यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 24
ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृत त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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अबो॑ध्य॒ग्निः स॒मिधा॒ जना॑नां॒ प्रति॑ धे॒नुमिवाय॒तीमु॒षास॑म्। य॒ह्वाऽइ॑व॒ प्र व॒यामु॒ज्जिहा॑नाः॒ प्र भा॒नवः॑ सिस्रते॒ नाक॒मच्छ॑॥२४॥
स्वर सहित पद पाठअबो॑धि। अ॒ग्निः। स॒मिधेति॑ स॒म्ऽइधा॑। जना॑नाम्। प्रति॑। धे॒नुमि॒वेति॑ धे॒नुम्ऽइ॑व। आ॒य॒तीमित्या॑ऽय॒तीम्। उ॒षास॑म्। उ॒षस॒मित्यु॒षस॑म्। य॒ह्वा इ॒वेति॑ य॒ह्वाःऽइ॑व। प्र। व॒याम्। उ॒ज्जिहा॑ना॒ इत्यु॒त्ऽजिहा॑नाः। प्र। भा॒नवः॑। सि॒स्र॒ते॒। नाक॑म्। अच्छ॑ ॥२४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अबोध्यग्निः समिधा जनानाम्प्रति धेनुमिवायतीमुषासम् । यह्वाऽइव प्र वयामुज्जिहानाः प्र भानवः सिस्रते नाकमच्छ ॥
स्वर रहित पद पाठ
अबोधि। अग्निः। समिधेति सम्ऽइधा। जनानाम्। प्रति। धेनुमिवेति धेनुम्ऽइव। आयतीमित्याऽयतीम्। उषासम्। उषसमित्युषसम्। यह्वा इवेति यह्वाःऽइव। प्र। वयाम्। उज्जिहाना इत्युत्ऽजिहानाः। प्र। भानवः। सिस्रते। नाकम्। अच्छ॥२४॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृशो भवेदित्याह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! यथा समिधायमग्निरबोध्यायतीमुषासं प्रति जनानां धेनुमिवास्ति। यस्य यह्वा इव प्रवयामुज्जिहानाः प्रभानवो नाकमच्छ सिस्रते, तं सुखाय यूयं संप्रयुङ्ग्ध्वम्॥२४॥
पदार्थः
(अबोधि) प्रबुध्यते (अग्निः) (समिधा) प्रदीपसाधनैः (जनानाम्) मनुष्याणाम् (प्रति) (धेनुमिव) यथा दुग्धदां गां तथा (आयतीम्) प्राप्नुवतीम् (उषासम्) उषसं प्रभातम्। अत्र अन्येषामपि [अ॰६.३.१३७] इति दीर्घः (यह्वा इव) महान्तो धार्मिका जना इव (प्र) (वयाम्) व्यापिकां सुखनीतिम् (उज्जिहानाः) उत्कृष्टतया प्राप्नुवन्तः (प्र) (भानवः) किरणाः (सिस्रते) प्रापयन्ति। अत्र सृधातोर्लटि शपः श्लुर्व्यत्ययेनात्मनेपदमन्तर्गतो ण्यर्थश्च (नाकम्) अविद्यमानदुःखमाकाशम् (अच्छ) सम्यक्॥२४॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा दुग्धदात्री धेनुर्गौः संसेविता सती दुग्धादिभिः प्राणिनः सुखयति, यथाऽऽप्ता विद्वांसो विद्यादानेनाविद्यां निवार्य्य मनुष्यानुन्नयन्ति, तथैवायमग्निर्वर्त्तत इति वेद्यम्॥२४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! जैसे (समिधा) प्रज्वलित करने के साधनों से यह (अग्निः) अग्नि (अबोधि) प्रकाशित होता है, (आयतीम्) प्राप्त होते हुए (उषासम्) प्रभात समय के (प्रति) समीप (जनानाम्) मनुष्यों की (धेनुमिव) दूध देने वाली गौ के समान है। जिस अग्नि के (यह्वा इव) महान् धार्मिक जनों के समान (प्र) उत्कृष्ट (वयाम्) व्यापक सुख की नीति को (उज्जिहानाः) अच्छे प्रकार प्राप्त करते हुए (प्र) उत्तम (भानवः) किरण (नाकम्) सुख को (अच्छ) अच्छे प्रकार (सिस्रते) प्राप्त करते हैं, उस को तुम लोग सुखार्थ संयुक्त करो॥२४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे दुग्ध देने वाली सेवन की हुई गौ दुग्धादि पदार्थों से प्राणियों को सुखी करती है और जैसे आप्त विद्वान् विद्यादान से अविद्या का निवारण कर मनुष्यों की उन्नति करते हैं, वैसे ही यह अग्नि है, ऐसा जानना चाहिये॥२४॥
