यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 5
ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः
देवता - विद्वांसो देवता
छन्दः - निचृदभिकृतिः
स्वरः - ऋषभः
106
आ॒च्छच्छन्दः॑ प्र॒च्छच्छन्दः॑ सं॒यच्छन्दो॑ वि॒यच्छन्दो॑ बृ॒हच्छन्दो॑ रथन्तर॒ञ्छन्दो॑ निका॒यश्छन्दो॑ विव॒धश्छन्दो॒ गिर॒श्छन्दो॒ भ्रज॒श्छन्दः॑ स॒ꣳस्तुप् छन्दो॑ऽनु॒ष्टुप् छन्द॒ऽएव॒श्छन्दो॒ वरि॑व॒श्छन्दो॒ वय॒श्छन्दो॑ वय॒स्कृच्छन्दो॒ विष्प॑र्द्धा॒श्छन्दो॑ विशा॒लं छन्द॑श्छ॒दिश्छन्दो॑ दूरोह॒णं छन्द॑स्त॒न्द्रं॒ छन्दो॑ऽअङ्का॒ङ्कं छन्दः॑॥५॥
स्वर सहित पद पाठआ॒च्छदित्या॒ऽछत्। छन्दः॑। प्र॒च्छदिति॑ प्र॒ऽछत्। छन्दः॑। सं॒यदिति॑ स॒म्ऽयत्। छन्दः॑। वि॒यदिति॑ वि॒ऽयत्। छन्दः॑। बृ॒हत्। छन्दः॑। र॒थ॒न्त॒रमिति॑ रथम्ऽत॒रम्। छन्दः॑। नि॒का॒य इति॑ निऽका॒यः। छन्दः॑। वि॒व॒ध इति॑ विऽव॒धः। छन्दः॑। गिरः॑। छन्दः॑। भ्रजः॑। छन्दः॑। स॒ꣳऽस्तुबि॒ति॑ स॒म्ऽस्तुप्। छन्दः॑। अ॒नु॒ष्टुप्। अ॒नु॒स्तुबित्य॑नु॒ऽस्तुप्। छन्दः॑। एवः॑। छन्दः॑। वरि॑वः। छन्दः॑। वयः॑। छन्दः॑। व॒य॒स्कृत्। व॒यः॒कृदिति॑ वयः॒ऽकृत्। छन्दः॑। विष्प॑र्द्धाः॒। विस्प॑र्द्धा॒ इति॒ विऽस्प॑र्द्धाः। छन्दः॑। वि॒शा॒लमिति॑ विऽशा॒लम्। छन्दः॑। छ॒दिः। छन्दः॑। दू॒रो॒ह॒णमिति॑ दुःऽरो॒ह॒णम्। छन्दः॑। त॒न्द्रम्। छन्दः॑। अ॒ङ्का॒ङ्कमित्य॑ङ्कऽअ॒ङ्कम्। छन्दः॑ ॥५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आच्छच्छन्दः प्रच्छच्छन्दः सँयच्छन्दो वियच्छन्दो बृहच्छन्दो रथन्तरञ्छन्दो निकायश्छन्दो विवधश्छन्दो गिरश्छन्दः भ्रजश्छन्दः सँस्तुप्छन्दोनुष्टुप्छन्दऽएवश्छन्दो वरिवश्छन्दो वयश्छन्दो वयस्कृच्छन्दो विष्पर्धाश्छन्दो विशालञ्छन्दश्छदिश्छन्दो दूरोहणञ्छन्दन्तन्द्रञ्छन्दऽअङ्काङ्कं छन्दः ॥
स्वर रहित पद पाठ
आच्छदित्याऽछत्। छन्दः। प्रच्छदिति प्रऽछत्। छन्दः। संयदिति सम्ऽयत्। छन्दः। वियदिति विऽयत्। छन्दः। बृहत्। छन्दः। रथन्तरमिति रथम्ऽतरम्। छन्दः। निकाय इति निऽकायः। छन्दः। विवध इति विऽवधः। छन्दः। गिरः। छन्दः। भ्रजः। छन्दः। सꣳऽस्तुबिति सम्ऽस्तुप्। छन्दः। अनुष्टुप्। अनुस्तुबित्यनुऽस्तुप्। छन्दः। एवः। छन्दः। वरिवः। छन्दः। वयः। छन्दः। वयस्कृत्। वयःकृदिति वयःऽकृत्। छन्दः। विष्पर्द्धाः। विस्पर्द्धा इति विऽस्पर्द्धाः। छन्दः। विशालमिति विऽशालम्। छन्दः। छदिः। छन्दः। दूरोहणमिति दुःऽरोहणम्। छन्दः। तन्द्रम्। छन्दः। अङ्काङ्कमित्यङ्कऽअङ्कम्। छन्दः॥५॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मनुष्यैः प्रयत्नेन स्वातन्त्र्यं विधेयमित्याह॥
अन्वयः
मनुष्यैराच्छच्छन्दः प्रच्छच्छन्दः संयच्छन्दो वियच्छन्दो बृहच्छन्दो रथन्तरं छन्दो निकायश्छन्दो विवधश्छन्दो गिरश्छन्दो भ्रजश्छन्दः संस्तुप्छन्दोऽनुष्टुप् छन्दः एवश्छन्दो वरिवश्छन्दो वयश्छन्दो वयस्कृच्छन्दो विष्पर्द्धाश्छन्दो विशालं छन्दश्छदिश्छन्दो दूरोहणं छन्दस्तन्द्रं छन्दोऽङ्काङ्कं छन्दः स्वीकृत्य प्रचार्य प्रयतितव्यम्॥५॥
पदार्थः
(आच्छत्) समन्तात् पापनिवारकं कर्म (छन्दः) प्रकाशनम् (प्रच्छत्) प्रयत्नेन दुष्टस्वभावदूरीकरणार्थं कर्म (छन्दः) उत्साहनम् (संयत्) संयमः (छन्दः) बलम् (वियत्) विविधैः प्रकारैर्यतते येन तत् (छन्दः) उत्साहः (बृहत्) महद्वर्धनम् (छन्दः) स्वातन्त्र्यम् (रथन्तरम्) यदस्मिन् लोके तारकं वस्त्वस्ति तत् (छन्दः) स्वीकरणम् (निकायः) निचिन्वन्ति उपसमादधते येन वायुना तत् (छन्दः) स्वीकरणम् (विवधः) विशेषेण बध्नन्ति पदार्था यस्मिंस्तदन्तरिक्षम् (छन्दः) प्रकाशनम् (गिरः) गीर्यते निगल्यते यदेनं तत् (छन्दः) स्वीकरणम् (भ्रजः) भ्राजते प्रकाशते योऽग्निः सः (छन्दः) स्वीकरणम् (संस्तुप्) सम्यक् स्तुभ्नाति शब्दार्थसम्बन्धान् यया सा वाक् (छन्दः) आह्लादकारि (अनुष्टुप्) श्रुत्वा पश्चात् स्तुभ्नाति जानाति शास्त्राणि यया मननक्रियया सा (छन्दः) उपदेशः (एवः) प्रापणम् (छन्दः) प्रयतनम् (वरिवः) विद्वत्परिचरणम् (छन्दः) स्वीकरणम् (वयः) जीवनम् (छन्दः) स्वाधीनम् (वयस्कृत्) यद्वयस्करोति तज्जीवनसाधनम् (छन्दः) स्वीकरणम् (विष्पर्द्धाः) विशेषेण यः स्पर्ध्यते सः (छन्दः) प्रदीपनम् (विशालम्) विस्तीर्णं कर्म (छन्दः) परिग्रहणम् (छदिः) विघ्नापवारणम् (छन्दः) सुखावहम् (दूरोहणम्) दुःखेन रोढुमर्हम् (छन्दः) ऊर्जनम् (तन्द्रम्) स्वतन्त्रताकरणम् (छन्दः) प्रकाशनम् (अङ्काङ्कम्) गणितविद्या (छन्दः) संस्थापनम्॥५॥
भावार्थः
मनुष्यैः पुरुषार्थेन पारतन्त्र्यहानिः स्वातन्त्र्यस्वीकरणं सततं विधेयम्॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्यों को चाहिये कि प्रयत्न के साथ स्वतन्त्रता बढ़ावें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि (आच्छत्) अच्छे प्रकार पापों की निवृत्ति करने हारा कर्म (छन्दः) प्रकाश (प्रच्छत्) प्रयत्न से दुष्ट स्वभाव को दूर करने वाला कर्म (छन्दः) उत्साह (संयत्) संयम (छन्दः) बल (वियत्) विविध यत्न का साधक (छन्दः) धैर्य्य (बृहत्) बहुत वृद्धि (छन्दः) स्वतन्त्रता (रथन्तरम्) समुद्ररूप संसार से पार करने वाला पदार्थ (छन्दः) स्वीकार (निकायः) संयोग का हेतु वायु (छन्दः) स्वीकार (विवधः) विशेष करके पदार्थों के रहने का स्थान अन्तरिक्ष (छन्दः) प्रकाशरूप (गिरः) भोगने योग्य अन्न (छन्दः) ग्रहण (भ्रजः) प्रकाशरूप अग्नि (छन्दः) ले लेना (संस्तुप्) अच्छे प्रकार शब्दार्थ सम्बन्धों को जनाने हारी वाणी (छन्दः) आनन्दकारक (अनुष्टुप्) सुनने के पीछे शास्त्रों को जानने हारी मन की क्रिया (छन्दः) उपदेश (एवः) प्राप्ति (छन्दः) प्रयत्न (वरिवः) विद्वानों की सेवा (छन्दः) स्वीकार (वयः) जीवन (छन्दः) स्वाधीनता (वयस्कृत्) अवस्थावर्द्धक जीवन के साधन (छन्दः) ग्रहण (विष्पर्द्धाः) विशेष करके जिससे ईर्ष्या करे वह (छन्दः) प्रकाश (विशालम्) विस्तीर्ण कर्म (छन्दः) ग्रहण करना (छदिः) विघ्नों का हटाना (छन्दः) सुखों को पहुंचाने वाला (दूरोहणम्) दुःख से चढ़ने योग्य (छन्दः) बल (तन्द्रम्) स्वतन्त्रता करना (छन्दः) प्रकाश और (अङ्काङ्कम्) गणितविद्या का (छन्दः) सम्यक् स्थापन करना स्वीकार और प्रचार के लिये प्रयत्न करें॥५॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि पुरुषार्थ करने से पराधीनता छुड़ा के स्वाधीनता का निरन्तर स्वीकार करें॥५॥
विषय
ईश्वर के नाना सामर्थ्यों और राजा के नाना सामर्थ्यों का वर्णन ।
भावार्थ
१९. ( आच्छत् छन्दः ) शरीर के समस्त अंगों को प्राणशक्ति से सुरक्षित करने वाले अन्न के समान ब्रह्माण्ड के अंग प्रत्यंग में व्याप्त प्रभु हमारी रक्षा करे । २०. ( प्रच्छत् छन्दः ) उत्कृष्ट रीति से शरीर की रक्षा करने वाले अन्न के समान प्रभु हमें सुख दे । २१. ( संवत् छन्दः ) समस्त कार्य-व्यवहारों से संयमन करने वाली रात्रि के समान समस्त ब्रह्माण्ड के कार्य व्यवहारों को संयमन करने वाला प्रभु या राज्यव्यवस्था ( छन्द: ) हमारी रक्षा करे । २२. ( वियत् छन्दः) विविध कार्य-व्यवहारों को नियमित करनें वाला सूर्य के समान तेजस्वी परमेश्वर हमें सुख दे । २३. ( बृहत् छन्दः ) बृहत् महान् द्यौलोक के समान विशाल प्रभु हमें सुख दे । २४. ( रथन्तरं छन्दः ) रथों से गमन करने योग्य इस भूमण्डल के समान रथों, रंग योग्य रसों में सब से श्रेष्ठ परमेश्वर हमें सुख दे । २५. ( निकाय: छन्द: ) नित्य ज्ञानोपदेश करने वाले गुरु के समान या वाद्यों में शब्द करने वाले वायु के समान सर्वत्र ध्वनि जनक या ज्ञानो- पदेशप्रद प्रभु हमें सुख दे। २६. ( विवधश्छन्दः ) विविध रूपों से बांधने या दण्ड देने वाले अन्तरिक्ष के समान