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यजुर्वेद अध्याय - 15

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  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 23
    ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    78

    भुवो॑ य॒ज्ञस्य॒ रज॑सश्च ने॒ता यत्रा॑ नि॒युद्भिः॒ सच॑से शि॒वाभिः॑। दि॒वि मू॒र्धानं॑ दधिषे स्व॒र्षां जि॒ह्वाम॑ग्ने चकृषे हव्य॒वाह॑म्॥२३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भुवः॑। य॒ज्ञस्य॑। रज॑सः। च॒। ने॒ता। यत्र॑। नि॒युद्भि॒रिति॑ नि॒युत्ऽभिः॑। सच॑से। शि॒वाभिः॑। दि॒वि। मू॒र्धा॑नम्। द॒धि॒षे॒। स्व॒र्षाम्। स्वः॒सामिति॑ स्वः॒ऽसाम्। जि॒ह्वाम्। अ॒ग्ने॒। च॒कृ॒षे॒। ह॒व्य॒वाह॒मिति॑ हव्य॒ऽवाह॑म् ॥२३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भुवो यज्ञस्य रजसश्च नेता यत्रा नियुद्भिः सचसे शिवाभिः । दिवि मूर्धानन्दधिषे स्वर्षाञ्जिह्वामग्ने चकृषे हव्यवाहम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    भुवः। यज्ञस्य। रजसः। च। नेता। यत्र। नियुद्भिरिति नियुत्ऽभिः। सचसे। शिवाभिः। दिवि। मूर्धानम्। दधिषे। स्वर्षाम्। स्वःसामिति स्वःऽसाम्। जिह्वाम्। अग्ने। चकृषे। हव्यवाहमिति हव्यऽवाहम्॥२३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 23
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृशः स्यादित्याह॥

    अन्वयः

    हे अग्ने! यथाऽयमग्निर्नियुद्भिः शिवाभिः सह वर्त्तमानः भुवो यज्ञस्य रजसश्च नेता सन् सचते यत्र दिवि मूर्द्धानं दधाति हव्यवाहं स्वर्षां जिह्वां चकृषे तथा तत्र त्वं दिवि सचसे विद्यां दधिषे॥२३॥

    पदार्थः

    (भुवः) भवतीति तस्य (यज्ञस्य) संगतस्य कार्यसाधकस्य व्यवहारस्य (रजसः) लोकसमूहस्य (च) (नेता) नयनकर्त्ता (यत्र) अत्र ऋचितुनु॰ इति दीर्घः (नियुद्भिः) मिश्रिकामिश्रिकाभिः क्रियाभिः (सचसे) युनक्षि (शिवाभिः) मंगलकारिणीभिः (दिवि) द्योतनात्मके स्वस्वरूपे (मूर्द्धानम्) मूर्द्धेव वर्त्तमानं सूर्य्यम् (दधिषे) धरसि (स्वर्षाम्) स्वः सुखं सनोति ददाति यया ताम् (जिह्वाम्) वाचम्। जिह्वेति वाङ्ना॰॥ (निघं॰१।११) (अग्ने) विद्वन् (चकृषे) करोति (हव्यवाहम्) यो हव्यान् दातुमादातुं च योग्यान् रसान् वहति तम्॥२३॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाग्निरीश्वरेण नियुक्तः सन् सर्वस्य जगतः सुखकारी वर्त्तते, तथैव विद्याग्राहका अध्यापकाः सर्वेषां जनानां सुखकारिणः सन्तीति ज्ञेयम्॥२३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विद्वन्! जैसे यह प्रत्यक्ष अग्नि (नियुद्भिः) संयोग-विभाग कराने हारी क्रिया तथा (शिवाभिः) मङ्गलकारिणी दीप्तियों के साथ वर्त्तमान (भुवः) प्रगट हुए (यज्ञस्य) कार्यों के साधक संगत व्यवहार (च) और (रजसः) लोकसमूह को (नेता) आकर्षण करता हुआ सम्बन्ध कराता है और (यत्र) जिस (दिवि) प्रकाशमान अपने स्वरूप में (मूर्द्धानम्) उत्तमाङ्ग के तुल्य वर्त्तमान सूर्य को धारण करता तथा (हव्यवाहम्) ग्रहण करने तथा देने योग्य रसों को प्राप्त कराने वाली (स्वर्षाम्) सुखदायक (जिह्वाम्) वाणी को (चकृषे) प्रवृत्त करता है, वैसे तू शुभ गुणों के साथ (सचसे) युक्त होता और सब विद्याओं को (दधिषे) धारण कराता है॥२३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे ईश्वर ने नियुक्त किया हुआ अग्नि सब जगत् को सुखकारी होता है, वैसे ही विद्या के ग्राहक अध्यापक लोग सब मनुष्यों को सुखकारी होते हैं, ऐसा सब को जानना चाहिये॥२३॥