विषय
वन्दनीय परमेश्वर और स्तुत्य राजा का वर्णन ।
भावार्थ
( धेनुम् इव ) दुधार कपिला गाय के समान (आयलीम् ) आनेवाली (प्रति उषासम् ) प्रत्येक प्रातः काल को ( राजा के पक्ष में (जनानां समिधा ) जनों, प्रजाओं के उपकार के लिये ( समिधा ) समिधा से ( अग्निः अबोधि ) जिस प्रकार होमाग्नि प्रदीप्त होता है और जिस प्रकार ( जनानां ) मनुष्यों के उपकार के लिये ( समिधा ) तेज से ( प्रतिउषासम् ) प्रति प्रातःकाल ( अग्निः अबोधि ) सूर्य प्रकाशित होता है उसी प्रकार ( जनानां ) राष्ट्र के प्रजाजनों के ( सम्-इधा ) सूर्य के समान तेज से ही ( धेनुम् इव ) कपिला गाय के समान ( आयतीम् ) प्राप्त होने वाला ( प्रति उषासम् ) प्रत्येक दुष्टों के संताप देने के अवसर (अग्निः ) अग्नि के समान तेजस्वी अग्रणी नेता रूप परंतप राजा को ( अबोधि ) प्रज्वलित, उत्तेजित किया जाता है। ( उज्जिहानां यह्नाः ) ऊपर उड़ने वाले बड़े २ पक्षी जिस प्रकार ( वयाम् प्रसिस्रते ) शाखा की और आश्रय लेने के लिये बढ़ते हैं। और ( भानवः ) सूर्य की उज्ज्वल किरणें ( नाकम् प्रसिस्रते ) जिस प्रकार आकाश की ओर बढ़ती हैं । उसी प्रकार ( यहां ) बड़े २ पदाधिकारी लोग ( वयाम् ) व्यापक उदार नीति को या कीर्ति को प्राप्त करते हैं और ( भानव: ) तेजस्वी पुरुष लोग ( नाकम् ) सुखमय राष्ट्र को ( अच्छ ) भली प्रकार प्राप्त करते हैं। अध्यात्म में देखो सामवेद द्वितीय संस्क० मन्त्र सं० ७३ ॥ और अभर्व० १३ । २ । ४६ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बुधगविष्ठिरौ ऋषी । अग्निर्देवता । निचृत् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
विषय
उन्नति के चार प्रमाण
पदार्थ
१. गत मन्त्र का आत्मद्रष्टा जिन प्रयाणों से चलकर उस स्थिति में पहुँचता है, उनका उल्लेख करते हुए कहते हैं कि (जनानाम्) = [जन् प्रादुर्भाव ] प्रादुर्भाव व जीवन का विकास करनेवाले माता-पिता व आचार्यों की समिधा सन्तान में रक्खी गई ज्ञान दीप्ति से [इन्धू- दीप्ति] (अग्निः) = अग्नि के समान ज्ञान के प्रकाशवाला युवक (अबोधि) = उद्बुद्ध जीवनवाला बनता है। ब्रह्मचर्याश्रम में यह 'मातृमान् पितृमान् व आचार्यवान् पुरुष' ज्ञान सम्पन्न हो पाता है। २. अब यह आचार्यकुल से समावृत्त होकर जीवन-यात्रा के दूसरे प्रयाण गृहस्थ में प्रवेश करता है और प्रति (आयतीम् उषासम्) = प्रत्येक आनेवाले उष:काल में यह (जनानाम्) = सब लोगों के - 'ब्रह्मचारी, वनस्थ व संन्यासियों' के लिए (धेनुम् इव) = धेनु के समान होता है। ३. गृहस्थ-भार वहन कर चुकने के बाद सब सन्तानों को यथास्थान स्थापित कर देने पर (इव) = जैसे (यह्वाः) = [महान्तः जातपक्षा:- उ०] उत्पन्न पंखोंवाले पक्षी (वयाम्) = शाखा को छोड़कर आगे बढ़नेवाले होते हैं, इसी प्रकार गृहस्थ (यह्वाः) = बड़े होकर [यातश्च हूतः च] प्रभु की ओर चलनेवाले व प्रभु को ही पुकारनेवाले होकर (वयाम्) = इस प्रजातन्तु सन्तानवाले आश्रम को (प्रउज्जिहानाः) = प्रकर्षेण छोड़ने की इच्छावाले होते हैं। नहीं छोड़ते तो जैसे पक्षी को उसी के माता-पिता चोचें मारकर निकाल देते हैं, उसी प्रकार यहाँ सन्तानें तङ्ग करके निकलने के लिए बाधित कर देती हैं। ४. अब वानप्रस्थ में निरन्तर स्वाध्याय से (प्रभानवः) = प्रकृष्ट ज्ञान- दीप्तिवाले बनकर (नाकम् अच्छ) = उस क्लेश लव से अपरामृष्ट, पूर्णानन्दमय रस नामवाले प्रभु की ओर (सिस्रते) = बढ़ चलते हैं [प्रसर्पन्ति - द०] । संन्यासी सब उत्तरदायित्वों से निपटकर भूतहित में प्रवृत्त हुआ हुआ प्रभु की ओर ही तो बढ़ रहा है।
भावार्थ
भावार्थ- जीवन के चार प्रयाण= पड़ाव हैं। प्रथम में ज्ञानदीप्त बनना है, द्वितीय में तृतीय में घर को छोड़ वनस्थ हो उस प्रभु की ओर चलना है, सभी का पालन करना है, उसी को पुकारना है और चतुर्थ में प्रकृष्ट दीप्तिवाले होकर प्रभु को पाना है।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत जशा दूध देणाऱ्या गाई, दूध वगैरे पदार्थांनी प्राण्यांना सुखी करतात व जसे आप्त विद्वान अविद्येचे निवारण करून विद्येने माणसांची उन्नती करतात तसाच हा अग्नी उन्नती करणारा आहे हे जाणा.
विषय
माणसाने कसे असावे (कसे वागावे), पुढील मंत्रात याविषयी प्रतिपादन केले आहे-
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, हा (अग्नि:) अग्नी समिधा) प्रज्वलित होणार्या काष्ठ आदी साधनांनी (अबोधि) उद्दीप्त होतो आणि प्रकाश देतो. हा अग्नी (आयतीम्) येत असलेल्या (वा उगवत असलेल्या) (उषासम्) प्रभातकाळाप्रमाणे (प्रति) (जनानाम्) माणसांकरिता (धेनुमिव) दूध देणार्या गायीप्रमाणे आहे. याच अग्नीचे (प्र) उत्कृष्ट (वयाम्) प्रभूत सुखदायक गुण (यह्वाइव) महान धार्मिक लोकांप्रमाणे आहेत (हा अग्नी धार्मिक उपकारी स्वभावाच्या माणसांप्रमाणे सर्वांना सुखी करणारा आहे) त्या अग्नीला (उज्जिहाना:) प्राप्त करीत (त्याच्यापासून लाभ घेत) (प्र) उत्तम (भानव:) किरणें (वाकम्) सुखाची (अच्छ) चांगल्याप्रकारे (सिस्रते) प्राप्ती करतात. (किरणें अग्नीपासूनच उष्णता ग्रहण करतात) त्या किरणाचा आणि अग्नीचा तुम्ही लोक आपल्या सुखासाठी उपयोग करा ॥24॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात उपमा आणि वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. ज्याप्रमाणे एक गाय दुग्ध आदी पदार्थ देऊन प्राण्यांना सुखी करते आणि जसे आप्त विदजजन विद्यादान करून अविद्येचे निवारण करतात आणि सर्वांची उन्नती करतात, हा अग्नीदेखील गौ आणि विद्वानांप्रमाणे सर्वांना सुखी करणारा आहे, असे सर्वांनी जाणून घ्यावे ॥24॥
इंग्लिश (3)
Meaning
With fuel the fire is kindled. Just as calf is pleased seeing the cow coming, so are people delighted by seeing the Dawn. Just as highly religious people fairly well resort to permanent devices of happiness, so do the rays wholly attain to heaven.