विविध कर्म फलों द्वारा जीवों को बांधने वाला प्रभु हमें सुख दे । २७. ( गिरः छन्दः ) निगलने योग्य, अन्न के समान सुखकारी परम आस्वाद्य प्रभु हमें सुख शरण दे । २८. ( भ्रजः छन्द: ) अग्नि के समान देदीप्यमान प्रभु हमें सुख दे । २६. ( संस्तुप् छन्दः) उत्तम रीति से शब्द और अर्थों को प्रकट करने वाली वाणी के समान सकल पदार्थों का प्रकाशक प्रभु हमें सुख दे । ३०. ( अनुष्टुप् छन्दः ) श्रवण करने के बाद अर्थ का प्रकाशन करने वाली वाणी के समान जगत् को रचकर अपने विज्ञान को दर्शाने वाला प्रभु हमें सुख दे । ३१. ( एवछन्द: ) समस्त सुख प्राप्त कराने वाले ज्ञान और प्रापक साधन के समान प्रभु हमें सुख दे । ३२. ( वरिवश्छन्दः ) और देवोपासना द्वारा परिचर्या योग्य प्रभु हमें सुख दे । ३३. ( वयः छन्द: ) जीवनों का अन्न के समान मूल कारण प्रभु हमें सुख दे । ३४. ( वयस्कृत् छन्दः ) जठराग्नि के समान सब प्राणियों को दीर्घायु करने वाला प्रभु हमें सुख दे । ३२. ( विष्पर्धा : छन्दः ) विविध प्रजाओं में स्पर्धा पूर्वक ग्रहण करने योग्य परम लोक रूप प्रभु हमें सुख दे । ३६. ( विशालं छन्दः ) विविध पदार्थों से शोभा देने वाले भूमि के समान विविध गुणों से सुन्दर प्रभु हमें सुख दे । ३७. ( छदिः छन्दः ) भूतल को आच्छादित करने वाले अन्तरिक्ष के समान सबपर करुणा रूप छाया करने वाला प्रभु हमें सुख दे | ३८. ( दूरोहणं छन्दः ) बड़े कष्टों और तपस्याओं से प्राप्त होने योग्य सूर्य के समान तेजोमय मोक्ष रूप प्रभु हमें सुख दे । ३९. ( तन्द्रं छन्दः ) कुटुम्ब भरण करने वाले परिपक्व वीर्यवान् युवा पुरुष के समान समस्त जीव लोक का भरण पोषण करने हारा प्रभु हमें सुख दे । (अङ्काङ्कं छन्दः) अङ्क अङ्क द्वारा प्रकट हुई विस्तृत गणित विद्या के समान सत्य नियमों का व्यवस्थापक प्रभु हमें सुख दे । यह परमात्मा पक्ष में नियोजना है । राष्ट्र पक्ष में-- (छन्दः ) राष्ट्र के भिन्न २ विभागों और कार्यों द्वारा राष्ट्र के धन, प्रजा और अधिकारों की रक्षा करने वाला बल, प्रयोग, कार्य व्यवहार, व्यापार और शिल्प छन्द है जो प्रजा के सुख का साधन हो और मनुष्यों की प्रवृत्ति उसमें हो सके, इस प्रकार निम्नलिखित कार्य विभाग राष्ट्र में होने आवश्यक हैं। १. ( एवः ) ज्ञान, प्रजाओं का शिक्षण अथवा पृथिवी में गमनागमन के साधन रथादि । २. ( वरिवः) गुरु, देव, पितृजन आदि की सेवा। ३. ( शंभूः ) प्रजाओं को शान्ति सुख देने के उपाय, औषधालय, उद्यान, तडाग आदि निर्माण । ४ (परिभूः ) चारों ओर से प्रजा की परकोटआदि से रक्षा ।२. ( आच्छत् ) आच्छादन योग्य वस्त्र | ६. ( मन ) मनन, शास्त्रमनन, उत्तम शास्त्र चिन्तन । ७. ( व्यचः ) सूर्य के समान राजा की कीर्त्ति का और राष्ट्र का प्रसार अथवा विविध शिल्प ८ (सिन्धुः) नदियों का, नहरों का निर्माण, निरोध एवं उन द्वारा गमन - आगमन । ३. ( समुद्र ) समुद्र से व्यापार और मुक्ता रत्र आदि प्राप्ति । १०. ( सरिरं) सलिल, जल ।११. ( ककुप् ) प्रजा के सुख वर्धक उपाय । १२. (त्रिककुपू ) त्रिविध सुखों का सम्पादन । १३. ( काव्यम् ) कवियों की कृति काव्य, सुन्दर वागविलास । १४ ( अङ्कुपं ) प्रजा की कुटिल कूट नीतियों, व्यवहारों से और कुटिलाचारों से रक्षा। १५. ( अक्षरपंक्ति: ) अक्षय ब्रह्म का ज्ञान या अक्षर अखण्ड ब्रह्मचर्य की या वीर्य की परिपक्वता का सोधन : १६. ( पदपंक्तिः ) गृहस्थ का पालन । १७ ( विष्टारपंक्तिः ) प्रजोत्पादन, प्रजापालन । १८. ( क्षुरः ) क्षुर, छूरा कर्म । १६. ( भ्रजः ) दीप्ति, प्रकाश आदि का करना अथवा ( क्षुरोभ्रजः) छुरे की धार के समान कठिन आदित्यव्रत की साधना । २०. ( आच्छत् ) प्रजा की सब ओर से रक्षा ।