) भाग से (वरिम्णा) बहुत्व के साथ (अन्तरिक्षे) आकाश में (प्रथमजाः) विस्तारयुक्त कारण से उत्पन्न हुए (ऋषयः) गतियुक्त वायु (देवेषु) दान के हेतु अवयवों में वर्त्तमान हैं, वैसे (त्वा) तुझ को विद्वान् लोग (प्रथन्तु) प्रसिद्ध उपदेश करें। जैसे (विधर्त्ता) जो विविध रत्नों का धारने हारा है, (च) यह भी (अधिपतिः) अध्यक्ष स्वामी प्रजाओं को सुख में रखता है, वैसे (ते) तेरे मध्य में (सर्वे) सब (संविदानाः) अच्छे प्रकार ज्ञान को प्राप्त हुए (त्वा) तुझ को (च) और (यजमानम्) विद्वानों के सेवक पुरुष को (नाकस्य) दुःखरहित देश के (पृष्ठे) एक भाग में (स्वर्गे) सुखप्रापक (लोके) दर्शनीय स्थान में (सादयन्तु) स्थापित करें॥१२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् लोग पश्चिम दिशा और वहां के पदार्थों को दूसरों को जनाते हैं, वैसे स्त्री-पुरुष अपने सन्तानों आदि को विद्यादि गुणों से सुशोभित करें॥१२॥

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    भावार्थ

    ( प्रतीची दिग् ) पश्चिम दिशा जिल प्रकार मध्यान्ह के बाद भी प्रखर सूर्य से सब प्रकार से दीप्त, उज्ज्वल होती है उसी प्रकार हे राजश! तू भी अपने पूर्ण वैभव को प्राप्त कर लेने के बाद ( सम्राट् असि ) 'सम्राट्' की शक्ति बन जाता है । (ते अधिपतयः आदित्याः ) आदित्य के समान तेजस्वी, पदाधिकारी अथवा आदान प्रतिदिन करने वाले वैश्य- गण तेरे अधिपति, स्वामी होते हैं । ( वरुणः हेतीनां प्रतिवर्त्ता ) शत्रुओं को वारण करने में समर्थ पुरुष शस्त्रों को धारण करने वाला होता है । ( संप्तदश: स्तोमः त्वा पृथिव्यां श्रयतु ) शरीर में दश हाथ की अगुलियों, बाहु टार्गे ४, शिर, उदर, और आत्मा इन १७ अंशों के समान राष्ट्र को धारण करने वाले १७ घटक विभागों से सम्पन्न वीर्यवान् अधिकारीगण तुझको पृथिवी पर स्थिर रखें। ( मरुत्वतीयम् उक्थम् अव्यथायै स्तभ्नातु ) वायु के समान वेगवान् वीर भटों के नायक इन्द्र, सेनानायक का सेना बल ही राष्ट्र-व्यवस्था को पीड़ा न पहुंचाने के लिये दृढ़ करे । और (वैरूप साम प्रतिष्ठित्या ) उसके प्रतिष्ठा या आश्रय के लिये 'वैरूप' अर्थात् विविध प्रकार की प्रजा का विविध दल ही रहे। (अन्तरिक्ष ऋषयः ० इत्यादि) पूर्ववत् ॥ शत० ८ । ६ । १ । ७ ॥ 'प्रउगम् उक्थम्'-- तद् यत् अभिप्रायुञ्जत तत् प्रउगस्य प्रउगत्वम् ॥ प्राणाः प्रउगम् । तस्माद् बहवो देवता प्रउगे शस्त्रन्ते | कौ० १४।५ ॥ ग्रहोक्थं वा एतद् यत् प्रउगम् । ऐ० ३ | १ ॥ सब तरफ़ उत्तम अधिकारियों को नियोजन करना या ग्रहों की या राज्याङ्गों की स्थापना 'प्रउग कहाता है। इसमें बहुत से 'देव' राजपदअधिकारी पुरुषों का वर्णन होता है । प्राण एव उक् तस्य अन्न मेव थम् शत० १०।४।१।२३ ॥ अग्निर्वा उक् तस्याहुतय एव थम् । १० । ६ । २ । १० । अतो हि सर्वाणि नामानि उत्तिष्ठन्ति । विड् उक्थानि । तां० १।८।८।६ ॥ जिस प्रकार शरीर में प्राण और वेदी में अग्नि है उसी प्रकार राष्ट्र में वह पद जिस पर मुख्य पदाधिकारी नियुक्त है 'उक्थ' कहाता है। इसमें पदाधिकार और उसका भोग्य वेतन और ऐश्वर्य दोनों सम्मिलित हैं। इसी का दूसरा नाम 'शस्त्र' है । इसे सामान्यतः 'धारा' कह सकते हैं । मरुत्वतीयम् उक्थम् । एतद् वार्त्रघ्नमेवोक्थं यन्मरुत्वतीयम् एतेन हीन्द्रः पृतना अजयत् ॥ कौ० १५ ॥ २ ॥ तदेतत् पृतनाजिदेव सूक्तम् । एतेन हीन्द्रो वृत्रमहन् ॥ कौ० १५।३ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋष्यादि पूर्ववत् ।

