यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 50
ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - भुरिगार्षी त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
146
तं पत्नी॑भि॒रनु॑ गच्छेम देवाः पु॒त्रैर्भ्रातृ॑भिरु॒त वा॒ हिर॑ण्यैः। नाकं॑ गृभ्णा॒नाः सु॑कृ॒तस्य॑ लो॒के तृ॒तीये॑ पृ॒ष्ठेऽअधि॑ रोच॒ने दि॒वः॥५०॥
स्वर सहित पद पाठतम्। पत्नी॑भिः। अनु॑। ग॒च्छे॒म॒। दे॒वाः॒। पु॒त्रैः। भ्रातृ॑भि॒रिति॒ भ्रातृ॑ऽभिः। उ॒त। वा॒। हिर॑ण्यैः। नाक॑म्। गृ॒भ्णा॒नाः। सु॒कृ॒तस्येति॑ सुऽकृ॒तस्य॑। लो॒के। तृ॒तीये॑। पृ॒ष्ठे। अधि॑। रो॒च॒ने। दि॒वः ॥५० ॥
स्वर रहित मन्त्र
तम्पत्नीभिरनु गच्छेम देवाः पुत्रैर्भ्रातृभिरुत वा हिरण्यैः । नाकङ्गृभ्णानाः सुकृतस्य लोके तृतीये पृष्ठे अधि रोचने दिवः ॥
स्वर रहित पद पाठ
तम्। पत्नीभिः। अनु। गच्छेम। देवाः। पुत्रैः। भ्रातृभिरिति भ्रातृऽभिः। उत। वा। हिरण्यैः। नाकम्। गृभ्णानाः। सुकृतस्येति सुऽकृतस्य। लोके। तृतीये। पृष्ठे। अधि। रोचने। दिवः॥५०॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
विद्वद्भिः कथं भवितव्यमित्याह॥
अन्वयः
हे देवा विद्वांसः! यथा यूयं तं गृभ्णाना दिवः सुकृतस्याधिरोचने तृतीये पृष्ठे लोके वर्त्तमानाः पत्नीभिः पुत्रैर्भ्रातृभिरुत वा हिरण्यैः सह नाकं गच्छत तथैतैः सहिता वयमनुगच्छेम॥५०॥
पदार्थः
(तम्) अग्निम् (पत्नीभिः) स्वस्वस्त्रीभिः (अनु) (गच्छेम) (देवाः) विद्वांसः (पुत्रैः) वृद्धावस्थाजन्यदुःखात् त्रातृभिः (भ्रातृभिः) बन्धुभिः (उत) (वा) अन्यैरनुक्तैः सम्बन्धिभिः (हिरण्यैः) सुवर्णादिभिः (नाकम्) आनन्दम् (गृभ्णानाः) गृह्णन्तः (सुकृतस्य) सुष्ठुकृतस्य वेदोक्तकर्मणः (लोके) द्रष्टव्ये स्थाने (तृतीये) विज्ञानजे (पृष्ठे) ज्ञीप्सिते (अधि) उपरिभागे (रोचने) रुचिकरे (दिवः) द्योतनकर्मणः॥५०॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्वांसः स्वस्त्रीपुत्रभ्रातृदुहितृमातृपितृभृत्यपार्श्वस्थान् विद्यासुशिक्षाभ्यां धार्मिकान् पुरुषार्थिनः कृत्वा सन्तुष्टा भवन्ति, तथैव सर्वैरप्यनुवर्त्यम्॥५०॥
हिन्दी (3)
विषय
विद्वानों को कैसा होना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (देवाः) विद्वान् लोगो! जैसे तुम लोग (तम्) उस पूर्वोक्त अग्नि को (गृभ्णानाः) ग्रहण करते हुए (दिवः) प्रकाशयुक्त (सुकृतस्य) सुन्दर वेदोक्त कर्म (अधि) में वा (रोचने) रुचिकारक (तृतीये) विज्ञान से हुए (पृष्ठे) जानने को इष्ट (लोके) विचारने वा देखने योग्य स्थान में वर्त्तमान (पत्नीभिः) अपनी अपनी स्त्रियों (पुत्रैः) वृद्धावस्था में हुए दुःख से रक्षक पुत्रों (भ्रातृभिः) बन्धुओं (उत, वा) और अन्य सम्बन्धियों तथा (हिरण्यैः) सुवर्णादि के साथ (नाकम्) आनन्द को प्राप्त होते हो, वैसे इन सब के सहित हम लोग भी (अनु, गच्छेम) अनुगत हों॥५०॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् लोग अपनी स्त्री, पुत्र, भाई, कन्या, माता, पिता, सेवक और पड़ोसियों को विद्या और अच्छी शिक्षा से धर्मात्मा पुरुषार्थी करके सन्तोषी होते हैं, वैसे ही सब मनुष्यों को होना चाहिये॥५०॥