२१. (प्रच्छत् ) अच्छी प्रकार रक्षा । २२. (संयत्) दुष्टों का संघम | २३. ( वियत् ) विविध व्यवहारों का नियमन । ( बृहत् ) बड़े राष्ट्र का प्रबन्ध । २४. ( रथन्तरम् ) रथों के मार्गों का निर्माण और प्रबन्ध । २५. ( निकाम: ) शरीर के प्राण वायु की साधना, अथवा समस्त पंजा के शरीरों की रक्षा अथवा विशेष खाद्य पदार्थों का संग्रह । २६. ( विवध ) विविध हनन साधनों हथियारों का संग्रह । २७ ( गिरः) अन्नों का संग्रह । २८. ( भ्रजः ) अग्नि, विद्या या विद्युत द्वारा प्रकाश उत्पादन । २६. ( संस्तुप् ) उत्तम विद्याओं का पठन पाठन । ३० ( अनुष्टुप् ) सामान्य विद्याओं का अध्ययन । ३१ ( एवः वरिवः ) ज्ञान और उपासना एवं गुरु सेवा । ३२. ( वयः ) जीवन वृद्धि या अन्न । ३३. ( वयंस्कृत ) अक्ष के उत्पादक प्रयोग । ३४ (विष्पर्धा) संग्राम । ३२. (विशालं) विविध वस्तु, भवन निर्माण । ३६. ( छदि) उनके छतें आदि बनाना ( दूरोहणं ) दुर्गम स्थानों पर चढ़ने के साधन । ३७. (तन्द्र) मोहन विद्या । ३८. (अङ्काङ्कं) गणित विद्या । इन सब शिल्पों को सरहस्य जाना और किया जाय। इसी प्रकार अध्यात्म में इन सब छन्दों से आत्मा की इतनी शक्तियों, प्रवृत्तियों, स्वभावों, भोकव्य पदार्थों और साधनीय कार्यों का वर्णन किया गया है । प्रजनन संहिता में इन शब्दों के तदनुसार भिन्न २ अर्थ होंगे । शतपथ के अनुसार एवः आदि के अर्थ नीचे लिखे जाते हैं । १ एवः अयं लोकः २१ संयत् रात्रिः २ वरिवः अन्तरिक्षं २२ वियत अहः ३ शंभूः द्यौ २३ बृहत् असौलोकः ४परिभूः दिश: २४ रथन्तरं अयंलोकः ५ आच्छत् अन्नं २५निकायः वायुः ६ मनं:- प्रजापतिः आत्मा) २६ विवधः अन्तरिक्षं ७ व्यचः आदित्यः २७ गिरः अन्नम् ८ सिन्धुः प्राण २८ भ्रज: अग्निः ९ समुद्रं मनः २९ संस्तुप् वाग् १०सरिरं वाग् ३० अनुष्टुप् अयंलोकः ११ ककुप् प्राणः ३१ एवः अतंरिक्ष १२ त्रिककुप उदानः ३२ वरिवः अन्नं १३ काव्यं त्रयीविद्या ३३ क्यः अग्निः १४अङ्कुंप् आपः ३४ वयस्कृतः १५ अक्षरपंक्ति: असौलोकः ३५ विष्पर्धाः असौ लोक: १६ पदपंक्रिः ३६ विशालं अयंलोकः १७ विष्टारपंक्तिः दिशः ३७ छदिः अन्तरिक्षम् १८ क्षुरोभ्रजः आदित्यः ३८ दूरोहणम् आदित्यः १९. आच्छत् ३९ तन्द्रं पंक्ति: २० प्रच्छत् अन्नं आपः 'एवं' आदि के 'अयं लोकः' आदि साक्षात् अर्थ नहीं, प्रत्युत उपमान, होने से साधारण धर्मों के द्योतक पदार्थ हैं । शतपथ इन पदार्थों को 'बन्धु' अर्थात् उपमान मात्र ही बताता है। शरीर में और ब्रह्माण्ड में विस्तृत घटक तत्वों का आध्यात्मिक आधिभौतिक भेद से भी यहां निरूपण किया गया है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भुरिगभिकृति: ऋषभः ॥
विषय
आच्छत्+अङ्काङ्कम् [गोदों की गोद]
पदार्थ
१. (आच्छत् छन्दः) = [समन्तात् पापनिवारकं कर्म - द०] अच्छे प्रकार पापों की निवृत्ति करनेवाले कर्म की तुम्हारी कामना हो। अपने को पाप से बचाने के लिए हम सदा कर्मों में लगे रहें । २. (प्रच्छत् छन्दः) = [ प्रयत्नेन दुष्टस्वभावदूरीकरणार्थं कर्म - द० ] प्रयत्न से दुष्ट स्वभाव को दूर करनेवाले कर्म की तुम्हारी कामना हो । जहाँ हम पापकर्मों से अपने को बचाएँ, वहाँ अपने जीवन को इस प्रकार चलाने का ध्यान करें कि हमारा स्वभाव दुष्ट न हो जाए। ३. (संयत् छन्दः) = संयम की हमारी कामना हो। हम मन को पवित्र रखकर संयमी बनने का प्रयत्न करें। ४. (वियत् छन्दः) = विविध यत्नों की हमारी इच्छा हो। हम अपने जीवन को सदा अच्छा बनाने का यत्न करें। ५. (बृहत् छन्दः) = [बृहि वृद्धौ] बहुत वृद्धि की हमारी कामना बनी रहे। हमारे सब यत्न वृद्धि के लिए हों। ६. (रथन्तरं छन्दः) = हमें यह ध्यान रहे कि इस शरीररूप रथ से हमने संसार को तैरना है। इस प्रकार जीवन-यात्रा को पूर्ण करने की हमारी प्रबल कामना हो। ७. (निकायः छन्दः) = [निकाय = The supreme being] जीवन-यात्रा को पूर्ण