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    विषय

    सम्राट्

    पदार्थ

    १. (सम्राट् असि) = तू घर में उत्तमता से शासन करनेवाली है। २. (प्रतीची दिक्) = प्रतीची तेरी दिशा है। यह तुझे [प्रति अञ्च्] वापस लौटने का उपदेश दे रही है। दाक्षिण्य से ऐश्वर्य के बढ़ने पर इन्द्रियों के विषयों में आसक्त हो जाने की बड़ी आशंका है, अतः तूने इन्द्रियों को विषयों से वापस लौटाने का ध्यान करना है, यही 'प्रत्याहार' है । ३. (आदित्याः ते देवा:) = आदित्य तेरे देव हैं। इनकी आराधना से तू इनकी भाँति ही उत्तमता का आदान करनेवाली हो। इस उत्तमता का निरन्तर आदान (अधिपतयः) = तेरा आधिक्येन रक्षक हो । ४. (वरुणः) = सब प्रकार के द्वेषों का निवारण करनेवाला गृहपति (हेतीनाम्) = घर पर पड़नेवाले वज्रों व कष्टों का (प्रतिधर्त्ता) = प्रतीकार करनेवाला हो। वस्तुतः यह निर्देषता ही घर के कल्याण का साधन हो जाए। ५. (सप्तदश स्तोमः) = पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच प्राण तथा मन और बुद्धि का समूह (त्वा) = तुझे (पृथिव्याम्) = इस शरीर में सेवन करनेवाला हो । इनके द्वारा तेरा शरीर बड़ा ठीक बना रहे। ६. (मरुत्वतीय उक्थम्) = प्रशंसनीय मितभाषण [ मरुतः मितराविण:, मरुत्वतीय - मरुतोंवाली मितभाषिता] (अव्यथायै) = पीड़ा न होने देने के लिए (स्तभ्नातु) = तुझे थामे, अर्थात् मितभाषण तेरी पीड़ा के अभाव का कारण बने । ७. (वैरूपं साम) = 'मुझे विशिष्ट रूपवाला बनना है' इस निश्चय - सम्बन्धी उपासना (अन्तरिक्षे) = हृदयाकाश में (प्रतिष्ठित्यै) = प्रतिष्ठा के लिए हो। तेरे हृदय में यह मूलभूत सिद्धान्त अंकित हो जाए कि 'इस मानव जीवन में मुझे विशिष्ट रूपवाला बनना है।' ८. (त्वा) = तुझे (देवेषु) = विद्वानों में (प्रथमजा:) = प्रथम कोटि में होनेवाले (ऋषयः) = तत्त्वद्रष्टा लोग (दिवः मात्रया) = ज्ञान के अंश से तथा (वरिम्णा) = हृदय के विस्तार से प्रथन्तु प्रसिद्ध करें, तेरे जीवन की शक्तियों का विस्तार करें। ९. (विधर्त्ता) = सब द्वेषों के निवारण से आपत्तियों का प्रतीकार करनेवाला यह 'वरुण', (च अयं अधिपतिः) = और अधिष्ठातृरूपेण रक्षक ये आदित्य देव, (ते सर्वे च) = और वे सब प्रथमज ऋषि - उत्कृष्ट श्रेणी के ज्ञानी लोग (संविदाना:) = ऐकमत्यवाले होकर (नाकस्य पृष्ठे) = दुःखाभाववाले लोक के ऊपर (स्वर्गे लोके) = सुखमय लोक में (त्वा) = तुझे और (यजमानम्) = यज्ञशील गृहपति को (सादयन्तु) = बिठाएँ। इन सबकी कृपा से गृह स्वर्ग बन जाए।