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    विषय

    उसका स्वरूप । सूर्य के समान परतंप राजा ।

    भावार्थ

    व्याख्या देखो ( १३ । १५ )

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    विषय

    प्रभु-धारक के लक्षण, आत्मद्रष्टा के चिह्न

    पदार्थ

    युक्त १. गत मन्त्र के अनुसार प्रभु दर्शन करनेवाला अपने जीवन में (यज्ञस्य) = श्रेष्ठतम कर्मों का नेता (भुवः) = प्रणयन करनेवाला होता है। २. उन यज्ञादि उत्तम कर्मों के लिए ही (रजसः च नेता) = [रजसस्त्वर्थ उच्यते] धन का उत्तम मार्ग से प्रणयन करनेवाला बनता है। अग्ने नय सुपथा राये' यह उसकी आराधना होती है। 'वयं स्याम पतयो रयीणाम्' = हम धनों के पति बने रहें। उनके दास बनकर कृपण वृत्तिवाले न हो जाएँ। उनके प्रभु होते हुए यज्ञों में उनका विनियोग करते रहें । ३. परन्तु ऐसा तू तभी कर सकता है (यत्र) = जिस काल में तू - (शिवाभिः) = कल्याण में प्रवृत्त होनेवाले (नियुद्भिः) = इस वायु नामक जीव के इन्द्रियरूप घोड़ों से जोकि सदा निश्चयपूर्वक उत्तम कर्मों में लगाये रक्खे जाते हैं [नि+यु] (सचसे) = होता है। तू वायु है- आत्मा है [वा गतौ अत गतौ ] ये इन्द्रियाँ तेरे घोड़े हैं। इनको तूने कर्मों में लगाये रखकर 'नियुत्' इस अन्वर्थक नामवाला बनाना है। यह ध्यान रखना है कि ये सदा शिवमार्ग में ही प्रवृत्त हों। ४. तू अपने (मूर्धानम्) = मस्तिष्क को दिवि ज्ञान के प्रकाश में (दधिषे) = धारण करता है। मस्तिष्क को सदा ज्ञान के प्रकाश से व्याप्त रखने के लिए यत्नशील होता है। ५. और (अग्ने) = हे अग्रेणी जीव ! तू (जिह्वाम्) = अपनी जिह्वा को (स्वर्षाम्) = [स्वः सनोति] उस देदीप्यमान प्रभु का सम्भजन करनेवाली बनाता है, अथवा जिह्वा को ज्ञान का सेवन करनेवाली करता है और इसी उद्देश्य से ६. (हव्यवाहम्) = हव्य पदार्थों का ही वहन करनेवाली (चकृषे) = करता है। यह सात्त्विक पदार्थों का ही सेवन करती है।

    भावार्थ

    भावार्थ - आत्मद्रष्टा पुरुष वह है जो १. यज्ञमय जीवनवाला होता है। २. यज्ञार्थ ही धनार्जन करता है । ३. शिव मार्ग में प्रवृत्त होनेवाले इन्द्रियाश्वों का स्वामी बनता है । ४. मस्तिष्क को ज्ञान में स्थापित करता है । ५. जिह्वा से प्रभु नामोच्चरण करता है । ६. सात्त्विक पदार्थों का ही सेवन करता है।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ईश्वराने निर्माण केलेला अग्नी जसा सर्व जगाला सुखकारक ठरतो, तसेच विद्येचे उपासक अर्थात अध्यापक लोक सर्व माणसांना सुख देतात हे सर्वांनी जाणावे.