करके उस पुरुषोत्तम को, जो वास्तव में हमारा घर है, प्राप्त करने की हमारी कामना हो । निकाय शब्द का अर्थ गुणों का समूह भी है। हम अपने जीवन में अधिक-से-अधिक गुणों का संग्रह करने की कामनावाले हों। ८. (विवधः छन्दः) = [विशिष्टो वधः] अन्तःशत्रुओं का नाश ही 'विशिष्ट' वध है, उसकी हमें इच्छा करनी चाहिए। ९. (गिरः छन्दः) = इनका वध कर सकने के लिए वेदवाणियों की हमारी कामना हो। इन ज्ञानवाणियों को अपना व्यसन बनाकर ही हम काम-क्रोधादि से उत्पन्न व्यसनों का वध कर पाएँगे। १०. (भ्रजः छन्दः) = ज्ञान को अपना व्यसन बनाकर हम ज्ञान की दीप्ति से चमकने की कामना करें। [भ्रा दीप्तौ ] ११. (संस्तुप् छन्दः) = इस ज्ञान दीप्ति को प्राप्त करके अपनी देदीप्यमान ज्ञानाग्नि में हम कामादि को भस्म करने की कामनावाले बनें। कामादि को (सम्) = सम्यक्, (पूर्णतया स्तुप्) = रोक देने की इच्छा करें। इसी उद्देश्य से १२. (अनुष्टुप् छन्दः) = अनुक्षण प्रभु-स्तवन की हमारी कामना हो। इस प्रभु स्मरण से हमें १३. (एव: छन्दः) = ज्ञान प्राप्त होगा। इस अन्त: ज्ञानस्रोत को प्रवाहित करने की कामनावाले हम बनें। १४. (वरिवः छन्दः) = ज्ञान को प्राप्त करने के लिए 'गुरु-शुश्रूषा' की हमारी कामना हो। 'तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सवेया' यह ज्ञान प्रणिपात, परिप्रश्न व सेवा से प्राप्त होता है। १५. वस्तुत: मातृ-सेवा, पितृ-सेवा, आचार्य सेवा व लोक सेवा के लिए ही (वयः छन्दः) = जीवन - तन्तु का विस्तार हमारी इच्छा का विषय बने [वेञ् तन्तुसन्ताने] । १६. इस जीवन विस्तार के लिए (वयस्कृत् छन्दः) = हम उन्हीं अन्नों व भोज्यद्रव्यों की कामना करें जो जीवन-तन्तु को दीर्घ करनेवाले हों । १७. इस दीर्घ जीवन में (विष्पर्द्धाः छन्दः) = हम विशिष्ट स्पर्धा की कामना करें। गुणों के दृष्टिकोण से औरों से आगे बढ़ने का ध्यान करें। स्पर्धापूर्वक निरन्तर आगे बढ़ते हुए १८. (विशालं छन्दः) = हम अपने को विशाल बनाने की कामनावाले हों । १९. इस विशालता की ओर चलते हुए (छदिः छन्दः) [छद अपवारणे ] = विघ्नों को दूर करने की हमारी कामना हो । विघ्न हमें हतोत्साह करनेवाले न हो जाएँ। २०. इन विघ्नों को दूर करते हुए हम ऊपर और ऊपर उठते चलें। वेद के 'पृष्ठात् पृथिव्या अहमन्तरिक्षम्, अन्तरिक्षाद्दिवमारुहं दिवो नाकस्य पृष्ठात् स्वर्ज्योतिरगामहम्' इन शब्दों के अनुसार हम पृथिवी से अन्तरिक्ष में और अन्तरिक्ष से द्युलोक में पहुँचनेवाले हों। (दूरोहणं छन्दः) = [दुःखेन रोद्धुं योग्यम्] जहाँ तक पहुँचना सुगम नहीं, उस आदित्य तक पहुँचने का संकल्प करें। [असौ वा आदित्यो दूरोहणं छन्दः- श० ८।५।२६] । २१. (तन्द्रं छन्दः) = हमारा एक ही ध्येय हो (तन्) = शक्तियों का विस्तार तथा (द्र) = विघ्नों का विद्रावण । हम शक्तियों के विस्तार व विघ्न नाश की प्रबल कामना करें । २२. इस प्रकार निरन्तर उन्नति के लिए प्रयत्नशील होते हुए हम 'अङ्क + अङ्क छन्दः 'गोदों की भी गोद- उस सर्वोत्तम गोद में, अर्थात् प्रभु के समीप पहुँचने की इच्छावाले हों। यह गोद ही 'अभयम्' पूर्ण निर्भयता देनेवाली है।
भावार्थ
भावार्थ- हम आच्छत् छन्द से अङ्काङ्क छन्द तक पहुँचनेवाले बनें। पाप निवारणात्मक कर्मों को करते हुए हम प्रभु की गोद में पहुँचने का ध्यान करें।
मराठी (2)
भावार्थ
माणसांनी पुरुषार्थ करून पारतंत्र्य नष्ट करावे व स्वातंत्र्याचा सतत स्वीकार करावा.
विषय
मनुष्यांकरिता उचित व हितकर आहे की त्यांनी सर्व शक्तीनिशीं प्रयत्न-पुरुषार्थ करीत स्वातंत्र्य वाढवावे (स्वावलंबित्व व स्वाभिमान धारण करावा) पुढील मंत्रात हा विषय प्रतिपादित आहे-
शब्दार्थ
