यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 57
ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः
देवता - शिशिरर्त्तुर्देवता
छन्दः - स्वराडुत्कृतिः
स्वरः - षड्जः
75
तप॑श्च तप॒स्यश्च॑ शैशि॒रावृ॒तूऽअ॒ग्नेर॑न्तःश्ले॒षोऽसि॒ कल्पे॑तां॒ द्यावा॑पृथि॒वी कल्प॑न्ता॒माप॒ऽओष॑धयः॒ कल्प॑न्ताम॒ग्नयः॒ पृथ॒ङ् मम॒ ज्यैष्ठ्या॑य॒ सव्र॑ताः। येऽअ॒ग्नयः॒ सम॑नसोऽन्त॒रा द्यावा॑पृथि॒वीऽइ॒मे। शै॒शि॒रावृ॒तूऽअ॑भि॒कल्प॑माना॒ऽइन्द्र॑मिव दे॒वाऽअ॑भि॒संवि॑शन्तु॒ तया॑ दे॒वत॑याऽङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वे सी॑दतम्॥५७॥
स्वर सहित पद पाठतपः॑। च॒। त॒प॒स्यः᳖। च॒। शै॒शि॒रौ। ऋ॒तू इत्यृ॒तू। अ॒ग्नेः। अ॒न्तः॒श्ले॒ष इत्य॑न्तःऽश्ले॒षः। अ॒सि॒। कल्पे॑ताम्। द्यावा॑पृथि॒वी इति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। कल्प॑न्ताम्। आपः॑। ओष॑धयः। कल्प॑न्ताम्। अ॒ग्नयः॑। पृथ॑क्। मम॑। ज्यैष्ठ्या॑य। सव्र॑ता॒ इति॒ सऽव्र॑ताः। ये। अ॒ग्नयः॑। सम॑नस॒ इति॒ सऽम॑नसः। अ॒न्त॒रा। द्यावा॑पृथि॒वी इति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। इ॒मे इती॒मे। शै॒शि॒रौ। ऋ॒तू इत्यृ॒तू। अ॒भि॒कल्प॑माना॒ इत्य॑भि॒ऽकल्प॑मानाः। इन्द्र॑मि॒वेतीन्द्र॑म्ऽइव। दे॒वाः। अ॒भि॒संवि॑श॒न्त्वित्य॑भि॒सम्ऽवि॑शन्तु। तया॑। दे॒वत॑या। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। ध्रु॒वे इति॑ ध्रु॒वे। सी॒द॒त॒म् ॥५७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तपश्च तपस्यश्च शैशिरावृतूऽअग्नेरन्तःश्लेषोसि कल्पेतान्द्यावापृथिवी कल्पम्पाऽओषधयः कल्पन्तामग्नयः पृथङ्मम ज्यैष्ठ्याय सव्रताः । येऽअग्नयः समनसोन्तरा द्यावापृथिवीऽइमे शैशिरावृतूऽअभिकल्पमानाऽइन्द्रमिव देवा अभिसँविशन्तु तया देवतयाङ्गिरस्वद्धरुवे सीदतम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
तपः। च। तपस्यः। च। शैशिरौ। ऋतू इत्यृतू। अग्नेः। अन्तःश्लेष इत्यन्तःऽश्लेषः। असि। कल्पेताम्। द्यावापृथिवी इति द्यावापृथिवी। कल्पन्ताम्। आपः। ओषधयः। कल्पन्ताम्। अग्नयः। पृथक्। मम। ज्यैष्ठ्याय। सव्रता इति सऽव्रताः। ये। अग्नयः। समनस इति सऽमनसः। अन्तरा। द्यावापृथिवी इति द्यावापृथिवी। इमे इतीमे। शैशिरौ। ऋतू इत्यृतू। अभिकल्पमाना इत्यभिऽकल्पमानाः। इन्द्रमिवेतीन्द्रम्ऽइव। देवाः। अभिसंविशन्त्वित्यभिसम्ऽविशन्तु। तया। देवतया। अङ्गिरस्वत्। ध्रुवे इति ध्रुवे। सीदतम्॥५७॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ शिशिरस्य ऋतोर्वर्णनमाह॥
अन्वयः
हे ईश्वर! मम ज्यैष्ठ्याय तपश्च तपस्यश्च शैशिरावृतू सुखकारकौ भवतः। त्वं ययोरग्नेरन्तःश्लेषोऽसि, ताभ्यां द्यावापृथिवी कल्पेताम्, आप ओषधयश्च कल्पन्ताम्, सव्रता अग्नयः पृथक् कल्पन्ताम्। ये समनसोऽग्नय इमे द्यावापृथिवी अन्तरा शैशिरावृतू अभिकल्पमानाः सन्ति, तानिन्द्रमिव देवा अभिसंविशन्तु। हे स्त्रीपुरुषौ! युवां तया देवतया सहाङ्गिरस्वद् वर्त्तमानो ध्रुवे द्यावापृथिवी इव सीदतम्॥५७॥