    भावार्थ

    भावार्थ- पत्नी घर में उत्तमता से शासन करनेवाली हो। अच्छाइयों के ग्रहण के स्वभाववाली, मितभाषिणी, विशिष्ट रूपता को ध्येय बनाकर चलनेवाली हो। पति सब प्रकार के द्वेष का निवारण करनेवाला हो। ये बातें घर को अवश्य स्वर्ग बनाएँगी।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे विद्वान लोक पश्चिम दिशा व तेथील पदार्थांचे ज्ञान इतरांना देतात तसे स्त्री-पुरुषांनी संतानांना विद्या इत्यादी गुणांनी सुशोभित करावे.

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    विषय

    पुनश्च, तोच विषय (स्त्री-पुरुषांनी कसे असावे) पुढील मंत्रात कथित आहे-

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (विद्वानाचे वचन विदुषी स्त्री प्रत) हे स्त्री (गृहस्वामिनी), तू (प्रतीची) पश्चिम (दिक्) दिशेप्रमाणे (सम्राट्) सय्यकरीतीने प्रकाशित (कीतीमंत) (असि) आहेस. (ते) तुझा पती (तुला अनुकूल राहो) तसेच (आदित्या:) विद्यतमय प्राणवायू (देवा:) दिव्यसुखदायक (अधिपतय:) अनेक अधिपतीप्रमाणे (तुला अनुकूल राहो) (अयम्) हा (सप्तदश:) सत्रह पद्धतीने वा सत्रहवेळा (स्तोम:) स्तुती करण्यास योग्य अशा (वरूण:) जलसमुद्रायाप्रमाणे (हेतीनाम्) विद्युत (प्रतिधर्त्ता) धारण करणारा (अधिपति:) तुझा स्वामी (पती) (त्वा) तुला (पृथिव्याम्) या पृथ्वीवर (श्रयतु) अनुकूल राहून सेवन करो. तुझ्या पतीने (अन्यथायै) दु:खी वा व्यथित न होण्याचा स्वभाव असलेल्या तुझ्यासाठी (मरुत्वतीयम्) अनेक लोकांचे सवचन सांगावे. तसेच (उक्यम्) कथनीय वेदवचन (तुला सांगावेत) आणि (प्रठिष्ठित्यै) तुझी प्रतिष्ठा वाढविण्यासाठी (वैरुपम्) विविध विषयांचे व्याख्यान-विवरण असलेल्या (साम) सामवेदाचा उपदेश तुला (स्तभ्वातु) द्यावा. (दिव:) प्रकाशाच्या अधिक्याने (मात्रया) भरलेल्या (वरिम्णा) आणि सर्वत्र बहुलतेने व्याप्त अशा (अन्तरिक्षे) आकाशात (प्रथमजा:) मूळ कारणाने उत्पन्न झालेला (ऋषय:) गतिमान वायू जसा (देवेषु) दानाच्या साधनांत (हात आदीज) विद्यमान आहे, त्याप्रमाणे विद्वज्जनांनी (त्वा) तुला (प्रथन्तु) उपदेश करावा. (च) आणि जसे (अधिपति:) एक राजा प्रजाजनांना सुखी ठेवतो, तसे (सर्वे) सर्व (संविदाना:) ज्ञानी लोकांनी (ते) तुझ्यात आणि (त्वा) तुला (च) आणि (यजमानम्) विद्वानांच्या सेवकाला (नाकस्य) दु:खरहित प्रदेशाच्या (पृष्ठे) एका भागामध्ये (स्वर्गे) सुखकारक (लोके) प्रेक्षणीय स्नानामध्ये (साद्यन्तु) स्थापित करावे (ठेवावे) (शांत, निवांत स्थानात वेदाध्ययन श्रवण आदी सद्हेतूकरिता तुला निवास घ्यावा) ॥12॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. ज्याप्रमाणे विद्वान लोक पश्चिम दिशा आणि त्या दिशेत मिळणार्‍या गुणवान पदार्थांचे ज्ञान मिळवतात आणि ते ज्ञान इतरांना देतात, त्याप्रमाणे सर्व गृहाश्रमी स्त्री-पुरुषांनी आपल्या संतान आदींना विद्या विभूषित करावे, (त्यांना विद्यावान, गुणवान करावे) ॥12॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O woman, thou art brilliant like the West. The learned persons are thy overlords. Thy husband, possessing seventeen vital parts of the body, worthy of praise, the subduer of foes, master of fiery spirits, may serve thee on earth. May he, unfaltering in nature, full of instructions from many learned persons, and vedic lore, full of various teachings of great men, learn the Sama Veda for greatness. There are in the atmosphere many lustrous objects, created from the limitless material cause, and serviceable moving airs spread in all parts. The learned should instruct thee so. The master of riches, the king, keeps the people contented, so should all learned persons unanimously establish thee and thy husband in a happy abode, in a part of the earth, free from affliction.