शब्दार्थ - मनुष्यांनी हे केले पाहिजे-(आच्छत्) योग्य रीतीने पायांपासून निवृत्त करणारे कर्म (छन्द:) करून प्रकाशित वा यशवंत व्हावे. (प्रच्छत्) दु:ष्ट स्वभावाला यत्नत दूर करीत असे कर्म करावेत की ज्यामुळे जीवनात (छन्द:) उत्साह वाढेल. (संयत्) संयम धारण करून (छन्द:) शक्तीसंपादित करावी. (नियत्) विविध यत्न सफल करणारे गुण म्हणजे (छन्द:) धैर्य धारण करावे. (बृहत्) अत्यंत उन्नतीकारक (छन्द:) स्वातंत्र्य प्राप्त करावे (रथन्तरम्) समुद्ररुप संसारातून तरून नेणार्या पदार्थांचा (छन्द:) तुम्ही स्वीकार करा (निकाय:) संयोगाचे आणि जीवनाचे कारण जो वायू, त्या वायूचा (छन्द:) स्वीकार करा. (विविध:) विविध पदार्थांचे आश्रयस्थान जे अंतरिक्ष (छन्द:) त्याचा प्रकाश प्राप्त करा., (गिर:) भोज्य अन्नाचे (छन्द:) ग्रहण वा सेवन करा. (भ्रज:) प्रकाशरूप अग्नीचे (छन्द:) ग्रहण करा (त्यापासून लाभ घ्या) (संस्तुप्) शब्द आणि अर्थ यांचा सम्बन्ध उत्तमप्रकारे दर्शविणार्या वाणीचा (छन्द:) आनंद लुथ. (अनुष्टुप्) शास्त्रवचनें श्रवण केल्यानंतर त्यांचे मनन करणारी (क्रिया) (छन्द:) जाणून घ्या (वा उपदेंचे मननचिंतन करण्याची संचय लावा) (एव:) (उत्तम विद्या, वस्तू आदींच्या) प्राप्तीसाठी (छन्द:) यत्न करा. (वरिव:) विद्वानांची सेवा करण्याचा स्वभाव (छन्द:) अंगीं बाळगा. (वय:) जीवन (छन्द्र:) स्वाधीन बनवा. (वयस्कृत्) जीवनाला प्रगतीकडे नेणारी जी जी साधनें आहेत, त्यांचा (छन्द:) स्वीकार कण (विष्पर्द्धा:) ज्याला पाहून इतरांनी प्रेरणा घ्यावी, असा (छन्द:) प्रकाश म्हणजे यश प्राप्त करा. ज्याला पाहून इतरांनी प्रेरणा घ्यावी, असा (छन्द:) करीत जा (छदि:) तुमच्या मार्गात येणार्या विघ्नांना (छन्द:) दूर करून मार्ग सुखमय बनवा. (दूरोहणम्) अपराजेय अशी (छन्द:) शक्ती मिळवा. (तन्द्रम्) स्वतंत्र करणारे )(छन्द:) प्रकाशित वा प्रशंसनीय कर्म करा (अड्कड्कम्) गणित विद्येचे (छन्द:) सम्यक् अध्ययम आणि शिक्षण यांचा स्वीकार करून त्यासाठी सतत प्रयत्न करा. ॥5॥
भावार्थ
भावार्थ - मनुष्यांनी पुरुषार्थ आणि प्रयत्न-परिश्रमाद्वारे पसधीनत्व झिडकारून टाकावे आणि सदा निरंतर स्वतंत्र वा स्वाधीन राहण्यासाठी झगडत रहावे. ॥5॥
इंग्लिश (3)
Meaning
The action that removes sins, gives light. The action that with exertion removes evil propensity, lends determination. Concentration of mind gives strength. Perseverance leads to various efforts. Increase in prosperity leads to independence. Emancipator from this world is worthy of adoration. Air is useful. Space in which reside different objects is full of light. Food worth enjoying is acceptable. Brilliant fire is acceptable. Speech gives enjoyment. The mental attitude, that after hearing, makes us understand the religious books serves as our mentor. Acquisition is the result of exertion. Service of the learned is worthy of resort. Life is synonymous with independence. Means for prolonging life are exercisable. Emulation is laudable. Enterprise is praiseworthy. Removal of obstacles is the bringer of happiness. Conquest of affliction demands strength. Independence is splendour. Arithmetic is a useful science.
Meaning
Prevention of evil is light. Fight against evil is courage. Self-control is bravery. Variety of choice is versatility. Ascendancy to the heavens is freedom. The path to success is the right choice. The windfalls of attainment are lovely. Meditation on the sky reveals the bonds of piety. Voice is revelation. Light is illumination. Speech is expression of word, meaning and reality. Thought is reflection on meaning and reality. Effort and achievement on earth is meaningful. Excellence is valuable. Life is a boon. The life-force is irresistible. Emulation and competition is legitimate. Great action is glory. Cover and protection is nobility. Rising against difficulty is perseverance. Freedom is the breath of life. Faith and ascertainment is inviolable joy.