पदार्थः
(तपः) यस्तापहेतुः स माघो मासः (च) (तपस्यः) तपो घर्मो विद्यतेऽस्मिन् स फाल्गुनो मासः (च) (शैशिरौ) शिशिरर्त्तौ भवौ (ऋतू) स्वलिङ्गप्रापकौ (अग्नेः) (अन्तःश्लेषः) मध्यप्रवेशः (असि) (कल्पेताम्) (द्यावापृथिवी) (कल्पन्ताम्) (आपः) (ओषधयः) (कल्पन्ताम्) (अग्नयः) पावकाः (पृथक्) (मम) (ज्यैष्ठ्याय) (सव्रताः) समाननियमाः (ये) (अग्नयः) (समनसः) समानमनोनिमित्ताः (अन्तरा) मध्ये (द्यावापृथिवी) प्रकाशभूमी (इमे) (शैशिरौ) शिशिरर्त्तुसंपादकौ (ऋतू) (अभिकल्पमानाः) सम्पादयन्तः (इन्द्रमिव) ऐश्वर्य्यमिव (देवाः) विद्वांसः (अभिसंविशन्तु) (तया) (देवतया) पूज्यतमया व्याप्तया ब्रह्माख्यया सह (अङ्गिरस्वत्) प्राणवत् (ध्रुवे) दृढे (सीदतम्) सीदतः। [अयं मन्त्रः शत॰८.७.१.५-६ व्याख्यातः]॥५७॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैः प्रत्यृतु सुखमीश्वरादेव याचनीयम्। ईश्वरस्य विद्युदन्तःप्रविष्टत्वात् सर्वे पदार्थाः स्वस्वनियमेन समर्था भवन्ति। विद्वांसः सर्वपदार्थगतविद्युदग्नीनां गुणदोषान् विजानन्तु। स्त्रीपुरुषौ गृहाश्रमे शैशिरं सुखं भुञ्जाताम्॥५७॥
हिन्दी (3)
विषय
अब अगले मन्त्र में शिशिर ऋतु का वर्णन किया है॥
पदार्थ
हे ईश्वर! (मम) मेरी (ज्यैष्ठ्याय) ज्येष्ठता के लिये (तपः) ताप बढ़ाने का हेतु माघ महीना (च) और (तपस्यः) तापवाला फाल्गुन मास (च) ये दोनों (शैशिरौ) शिशिर ऋतु में प्रख्यात (ऋतू) अपने चिह्नों को प्राप्त करने वाले सुखदायी होते हैं। आप जिनके (अग्नेः) अग्नि के भी (अन्तःश्लेषः) मध्य में प्रविष्ट (असि) हैं, उन दोनों से (द्यावापृथिवी) आकाश-भूमि (कल्पेताम्) समर्थ हों, (आपः) जल (ओषधयः) ओषधियाँ (कल्पन्ताम्) समर्थ हों, (सव्रताः) एक प्रकार के नियमों में वर्त्तमान (अग्नयः) विद्युत् आदि अग्नि (पृथक्) अलग अलग (कल्पन्ताम्) समर्थ होवें, (ये) जो (समनसः) एक प्रकार के मन के निमित्तवाले हैं, वे (अग्नयः) विद्युत् आदि अग्नि (इमे) इन (द्यावापृथिवी) आकाश भूमि के (अन्तरा) बीच में होने वाले (शैशिरौ) शिशिर ऋतु के साधक (ऋतू) माघ-फाल्गुन महीनों को (अभिकल्पमानाः) समर्थ करते हैं, उन अग्नियों को (इन्द्रमिव) ऐश्वर्य के तुल्य (देवाः) विद्वान् लोग (अभिसंविशन्तु) ज्ञानपूर्वक प्रवेश करें। हे स्त्री-पुरुषो! तुम दोनों (तया) उस (देवतया) पूजा के योग्य सर्वत्र व्याप्त जगदीश्वर देवता के साथ (अङ्गिरस्वत्) प्राण के समान वर्त्तमान इन आकाश भूमि के तुल्य (ध्रुवे) दृढ़ (सीदतम्) स्थिर होओ॥५७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि सब ऋतुओं में ईश्वर से ही सुख चाहें। ईश्वर विद्युत् अग्नि के भी बीच व्याप्त है, इस कारण सब पदार्थ अपने-अपने नियम से कार्य में समर्थ होते हैं। विद्वान् लोग सब वस्तुओं में व्याप्त बिजुलीरूप अग्नियों के गुण-दोष जानें। स्त्री-पुरुष गृहाश्रम में स्थिरबुद्धि होके शिशिर ऋतु के सुख को भोगें॥५७॥