विषय
भाई, पुत्र, कलत्र आदि सहित उत्तम नेता का अनुसरण करना ।
भावार्थ
हे ( देवाः ) विद्वानो ! विजिगीषु पुरुषों ! ( तम् ) उस पूर्व कहे अग्रणी नेता और विद्वान् की हम लोग ( पुत्रै: ) पुत्रों ( भ्रातृभिः) भाइयों ( पत्नीभिः ) धर्मपत्नियों, ( उत वा ) और ( हिरण्यैः ) सुवर्ण आदि धातुओं सहित ( नाकम् ) परम सुख का ( गृभ्णानाः ) ग्रहण करते हुए अर्थात् सुख प्राप्ति के साधनों का उपार्जन करते हुए ( सुकृतस्य ) उत्तम धर्माचरण के ( लोके ) लोक में और ( तृतीय ) उत्कृष्टतम ( पृष्ठे ) आश्रय में (दिवः ) सूर्य के प्रकाश से ( रोचने) प्रकाशित, अन्धकार रहित स्थान में ( अनुगच्छेम ) अनुसरण करें । शत० ८ । ६ । ३ । १९॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अग्निर्देवता । भुरिगार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
विषय
प्रभु चरणों में [सब मिलकर ]
पदार्थ
१. (देवाः) = देव बनकर, अर्थात् संसार को क्रीड़ा स्थल समझते हुए, कामादि को जीतने की कामना करते हुए, संसार से न भागकर अपने कर्त्तव्य का पालन करते हुए, ज्ञान से चमकते हुए, प्रभु का स्तवन करते हुए, सदा प्रसन्न रहते हुए, एक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मस्त बने हुए, ऊँचे-से-ऊँचे स्वप्न लेनेवाले बनकर, उन स्वप्नों को क्रियान्वित करने की इच्छावाले और सतत गतिशील हम २. (पत्नीभिः) = पत्नियों (पुत्रैः भ्रातृभिः) = पुत्रों व भाइयों के साथ तथा (हिरण्यैः) = अपने धनों के साथ (तम्) = उस प्रभु के (अनुगच्छेम) = पीछे जाएँ, उसके अनुयायी बनें। सब मिलकर उस प्रभु के चरणों में उपस्थित हों और अपने धनों को उसके चरणों में अर्पित करें। ३. यहाँ ' भ्रातृभिः तथा पत्नीभिः' शब्द सम्मिलित परिवार (joint family) का संकेत करता है। अलग-अलग भी रहते हों तो समीप रहने से प्रार्थना के समय हम एकचित हो सकते हैं। 'हिरण्यै:' शब्द की भावना स्पष्ट है कि हम अर्जित धनों को अपना' न समझ 'प्रभु का दिया हुआ' ही समझें। वस्तुतः प्रभु ही हमारे लिए धनों का विजय करते हैं। ४. इस प्रकार [क] देव बनकर [ख] सम्मिलित प्रभु - उपासना से और [ग] धनों को उस प्रभु का ही दिया हुआ समझने से हम (नाकं) = मोक्षलोक का, दुःख के लेश से भी रहित सुखमय स्थिति का (गृभ्णाना:) = ग्रहण करनेवाले हों। ५. जो सुखमय स्थिति (सुकृतस्य लोके) = पुण्यकर्मों से अर्जित लोक में होती है, अर्थात् जिसकी प्राप्ति पुण्यकर्मों से होती है। (तृतीये पृष्ठे) = जो सुखमय स्थिति इस पृथिवी - पृष्ठ व अन्तरिक्ष-पृष्ठ से ऊपर उठकर तृतीय पृष्ठ में है। (दिवः अधिरोचने) = जो सुखमय स्थिति आधिक्येन दीप्यमान द्युलोक के पृष्ठ पर है। ६. इस सुखमयलोक की कामना ही ('पृष्ठात् पृथिव्या अहमन्तरिक्षमारुहमन्तरिक्षाद्दिवमारुहम्। दिवो नाकस्य पृष्ठात् स्वर्ज्योतिरगामहम्') = इस मन्त्र में इस प्रकार की गई है कि मैं पृथिवी के पृष्ठ से अन्तरिक्ष में आरूढ़ होऊँ, अन्तरिक्ष से द्युलोक में आरूढ़ होऊँ और सुखमयलोक के पृष्ठभूत इस द्युलोक से भी