Translation
Acchat (the food) is life-giving. (1) Pracchat (the clothing) is life-giving. (2) Samyat (the night) is lifegiving. (3) Viyat (the day) is life-giving. (4) Brhat (the yonder world) is life-giving. (5) Rathantara (this world) is life-giving. (6) Nikaya (the wind) is lifegiving. (7) Vivadha (the air) is life-giving. (8) Gira (the edibles) is life-giving. (9) Bhraja (the fire) is lifegiving. (10) Samstup (the speech) is life-giving. (11) Anustup (the verse) is life-giving. (12) Eva (this earth) is life-giving. (13) Varivas (the mid-space) is lifegiving. (14) Vayah (the age) is life-giving. (15) Vayaskri (the digestive fire) is life-giving. (16) Vispardha (the celestial world) is life-giving. (17) Visala (the spacious earth) is life-giving. (18) Chadi (the air) is life-giving. (19) Durohana (the inaccessible sun) is life-giving. (20) Tandra (the sleep) is life-giving. (21) and аnkаnkа (the water) is life-giving. (22).
Notes
Like pre-ious kandika, this also contains twenty two items that have been mentioned as chandas and these have to be interpreted with the help of the Satapatha. Acchat, अन्नं वा आच्छच्छंद: the food. Samyat, सम्यच्छति व्यापारान् इति संयत् रात्रि:, puts a halt to the activities, i. e, the night. Viyat, अहर्वै वियत् च्छंद:, the day. Brhat, feretro, the vast yonder world. Rathantaram, रथै: तीर्यते गम्यते यत्र तत् भूमण्डलम्, where one travels by chariots, i. e. this world. Nikayah, नितरां कायति शब्दं करोति, that makes much noise;वयुर्वै निकायश्च्छंद:, the wind. Vivadhah, अंतरिक्षं वै विविध;, the mid-space. Girah, गीर्यते भक्ष्यते यत्, that which is swallowed; अन्नं वै गिर: the food. Bhrajah, भ्राजते दीप्यते य: सोऽग्नि:, that which blazes, the fire. Sainstup and anustup, वागेव संस्तुप्छंदो वागनुष्टुप्छंद: both of these are the speech. For evah and varivah, see the preceding verse. Vayah, the age, the life. Also, food. अन्नं वै वयश्छंद:. Vayaskrt, अग्निर्वै वयस्कृच्छंद:, the fire of digestion (sre) | Vispardhah, असौ वा लोको विष्पर्धा:, स्वर्ग:, the yonder world; heaven; celestial world. visalam विशलं भूतलं अयं वै लोको विशालं छंद:, this Earth. Chadih, अंतरिक्षं वै छदि:, the mid-space. Dirohanam, दु:खेन रोढुं आरोहणं कर्तुं शयक्यं असौ वा आदित्यो आरोहणं छंद: one very difficult to ascend to, the Sun. Tandram, तंद्रि सादे मोहे, to be fatigued or exhausted and to lose conciousness; the sleep. Аnkankam, आपो वा अंकांकं छंद: the waters. The commentators have not tried to show any sequence or continuity in the various sections (mantras) of this verse (Капка). It appears to be a mere enumeration, with a few repetitions. Interpretations of the Satapatha at some places are a bit arbitrary. The word sariram, sindhuh, and samudram have been given meanings quite different from those generally prevailing.