विषय
शिशिर से राजा की तुलना ।
भावार्थ
( तप: तपस्यः च ) 'तप और तपस्य' माघ और फाल्गुन दोनों (शैशिरौ ऋतू ) शिशिर ऋतु के दो मास हैं। दोनों शिशिर कहाते हैं । अग्ने अन्तः इत्यादि ( १३ । २५ ) के समान जानो । शत० ८।७।१।५॥
विषय
तप+तपस्य= शैशिरौ ऋतू
पदार्थ
१. पति-पत्नी को चाहिए कि वे (तपः च) = [तप दीप्तौ] ज्ञान से दीप्त होने का प्रयत्न करें। जैसे सूर्य: तपति सूर्य अपने प्रकाश से चमकता है, इसी प्रकार ये ज्ञान की दीप्ति से चमकनेवाले हों । २. (तपस्यः च) [तपसि साधुः] = उत्तम तपस्यावाले हों । उत्तम तपस्या वही है जो शरीर को पीड़ित न करके की गई है। 'ब्रह्मचर्य' शारीरिक तप है तो 'मधुर भाषण वाणी का तथा 'मनःप्रसाद' मन का। इन तपों में वे अग्रणी बनने का प्रयत्न करें । ३. (शैशिरौ) [शश प्लुतगतौ] = ये दोनों द्रुत गतिवाले हों। इनका जीवन क्रियाशील व स्फूर्तिमय हो । (ऋतू) = ये बड़ी नियमित गतिवाले हों। ऋतुओं के आने की भाँति ये अपने सब कार्यों को समय पर करनेवाले हों। ४. (अग्नेः) = उस प्रभु का (अन्तः श्लेषः असि) = हृदयदेश में आलिङ्गन करनेवाला तू बनता है। ५. (द्यावापृथिवी) = मस्तिष्क व शरीर दोनों ही (कल्पेताम्) = सामर्थ्यवाले हों । ६. इसके लिए (आप:) = जल तथा (ओषधयः) = ओषधियाँ (कल्पन्ताम्) = हमें शक्तिशाली बनाएँ। जलों व ओषधियों का सेवन हमारे मस्तिष्क व शरीर को उत्तम व सशक्त बनाता है । ७. (अग्नयः) = माता-पिता व आचार्यरूप अग्नियाँ (मम ज्यैष्ठ्याय सव्रता:) = मेरी ज्येष्ठता के लिए समानरूप से व्रत धारण किये हुए (पृथक्) = अलग-अलग, क्रमशः पाँच, आठ व चौबीस वर्ष तक (कल्पन्ताम्) = मेरे जीवन को सामर्थ्य - सम्पन्न करने में लगे रहें । ८. मेरे 'माता-पिता व आचार्य' ही क्या, (ये अग्नयः) = जो भी अग्नियाँ (इमे) = इन (द्यावापृथिवी अन्तरा) = द्युलोक व पृथिवीलोक के बीच में है, वे सब (समनसः) = समान मनवाली हों। सबका एक ही ध्येय हो कि आनेवाली पीढ़ी के जीवन को ज्येष्ठता तक पहुँचाना है। ९. इस प्रकार इन कर्मों से जिनके जीवन का निर्माण किया गया है वे (शैशिरौ ऋतू) = द्रुत गतिवाले तथा बड़ी नियमित गतिवाले होते हैं। १०. (अभिकल्पमानाः) = ये शारीरिक व बौद्धिक दोनों ही सामर्थ्यो का सम्पादन करते हैं । इन्द्रम् इव इन्द्र के समान बनते हैं, इन्द्रियों के अधिष्ठाता होते हैं। तभी तो (देवाः) = सब दिव्य गुण (अभिसंविशन्तु) = इन्हें प्राप्त होते हैं। ११. इन पति-पत्नी से कहते हैं कि (तया देवतया) = उस देवाधिदेव परमात्मा के साथ, अर्थात् उसकी उपासना करते हुए (अङ्गिरस्वत्) = एक-एक अङ्ग में रसवाले बनकर, अर्थात् शक्ति से परिपूर्ण होकर (ध्रुवे सीदतम्) = इस घर में ध्रुव होकर रहो।