Meaning
The fire wakes up and rises by the samits (fuel) offered by the devotees, and, just as a restless calf runs to the mother cow coming in the twilight of the dawn (or evening), so do the flames eagerly rise to the heaven (emanating peace, prosperity and happiness).
Translation
At the approach of dawns, who come like cows, the sacred fire is kindled with fuel offered by men. Its radiant mighty flames rise up like stately trees throwing aloft their branches towards heaven. (1)
Notes
Abodhi, प्रतिबुध्यते, is aroused or awakened. Usasam prati, towards dawns, Agni, usds and sürya have more than material connotations in the veda. Usas, the dawn is the first light in the darkness, indi- cating the end of the night. It may be some hope, or some opening for a successful adventure. Agni is the tire, the energy and vigour and a yearning to achieve some noble goal. Invocation of agni at sacrifices is symbolic of awakening of that inner Fire. Dhenum iva dyatim, coming like a cow. Just as a calf is awakened at the approach of its coming mother even so the fire is aroused at the approach of dawns. Samidha jananam, with the fuel offered by men. What fuel? त इध्म आत्मा; this myself is your fuel, O Fire. This fuel has to be offered by men; only then the awakening of Fire can be expected. Mahidhara has translated it as : यह्वा महाँतो जातपक्षा: पक्षिणो वयां वृक्षशाखां प्रोंजिहाना प्रोद्गच्छंतो नाकं आकाशं प्रसरंति तद्वत्, just as grown up birds, leaving the branch of a tree soar up high in the sky, even so the rays or flames of fire rise towards heaven. Vayàm, वृक्षशाखां, branch of a tree. Bhanavah, अर्चीषि , flames, or rays.
बंगाली (1)
विषय
পুনঃ স কীদৃশো ভবেদিত্যাহ ॥
পুনঃ সে কেমন হইবে, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।
पदार्थ
পদার্থঃ– হে মনুষ্যগণ! যেমন (সমিধা) প্রজ্জ্বলিত করিবার সাধনগুলির দ্বারা এই (অগ্নিঃ) অগ্নি (অবোধি) প্রকাশিত হয়, (আয়তীম্) প্রাপ্ত হওয়া (উষাসম্) প্রভাত সময়ের (প্রতি) সমীপ (জনানাম্) মনুষ্যদিগের (ধেনুমিব) দুগ্ধদাত্রী গাভির সমান । যে অগ্নির (য়হ্বা ইব) মহান্ ধার্মিকগণের সমান (প্র) উৎকৃষ্ট (বয়াম্) ব্যাপক সুখের নীতিকে (উজ্জিহানাঃ) উত্তম প্রকার প্রাপ্ত করিয়া (প্র) উত্তম (ভানবঃ) কিরণ (ন্যকম্) সুখের (অচ্ছ) উত্তম প্রকার (মিস্রতে) প্রাপ্ত করে তাহাকে তোমরা সুখের জন্য সংযুক্ত কর ॥ ২৪ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে উপমা ও বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন দুগ্ধদাত্রী গাভি দুগ্ধাদি পদার্থ সকলের দ্বারা প্রাণিবর্গকে সুখী করে এবং সেইরূপ আপ্ত বিদ্বান্ বিদ্যাদান দ্বারা অবিদ্যার নিবারণ করিয়া মনুষ্যদিগকে উন্নতি করে সেইরূপ এই অগ্নি এমন জানিতে হইবে ॥ ২৪ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অবো॑ধ্য॒গ্নিঃ স॒মিধা॒ জনা॑নাং॒ প্রতি॑ ধে॒নুমিবায়॒তীমু॒ষাস॑ম্ ।
য়॒হ্বাऽই॑ব॒ প্র ব॒য়ামু॒জ্জিহা॑নাঃ॒ প্র ভা॒নবঃ॑ সিস্রতে॒ নাক॒মচ্ছ॑ ॥ ২৪ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অবোধীত্যস্য পরমেষ্ঠী ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । নিচৃৎ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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