ऊपर उठकर मैं स्वयं देदीप्यमान ज्योति प्रभु को प्राप्त करूँ। ७. पृथिवीलोक का विजय पहला क़दम है, इसके लिए साधन विज्ञान व मधुर भाषण हैं। अन्तरिक्षलोक का विजय दूसरा क़दम है, इसके विजय के लिए साधन यज्ञात्मक कर्म हैं। द्युलोक का विजय तीसरा क़दम है, इस विजय के लिए मुख्य साधन उपासना है। एवं, यह सुखमयलोक क्रमशः 'विज्ञान, मधुर भाषण, यज्ञ व उपासनादि' उत्तम सुकृत कर्मों से ही प्राप्य है। इस सुख में भी आसक्ति न होने पर चौथा क़दम रक्खा जाता है, हम चतुष्पात् बनते हैं [सोऽयमात्मा चतुष्पात्] और प्रभु को प्राप्त करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ - घर के सब व्यक्ति मिलकर प्रभु की उपासना करें। अपने धनों को प्रभु चरणों में अर्पित करें और सुकृतों के द्वारा देदीप्यमान सुखमय स्थिति का लाभ करें।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे विद्वान लोक आपली स्त्री, पुत्र, बंधू, कन्या, माता, पिता, सेवक व शेजारी यांना विद्या व चांगले शिक्षण देऊन धर्मात्मा व पुरुषार्थी बनवून संतुष्ट होतात तसे सर्व माणसांनी बनावे.
विषय
विद्वानांनी कसे असावे, पुढील मंत्रात हे सांगितले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (देवा:) विद्वज्जन, जसे तुम्ही सर्व विद्वान (तम्) त्या अग्नीचे (गृभ्णाना:) ग्रहण करीत (दिन:) सुंदर उत्तम (सुकृतस्य) वेदोक्त सुकर्म करण्यात (अधि) व्यक्त आहात आणि (रोचने) प्रिय व सुंदर (तृतीये) विज्ञानाद्वारे प्राप्त (पृष्ठे) इच्छित (लोके) स्थानात स्थानापन्न आहांत अथवा (विचारणीय श्रेष्ठ पदावर स्थित आहात (तसे आम्ही इतर सर्वजनांनीदेखील असायला हवे) त्याचप्रमाणे जसे आपण विद्वान लोक (पत्नीभि:) आपापल्या पत्नीसह आणि (पुत्रै:) वुद्धावस्थेत होणार्या दु:खापासून रक्षण करणार्या मुलांसह तसेच (भ्रातृभि:) भाऊ-भावंडे (उत, वा) आणि इतर नातेवाईकांसह आनंदात आहात (तसे आम्हीही व्हावे) याशिवाय जसे तुम्ही (हिरण्यै:) सुवर्ण आदी धनामुळे (नीकम्) आनंद भोगत आहात, तसे आम्ही सर्व सामान्यजनांनीदेखील (पत्नी, पुत्र, भाऊ, नातेवाईक यांच्यासह पुष्कळ धन-संपत्ती प्राप्त करीत (अनु, गच्छेम) तुमचे अनुसरण करावे. ॥50॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. ज्याप्रमाणे विद्यावान शहाणी माणसें आपल्या पत्नी, पुत्र, भाऊ, मुलगी, आई-वडील, सेवक आणि शेजार्यांना सद्विद्या व सदाचार शिकवून त्यांना धर्मात्मा व पुरुषार्थी करतात, त्याप्रमाणे इतरांनीदेखील करावे (जे ध्यान, विद्या, शक्ती आदीद्वारे सुसंपन्न आहेत, त्यानी समाजातील वंचित दुर्लक्षितजनांना विद्यावान, धनवान करून सुखी करावे) ॥50॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O learned persons, just as ye, mastering that fire, engaged in the performance of virtuous vedic deeds, residing in a beautiful knowable, pleasant place, built scientifically, attain to happiness with your wives, sons, brothers, other relatives, and with gold, so may we also be happy in all these respects.