भावार्थ
भावार्थ- पति-पत्नी ज्ञान से चमकें, उत्तम तपस्वी हों। तीव्र गतिवाले, अर्थात् सदा क्रियाशील और बड़ी नियमित गतिवाले हों।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. माणसांनी सर्व ऋतूंमध्ये ईश्वराकडूनच सुखाची कामना करावी. ईश्वर विद्युतरूपी अग्नीमध्ये व्याप्त आहे. त्यामुळे सर्व पदार्थ आपापल्या नियमानुसार कार्य करण्यास समर्थ होतात, विद्वानांनी सर्व वस्तूंमध्ये व्याप्त असलेले विद्युतरूपी अग्नीचे गुणदोष जाणावे. स्त्री - पुरुषांनी गृहस्थाश्रमात स्थिर बुद्धीने राहावे व शिशिर ऋतूचे सुख भोगावे.
विषय
पुढील मंत्रात शिशिर ऋतूचे वर्णन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे ईश्वर, (मम) माझ्या (एका गृहाश्रमी उपासकाच्या) (ज्यैष्ठ्याय) उत्कर्षासाठी (तप:) ताप, उष्णता वाढविण्याचे जे कारण तो माघ महिना (या महिन्यापासून थंडी कमी होऊन उष्णता वाहू लागते) (च) आणि (तपस्य:) तापवान फाल्गुन महिना (च) आणि हे दोन्ही महिने या (शैशिरौ) शिशिर (ऋतू) ऋतूतील प्रख्यात महिने असून आपापले लक्षण प्रकट करतात (या ऋतूत उष्णता व शीत, झाडांची पाने गळणे आदी लक्षणे होतात) हे ईश्वर, आपण या ऋतूतील (अग्ने:) अग्नीच्या (अन्त:श्लेष:) मध्ये प्रविष्ट (असि) आहात. (आपणांस प्रार्थना करतो की) या ऋतूतील दोन्ही महिन्यात (द्यावापृथिवी) आकाश आणि भूमी (कल्पेताम्) आमच्याकरिता समर्थ वा फलदा व्हावेत. (आप:) जल आणि (ओषधम:) औषधी समर्थ वा शक्तिदायी (कल्पेताम्) व्हाव्यात (सव्रता:) एकाच विशिष्ट नियमांनी बांधलेले (अग्नय:) विद्युत आदी अग्नी (प्रथरु) आपल्या वेगवेगळ्या प्रभागाने (आमच्यासाठी) (कल्पन्ताम्) समर्थ वा परिणाम कारक व्हावेत. (ये) हाजो (समनस:) समान प्रभाव देणारा (अग्नय:) विविध प्रकारचा अग्नी आहे, तो (इथे) या (द्यावा-पृथिवी) आकाश आणि भूमी (अन्तरा) यांमध्ये होणारे (ऋतू) माघ आणि फाल्गुन महिने यांना (अभिकल्पमाना:) समर्थ बनवितो. त्या अग्नीनां (इन्द्रमिव) ऐश्वर्य (वा ऐश्वर्यदायी) मानून (देवा:) विद्वान लोकांनी (अभिसंविशन्तु) या महिन्यात प्रविष्ट व्हावे. (त्या महिन्यांचा यथोचित लाभ घ्यावा) हे स्त्री व हे पुरुष, तुम्ही दोघे (तया) त्या (देवत्मा) पूजनीय सर्वव्यापक परमेश्वर देवाला (अड्गिरस्वत्) प्राणांप्रमाणे प्रिय समजून त्याच्याशी, आकाश जसा भूमीशी, तसे तुम्ही त्या ईश्वराशी (ध्रुवे) दृढ रुपाने (सीदतम्) स्थिर राहा. (दृढतेने त्याची उपासना करीत राहा) ॥57॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात उपमा अलंकार आहे. मनुष्यांनी सर्व ऋतूमधे सुख मिळण्याकरिता केवळ परमेश्वराचीच प्रार्थना करावी. ईश्वर विद्युत अग्नीत देखील विद्यमान आहे, त्यामुळे सर्व पदार्थ आपापले निश्चित कार्य पूर्ण करू शकतात. विद्वज्जनांनी (वैज्ञानिकांनी) सर्व वस्तूत व्याप्त अशा विद्युतरुप अग्नीचे गुण-दोष जाणावेत आणि स्त्री-पुरुषांनी गृहाश्रमामध्ये स्थिरमती होऊन शिशिर ऋतूतील आनंद उपभोगावा. ॥57॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O God, for my prosperity, the Magh (January-February) and Phagan (February-March) these two months constituting the dewy-winter, add to my pleasure. Thou pervadest them and fire. In those months let sky and earth, and water be pleasure-giving. Let medicinal plants grow in them. Let lightning-fires, following the same laws, be separately useful to us. These lightning-fires residing in between the Sky and Earth, unanimously the cause of Dewy-winter, create the Magh and Phagan months. The learned should use these mighty fires. Just as the Sky and Earth, through the dispensation of God work together like breath, so should you wife and husband live constantly together.
Meaning
Margashirsha and Phalguna (January-February and February-March) are the months of winter season, cold, cool and pleasant. You are the lovely warmth of the inner-most heart of Agni’s fire. May the heaven and earth be auspicious, may the waters be fresh and invigorating, may the herbs and trees be revitalized and rejuvenating, may all the modes of fire, heat, light, lightning, etc. , each committed and constant in its quality and character, be favourable and blissful to me for growth in excellence. May all the vital fires abiding in earth and heaven, integrated and harmonious, supporting and energizing the months of the winter season like the powers of nature serving the omnipotent lord, Indra, bless and vitalize us in all ways. Man of yajna and lady of the house of yajna, both of you joining the months of the season be firm and stay fast with the lord of nature as breath and life together.
Translation
Tapas and tapasya (magha and phalguna, i. e January and February) are the two months of the intense cold season. You are the internal cementing force of the fire. May the heaven and earth help, may the waters and the herbs help, may the fires also help individually with unity of action in establising my superiority. May all those fires, which exist between heaven and earth, oneminded and helping in this performance, gather around these two months of intense cold, just as the enlightened ones gather around the resplendent Lord. May both of you be seated firmly by that divinity shining bright. (1)