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    Meaning

    You are the lady of brilliance and bliss like the soothing light of the Western direction. All the twelve Adityas, stars of light and powers of energy, are your divine protectors. Varuna, Lord of waters and controller of evil, wards off your suffering. May the Saptadasha (seventeen part) stoma settle you on the earth. May the Marutvatiya Uktha and the libations firmly stabilize you against doubt and disturbance. May the Vairupa Sama hymns extend your honour to the skies. May the foremost Rshis, saints and scholars spread your honour and fame with the measure of your heavenly excellence among the noblest people. May this lord of yours and the Lord sustainer of the world and all those powers that know, together in unison, establish you and the yajamana on the heights of the heavenly regions of bliss.

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    Translation

    You are samrat (sovereign ruler); region is western; Adityas (the suns) are your overlord Nature's bounties. Varuna (venerable Lord) is your warder off of the hostile weapons. May the saptadasa (of seventeen verses) praise-song help to establish you on the earth. May the marutvatiya (midday) litany keep you firm against slipping. May the vairupa saman establish you securely, in the mid-space. May the seers, foremost among the enlightened ones, extol you to the greatness of the heaven. May this sustainer and overlord of yours and all the others, with one mind, place you as well as the sacrificer on the top of the sorrowless abode in the world of light. (1)