Meaning
Powers of light and joy, dedicating ourselves in prayer and action to the same Agni, may we attain to the highest and most beloved region of the beautiful world of bliss and noble pursuits with our wives, children, brothers and all our wealth and prosperity.
Translation
O bounties of Nature, may we follow that fire divine along with our wives, with sons, with brothers as well as with our treasures of gold, reaching that sorrowless world, which is earned by virtuous deeds, is situated, as if, on the third plane and is full of celestial glow. (1)
Notes
Devāḥ, O bounties of Natrue; O divinities; O gods. Anugacchema, may we follow (him, the fire that has been placed in heaven). Patnibhiḥ, putraiḥ, bhrätrbhiḥ, hiranyaiḥ, alongwith wives (Note the plural number), sons, brothers and treasures of gold. Grbhṇānāḥ, :, attaining; reaching. Sukṛtasya loke, in the world which is earned by virtuous deeds. Divaḥ rocane trtiye pṛṣthe, on the luminous third plane of the sky, as if.
बंगाली (1)
विषय
বিদ্বদ্ভিঃ কথং ভবিতব্যমিত্যাহ ॥
বিদ্বান্দিগকে কেমন হওয়া উচিত, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।
पदार्थ
পদার্থঃ–হে (দেবাঃ) বিদ্বান্গণ! যেমন তোমরা (তম্) সেই পূর্বোক্ত অগ্নিকে (গৃভ্ণানাঃ) গ্রহণ করিয়া (দিবঃ) প্রকাশযুক্ত (সুকৃতস্য) সুন্দর বেদোক্ত কর্মে (অধি) বা (রোচনে) রুচিকারক (তৃতীয়ে) বিজ্ঞানোৎপন্ন (পৃষ্ঠে) জানিবার ইষ্ট (লোকে) বিচার করিবার বা দেখিবার যোগ্য স্থানে বর্ত্তমান (পত্নীভিঃ) নিজ নিজ পত্নীগণ (পুত্রৈঃ) বৃদ্ধাবস্থায় হওয়া দুঃখ হইতে রক্ষক পুত্রসকল (ভ্রাতৃভিঃ) বন্ধুসকল (উত, বা) এবং অন্য আত্মীয় স্বজন তথা (হিরণ্যেঃ) সুবর্ণাদি সহ (নাকম্) আনন্দ প্রাপ্ত হও, সেইরূপ ইহাদের সহিত আমরাও (অনু, গচ্ছেম) অনুগত হই ॥ ৫০ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন বিদ্বান্গণ স্বীয় স্ত্রী, পুত্র, ভাই, কন্যা, মাতা, পিতা, সেবক ও প্রতিবেশী সকলকে বিদ্যা ও উত্তম শিক্ষা দ্বারা ধর্মাত্মা পুরুষার্থী করিয়া সন্তোষ লাভ করিয়া থাকেন সেইরূপ সব মনুষ্যকে হওয়া উচিত ॥ ৫০ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
তং পত্নী॑ভি॒রনু॑ গচ্ছেম দেবাঃ পু॒ত্রৈর্ভ্রাতৃ॑ভিরু॒ত বা॒ হির॑ণ্যৈঃ । নাকং॑ গৃভ্ণা॒নাঃ সু॑কৃ॒তস্য॑ লো॒কে তৃ॒তীয়ে॑ পৃ॒ষ্ঠেऽঅধি॑ রোচ॒নে দি॒বঃ ॥ ৫০ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
তং পত্নীভিরিত্যস্য পরমেষ্ঠী ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । ভুরিগার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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