Notes
Compare Yajuḥ XIV. 15-16. Tapaḥ and tapasyaḥ, magha and phalguna months (mid January to mid-February and mid-February to mid-March)
बंगाली (1)
विषय
অথ শিশিরস্য ঋতোর্বর্ণনমাহ ॥
এখন পরবর্ত্তী মন্ত্রে শিশির ঋতুর বর্ণন করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে ঈশ্বর! (মম) আমার (জৈষ্ঠ্যায়) জেষ্ঠতার জন্য (তপঃ) তাপ বৃদ্ধির হেতু মাঘ মাস (চ) এবং (তপস্যঃ) তাপযুক্ত ফাল্ুন মাস (চ) এই উভয় (শৈশিরৌ) শিশির ঋতুতে বিখ্যাত (ঋতু) নিজ চিহ্নসকলকে প্রাপ্তকারী সুখদায়ী হইয়া থাকে । আপনি যাহার (অগ্নেঃ) অগ্নিরও (অন্তঃশ্লেষঃ) মধ্যে প্রবিষ্ট (অসি) আছেন সেই উভয়ের দ্বারা (দ্যাবাপৃথিবী) আকাশ ভূমি (কল্পেতাম্) সমর্থ হউক (আপঃ) জল (ওষধয়ঃ) ওষধিসকল (কল্পন্তাম্) সমর্থ হউক (স্বরতাঃ) এক প্রকারের নিয়মে বর্ত্তমান (অগ্নয়ঃ) বিদ্যুতাদি অগ্নি (পৃথক) ভিন্ন ভিন্ন (কল্পন্তাম্) সমর্থ হউক (য়ে) যাহারা (সমনসঃ) সমভাবাপন্ন মনের নিমিত্ত যুক্ত তাহারা (অগ্নয়ঃ) বিদ্যুতাদি অগ্নি (ইমে) এই সব (দ্যাবাপৃথিবী) আকাশ-ভূমির (অন্তরা) মধ্যে ঘটিত (শৈশিরো) শিশির ঋতুর সাধক (ঋতূ) মাস ফাল্ুন মাসকে (অভিকল্পমানাঃ) সমর্থ করে । সেই সব অগ্নিকে (ইন্দ্রমিব) ঐশ্বর্য্যের তুল্য (দেবাঃ) বিদ্বান্গণ (অভিসংবিশন্তু) জ্ঞানপূর্বক প্রবেশ করেন । হে স্ত্রী পুরুষগণ! তোমরা উভয়ে (তয়া) সেই (দেবতয়া) পূজাযোগ্য সর্বত্র ব্যাপ্ত জগদীশ্বর দেবতা সহ (অঙ্গিরস্বৎ) প্রাণের সমান বর্ত্তমান এই আকাশ-ভূমির তুল্য (ধ্রুব) দৃঢ় (সীদতম্) স্থির হও ॥ ৫৭ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে উপমালঙ্কার আছে । মনুষ্যদিগের উচিত যে, সকল ঋতুতে ঈশ্বরের নিকট সুখের কামনা করিবে । ঈশ্বর বিদ্যা-অগ্নির মধ্যেও ব্যাপ্ত এই কারণে সকল পদার্থ নিজ নিজ নিয়মে কার্য্যে সমর্থ হয় । বিদ্বান্ গণ সকল বস্তুতে ব্যাপ্ত বিদ্যুৎ রূপ অগ্নিসকলের গুণ-দোষ জানুন । স্ত্রী পুরুষ গৃহাশ্রমে স্থির বুদ্ধি হইয়া শিশির ঋতুর সুখ ভোগ করুক ॥ ৫৭ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
তপ॑শ্চ তপ॒স্য᳖শ্চ॑ শৈশি॒রাবৃ॒তূऽঅ॒গ্নের॑ন্তঃশ্লে॒ষো᳖ऽসি॒ কল্পে॑তাং॒ দ্যাবা॑পৃথি॒বী কল্প॑ন্তা॒মাপ॒ऽওষ॑ধয়ঃ॒ কল্প॑ন্তাম॒গ্নয়ঃ॒ পৃথ॒ঙ্ মম॒ জ্যৈষ্ঠ্যা॑য়॒ সব্র॑তাঃ । য়েऽঅ॒গ্নয়ঃ॒ সম॑নসোऽন্ত॒রা দ্যাবা॑পৃথি॒বীऽই॒মে । শৈ॒শি॒রাবৃ॒তূऽঅ॑ভি॒কল্প॑মানা॒ऽইন্দ্র॑মিব দে॒বাऽঅ॑ভি॒সংবি॑শন্তু॒ তয়া॑ দে॒বত॑য়াऽঙ্গির॒স্বদ্ ধ্রু॒বে সী॑দতম্ ॥ ৫৭ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
তপশ্চেত্যস্য পরমেষ্ঠী ঋষিঃ । শিশিরর্ত্তুর্দেবতা । স্বরাডুৎকৃতিশ্ছন্দঃ ।
ষড্জঃ স্বরঃ ॥
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