बंगाली (1)
विषय
অথ মনুষ্যৈঃ প্রয়ত্নেন স্বাতন্ত্র্যং বিধেয়মিত্যাহ ॥
মনুষ্যদিগের উচিত যে, প্রচেষ্টার সঙ্গে স্বতন্ত্রতা বৃদ্ধি করিবে – এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- মনুষ্যদিগের উচিত যে, (আচ্ছৎ) সম্যক্ প্রকার পাপগুলির নিবৃত্তিকারী কর্ম্ম (ছন্দঃ) প্রকাশ (প্রচ্ছৎ) প্রচেষ্টা দ্বারা দুষ্ট স্বভাবকে দূরীভূতকারী কর্ম (ছন্দঃ) উৎসাহ (সংয়ৎ) সংযম (ছন্দঃ) বল (বিয়ৎ) বিবিধ যত্নের সাধক (ছন্দঃ) ধৈর্য্য (বৃহৎ) বহু বৃদ্ধি (ছন্দঃ) স্বতন্ত্রতা (রথন্তরম্) সমুদ্ররূপ সংসার হইতে উত্তীর্ণকারী পদার্থ (ছন্দঃ) স্বীকার (নিকায়ঃ) সংযোগের হেতু বায়ু (ছন্দঃ) স্বীকার (বিবিধঃ) বিশেষ করিয়া পদার্থগুলির নিবাস স্থান অন্তরিক্ষ (ছন্দঃ) প্রকাশরূপ (গিরঃ) ভোগ করিবার যোগ্য অন্ন (ছন্দঃ) গ্রহণ (ভ্রজঃ) প্রকাশরূপ অগ্নি (ছন্দঃ) গ্রহণ (সংস্তুপ্) সম্যক্ প্রকার শব্দার্থ সম্বন্ধকে জানাইয়া দেয় এমন বাণী (ছন্দঃ) আনন্দকারক (অনুষ্টুপ্) শুনিবার পিছনে শাস্ত্রসকলকে জানিবার মনের ক্রিয়া (ছন্দঃ) উপদেশ (এবঃ) প্রাপ্তি (ছন্দঃ) প্রযত্ন (বরিবঃ) বিদ্বান্দিগের সেবা (ছন্দঃ) স্বীকার (বয়ঃ) জীবন (ছন্দঃ) স্বাধীনতা (বয়স্কৃৎ) অবস্থাবর্দ্ধক জীবনের সাধন (ছন্দঃ) গ্রহণ (বিস্পর্দ্ধাঃ) বিশেষ করিয়া যাহা দ্বারা ঈর্ষা করে সেই (ছন্দঃ) প্রকাশ (বিশালম্) বিস্তীর্ণ কর্ম (ছন্দঃ) গ্রহণ করা (ছদিঃ) বিঘ্নগুলিকে দূরীভূত করা (ছন্দঃ) সুখকে উপস্থিতকারী (দূরোহণম্) দুঃখ হইতে আরোহণযোগ্য (ছন্দঃ) বল (তন্দ্রম্) স্বতন্ত্রতা করা (ছন্দঃ) প্রকাশ এবং (অঙ্কাঙ্কম্) গণিত বিদ্যার (ছন্দঃ) সম্যক্ স্থাপন করা স্বীকার এবং প্রচারের জন্য প্রচেষ্টা করিবে ॥ ৫ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগের উচিত যে, পুরুষকার করিয়া পরাধীনতা ত্যাগ করাইয়া স্বাধীনতার নিরন্তর স্বীকার করিবে ॥ ৫ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
আ॒চ্ছচ্ছন্দঃ॑ প্র॒চ্ছচ্ছন্দঃ॑ সং॒য়চ্ছন্দো॑ বি॒য়চ্ছন্দো॑ বৃ॒হচ্ছন্দো॑ রথন্ত॒রঞ্ছন্দো॑ নিকা॒য়শ্ছন্দো॑ বিব॒ধশ্ছন্দো॒ গির॒শ্ছন্দো॒ ভ্রজ॒শ্ছন্দঃ॑ স॒ꣳস্তুপ্ ছন্দো॑ऽনু॒ষ্টুপ্ ছন্দ॒ऽএব॒শ্ছন্দো॒ বরি॑ব॒শ্ছন্দো॒ বয়॒শ্ছন্দো॑ বয়॒স্কৃচ্ছন্দো॒ বিষ্প॑র্দ্ধা॒শ্ছন্দো॑ বিশা॒লং ছন্দ॑শ্ছ॒দিশ্ছন্দো॑ দূরোহ॒ণং ছন্দ॑স্ত॒ন্দ্রং ছন্দো॑ऽঅঙ্কা॒ঙ্কং ছন্দঃ॑ ॥ ৫ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
আচ্ছচ্ছন্দ ইত্যস্য পরমেষ্ঠী ঋষিঃ । বিদ্বাংসো দেবতাঃ । নিচৃদভিকৃতিশ্ছন্দঃ । ঋষভঃ স্বরঃ ॥
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