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    विषय

    पुनश्च, माणसांनी आपली शक्ती कशी वाढवावी, हा विषय पुढील मंत्रात प्रतिपादित आहे-

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (अग्ने) विद्वान, ज्याप्रमाणे हा भौतिक अग्नी (नियुद्भि:) (पदार्थांचा) संयोग-वियोग करणारा आहे आणि (शिवाभि:) मंगलकारी दीप्तीने युक्त आहे, तसेच प्रत्यक्ष उत्पन्न (यज्ञस्य) कार्यांची सिद्धी करणारा (च) आणि रजस:) लोक-लोकांतराचा (ग्रह-नक्षत्रादींचा) (नेता) नियंत्रण करणारा ना (योग्य कक्षेत दिशेत आकर्षित करून ठेवणारा) आहे, (त्याप्रमाणे, हे विद्वान, तू देखील (शुभगुणांना व सर्व सद्विद्यांचे आकर्षण कर) तसेच ज्याप्रमाणे हा भौतिक अग्नी) (यंत्र) ज्या आपल्या (दिवि) प्रकाशमान दशेत (मूर्द्धानम्) उत्तमांग म्हणजे शिराप्रमाणे असलेल्या सूर्याला धारण करतो, (हन्यवाहम्) ग्रहणीय व निसर्गातील सेवनीय रसांची प्राप्ती करून देणार्‍या (स्वर्षाम्) सुखदायक (जिह्वाम्) वाणी (चक्षे) बोलण्याकडे सर्वांना प्रवृत्त करतो. (शरीरातील प्राण-अग्नी मनुष्यांना जीवन उत्साह, देऊन कार्यात प्रवृत्त करतो) त्याप्रमाणे हे विद्वान्, तू देखील (सचसे) सर्व सद्गुणांनी युक्त हो आणि सर्व श्रेष्ठ विद्या, विज्ञानादीची (दधिषे) धारण कर (वा अग्नीद्वारे उत्तमोत्तम लाभ घेण्यासाठी ज्ञान-विद्वानाचा आधार घे) ॥23॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. ज्याप्रमाणे ईश्वराने कार्यात प्रवृत्त केलेला भौतिक अग्नी सर्व जगाला सुखकारी आहे, तद्वत् विद्या-विज्ञानाचे अध्यापक सर्व मनुष्यांकरिता सुखकारी होतात (अग्निविषयी शोध, प्रयोगादीद्वारे सर्व माणसांना लाभान्वित करतात) सर्वांनी या अग्नी आणि वैज्ञानिकांविषयी हे तथ्य समजून घ्यायला हवे) ॥23॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O learned person, this visible fire, with its properties of alliance and division, full of blissful flames, helps in the performance of yajna, and worldly deeds. It imbibes in its lustrous nature the lofty sun. It stimulates the pleasant speech worthy of acceptance and giver of enjoyments. Like fire, the learned person, full of noble qualities should preach all sciences.

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    Meaning

    Agni, leading power of yajna, the earth and the sky, you raise your tongue of flames bearing the fragrance of yajna libations over there and, one with the blissful catalytic process of consumption and creation, you hold in heaven the top light of the world, the sun, which rains the showers of joy on the earth.

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    Translation

    O fire divine, you are the leader of this world, of this sacrifice, and of the mid-space, which you look after with your auspicious teams. You hold your head high in the sky and make your pleasure-seeking tongue the bearer of oblations. (1)

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনঃ স কীদৃশঃ স্যাদিত্যাহ ॥
    পুনঃ সে কীরকম হইবে, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে (অগ্নে) বিদ্বন্! যেমন এই প্রত্যক্ষ অগ্নি (নিয়ুদ্ভিঃ) সংযোগ বিভাগকারী ক্রিয়া তথা (শিবাভিঃ) মঙ্গলকারিণী দীপ্তিসকলের সঙ্গে বর্ত্তমান (ভুবঃ) প্রকট হইয়াছে এমন (য়জ্ঞস্য) কার্য্যগুলির সাধক সংগত ব্যবহার (চ) এবং (রজসঃ) লোকসমূহকে (নেতা) আকর্ষণ করিয়া সম্পর্ক করায় এবং (য়ত্র) যে (দিবি) প্রকাশমান নিজ স্বরূপে (মূর্দ্ধানম্) উত্তমাঙ্গের তুল্য বর্ত্তমান সূর্য্যকে ধারণ করে তথা (হব্যবাহম্) গ্রহণ করিবার তথা প্রদান করিবার যোগ্য রস সকলকে প্রাপ্তকারী (স্বর্ষাম্) সুখদায়ক (জিহ্বাম্) বাণীকে (চকৃষা) প্রবৃত্ত করায় সেইরূপ তুমি শুভ গুণগুলি সহ (সচসে) যুক্ত হও এবং সমস্ত বিদ্যাগুলির (দধিষে) নিয়মগুলিকে ধারণ করাও ॥ ২৩ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন ঈশ্বর দ্বারা নিযুক্ত অগ্নি সর্ব জগতের পক্ষে সুখকারী সেইরূপ বিদ্যার গ্রাহক অধ্যাপকগণ সব মনুষ্যদিগকে সুখ প্রদান করে এইরূপ সকলকে জানা উচিত ॥ ২৩ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ভুবো॑ য়॒জ্ঞস্য॒ রজ॑সশ্চ নে॒তা য়ত্রা॑ নি॒য়ুদ্ভিঃ॒ সচ॑সে শি॒বাভিঃ॑ ।
    দি॒বি মূ॒র্ধানং॑ দধিষে স্ব॒র্ষাং জি॒হ্বাম॑গ্নে চকৃষে হব্য॒বাহ॑ম্ ॥ ২৩ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ভুব ইত্যস্য পরমেষ্ঠী ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । নিচৃদার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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