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তৌ কীদৃশৌ স্যাতামিত্যাহ ॥
    পুনঃ সেই সব স্ত্রী পুরুষ কেমন হইবে এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে স্ত্রী ! তুমি (প্রতীচী) পশ্চিম (দিক্) দিকের সমান (সম্রাট) সম্যক্ প্রকাশিত (অসি) হও, সেই (তে) তোমার পতি (আদিত্যাঃ) বিদ্যুৎ দ্বারা যুক্ত প্রাণ বায়ু (দেশঃ) দিব্য সুখদাতা (অধিপতয়ঃ) স্বামিদিগের তুল্য (অয়ম্) এই (সপ্তদশঃ) সতের সংখ্যার পূরক (চ) এবং (স্তোমঃ) স্তুতির যোগ্য (বরুণঃ) জলসমুদায়ের সমান (হেতীনাম্) বিদ্যুৎসমুদয়ের (প্রতিবর্ত্তা) ধারণকর্তা (অধিপতিঃ) স্বামী (ত্বা) তোমাকে (পৃথিব্যাম্) পৃথিবীতে (শ্রবতু) সেবন করিবে, (অব্যথায়ৈ) স্বরূপে অচল তোমার জন্য (মরুত্বতীয়ম্) বহু মনুষ্যের ব্যাখ্যানের সহিত যুক্ত (উক্থম্) কথনযোগ্য বেদবচন তথা (প্রতিষ্ঠিত্যৈ) প্রতিষ্ঠা হেতু (বৈরূপম্) বিবিধ রূপের ব্যাখ্যানের সহিত যুক্ত (সাম) সামবেদকে (স্তভ্নাতু) গ্রহণ করিবে এবং যে (দিবঃ) প্রকাশের (মাত্রয়া) ভাগ দ্বারা (বরিম্ণা) বহুত্বের সঙ্গে (অন্তরিক্ষে) আকাশে (প্রথমজাঃ) বিস্তারযুক্ত কারণ দ্বারা উৎপন্ন (ঋষয়ঃ) গতিযুক্ত বায়ু (দেবেষু) দানের হেতু অবয়বসকলে বর্ত্তমান সেইরূপ (ত্বা) তোমাকে বিদ্বান্গণ (প্রথন্তু) প্রসিদ্ধ উপদেশ করুন । যেমন, (বিধর্ত্তা) যে বিবিধ রত্নের ধারক (চ) ইহাও (অধিপতিঃ) অধ্যক্ষ স্বামী প্রজাদিগকে সুখে রাখে সেইরূপ (তে) তোমার মধ্যে (সর্বে) সকল (সংবিদানাঃ) উত্তম প্রকার জ্ঞান প্রাপ্ত (ত্বা) তোমাকে (চ) এবং (য়জমানম্) বিদ্বান্দিগের সেবক পুরুষকে (নাকস্য) দুঃখরহিত দেশের (পৃষ্ঠে) এক অংশে (স্বর্গে) সুখপ্রাপক (লোকে) দর্শনীয় স্থানে (সাদয়ন্তু) স্থাপিত করুন ॥ ১২ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন বিদ্বান্গণ পশ্চিম দিক্ এবং তথাকার পদার্থ সকলকে অন্যকে জানাইয়া থাকেন সেইরূপ স্ত্রী-পুরুষ নিজের সন্তানাদিকে বিদ্যাদি গুণগুলি দ্বারা সুশোভিত করিবে ॥ ১২ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    স॒ম্রাড॑সি প্র॒তীচী॒ দিগা॑দি॒ত্যাস্তে॑ দে॒বাऽঅধি॑পতয়ো॒ বর॑ুণো হেতী॒নাং প্র॑তিধ॒র্ত্তা স॑প্তদ॒শস্ত্বা॒ স্তোমঃ॑ পৃথি॒ব্যাᳬंশ্র॑য়তু মরুত্ব॒তীয়॑মু॒ক্থমব্য॑থায়ৈ স্তভ্নাতু বৈরূ॒পꣳ সাম॒ প্রতি॑ষ্ঠিত্যাऽঅ॒ন্তরি॑ক্ষ॒ऽঋষ॑য়স্ত্বা প্রথম॒জা দে॒বেষু॑ দি॒বো মাত্র॑য়া বরি॒ম্ণা প্র॑থন্তু বিধ॒র্ত্তা চা॒য়মধি॑পতিশ্চ॒ তে ত্বা॒ সর্বে॑ সংবিদা॒না নাক॑স্য পৃ॒ষ্ঠে স্ব॒র্গে লো॒কে য়জ॑মানং চ সাদয়ন্তু ॥ ১২ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    সম্রাডসীত্যস্য পরমেষ্ঠী ঋষিঃ । আদিত্যা দেবতাঃ । পূর্বস্য ভুরিগ্ ব্রাহ্মী জগতী ছন্দঃ । নিষাদঃ স্বরঃ । প্রথমজা ইত্যুত্তরস্য ব্রাহ্মী বৃহতী ছন্দঃ ।
    মধ্যমঃ স্বরঃ ॥

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