यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 3
ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः
देवता - दम्पती देवते
छन्दः - ब्राह्मी त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
117
षो॒ड॒शी स्तोम॒ऽओजो॒ द्रवि॑णं चतुश्चत्वारि॒ꣳश स्तोमो॒ वर्चो॒ द्रवि॑णम्। अ॒ग्नेः पुरी॑षम॒स्यप्सो॒ नाम॒ तां॑ त्वा॒ विश्वे॑ऽअ॒भिगृ॑णन्तु दे॒वाः। स्तोम॑पृष्ठा घृ॒तव॑ती॒ह सी॑द प्र॒जाव॑द॒स्मे द्रवि॒णायज॑स्व॥३॥
स्वर सहित पद पाठषो॒ड॒शी। स्तोमः॑। ओजः॑। द्रवि॑णम्। च॒तु॒श्च॒त्वा॒रि॒ꣳश इति॑ चतुःऽच॒त्वा॒रि॒ꣳशः। स्तोमः॑। वर्चः॑। द्रवि॑णम्। अ॒ग्नेः। पुरी॑षम्। अ॒सि॒। अप्सः॑। नाम॑। ताम्। त्वा॒। विश्वे॑। अ॒भि। गृ॒ण॒न्तु॒। दे॒वाः। स्तोम॑पृ॒ष्ठेति॒ स्तोम॑ऽपृष्ठा। घृ॒तव॒ती॒ति॑ घृ॒तऽव॑ती। इ॒ह। सी॒द॒। प्र॒जाव॒दिति॑ प्र॒जाऽव॑त्। अ॒स्मे इत्य॒स्मे। द्रवि॒णा। य॒ज॒स्व॒ ॥३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
षोडशी स्तोमऽओजो द्रविणञ्चतुश्चत्वारिँश स्तोमो वर्चा द्रविणम् । अग्नेः पुरीषमस्यप्सो नाम तान्त्वा विश्वेऽअभि गृणन्तुदेवाः । स्तोमपृष्ठा घृतवतीह सीद प्रजावदस्मे द्रविणायजस्व ॥
स्वर रहित पद पाठ
षोडशी। स्तोमः। ओजः। द्रविणम्। चतुश्चत्वारिꣳश इति चतुःऽचत्वारिꣳशः। स्तोमः। वर्चः। द्रविणम्। अग्नेः। पुरीषम्। असि। अप्सः। नाम। ताम्। त्वा। विश्वे। अभि। गृणन्तु। देवाः। स्तोमपृष्ठेति स्तोमऽपृष्ठा। घृतवतीति घृतऽवती। इह। सीद। प्रजावदिति प्रजाऽवत्। अस्मे इत्यस्मे। द्रविणा। यजस्व॥३॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पतिपत्नीधर्म्ममाह॥
अन्वयः
यः षोडशी स्तोम ओजो द्रविणं यश्चतुश्चत्वारिंशः स्तोमो नाम वर्चो द्रविणं च ददाति, योऽग्नेः पुरीषं प्राप्तोऽप्सोऽसि, तं त्वा त्वां च विश्वे देवा अभिगृणन्तु। सा त्वं स्तोमपृष्ठा घृतवती सतीह गृहाश्रमे सीद, अस्मे प्रजावद् द्रविणा यजस्व॥३॥
पदार्थः
(षोडशी) प्रशस्ताः षोडश कलाः सन्ति यस्मिन् सः (स्तोमः) स्तोतुमर्हः (ओजः) पराक्रमः (द्रविणम्) धनम् (चतुश्चत्वारिंशः) एतत्संख्यापूरको ब्रह्मचर्यव्यवहारकरः (स्तोमः) स्तुवन्ति येन सः (वर्चः) अध्ययनम् (द्रविणम्) बलं वा (अग्नेः) पावकस्य (पुरीषम्) पूर्त्तिकरम् (असि) (अप्सः) न विद्यते परपदार्थस्याप्सो भक्षणं यस्य सः (नाम) प्रसिद्धम् (ताम्) (त्वा) त्वाम् (विश्वे) (अभि) (गृणन्तु) प्रशंसन्तु (देवाः) विद्वांसः (स्तोमपृष्ठा) स्तोमाः पृष्ठा ज्ञापयितुमिष्टा यस्याः सा (घृतवती) प्रशस्ताज्यादियुक्ता (इह) गृहाश्रमे (सीद) (प्रजावत्) बह्व्यः प्रजा यस्मात् तत् (अस्मे) अस्मभ्यम् (द्रविणा) द्रविणं धनम्। अत्र सुपां सुलुगित्याकारदेशः (यजस्व) देहि॥३॥
भावार्थः
मनुष्यैः षोडशकलात्मके जगति विद्याबलं विस्तार्य्य गृहाश्रमं कृत्वा विद्यादानादीनि कर्माणि सततं कार्य्याणि॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
अब स्त्री-पुरुष का धर्म अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
जो (षोडशी) प्रशंसित सोलह कलाओं से युक्त (स्तोमः) स्तुति के योग्य (ओजः) पराक्रम (द्रविणम्) धन को जो (चतुश्चत्वारिंशः) चवालीस संख्या को पूर्ण करने वाला ब्रह्मचर्य का आचरण (स्तोमः) स्तुति का साधन (नाम) प्रसिद्ध (वर्चः) पढ़ना और (द्रविणम्) बल को देती है, जो (अग्नेः) अग्नि की (पुरीषम्) पूर्त्ति को प्राप्त (अप्सः) दूसरे के पदार्थों के भोग की इच्छा से रहित (असि) हो, उस (त्वा) पुरुष तथा (ताम्) स्त्री की (विश्वे) सब (देवाः) विद्वान् लोग (अभिगृणन्तु) प्रशंसा करें सो तू (स्तोमपृष्ठा) इष्ट स्तुतियों को जानने वाली (घृतवती) प्रशंसित घी आदि पदार्थों से युक्त (इह) इस गृहाश्रम में (सीद) स्थित हो और (अस्मे) हमारे लिये (प्रजावत्) बहुत सन्तानों के हेतु (द्रविणा) धन को (यजस्व) दिया कर॥३॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि सोलह कला रूप जगत् में विद्यारूप बल को फैला और गृहाश्रम कर के विद्यादानादि कर्मों को निरन्तर किया करें॥३॥
विषय
सुव्यवस्थित राष्ट्र और उत्तम राजा का स्वरूप ।
भावार्थ
( षोडषी स्तोमः ) षोडशी स्तोम अर्थात् १६ कलाओं या वीर्य, बल या अधिकारों से युक्त 'स्तोम' पद ( ओजः द्रविणम् ) पराक्रम। और धनैश्वर्य करता है। हे राष्ट्रशक्ते ! वह तेरा एक स्वरूप है । दूसरा ( चत्वारिंशः स्तोमः । ४४ वीर्यों या अधिकारों या अधिकारियों से युक्त स्तोमः, पद भी ( वर्च ) तेज और ( द्रविणम् ) ऐश्वर्य प्रदान करता है वह तेरा दूसरा स्वरूप है । हे राज्य शक्ते ! तू ( अग्नेः ) अग्रणी शत्रु संतापक राजा के बल को ( पुरीषम् ) पूर्ण करने वाला समृद्ध ऐश्वर्य है । तेरा (नाम ) स्वरूप ( अप्सः ) 'अप्स' है अर्थात् तेरे भीतर रहकर एक आदमी दूसरे का जान माल और अधिकार को नहीं खाता है। (त्वा) तेरा ही ( विश्वेदेवा: ) समस्त विद्वान् ( अभिगृणन्तु ) स्तुति करें । हे पृथिवि ! तू ( स्तोमपृष्ठा ) समस्त अधिकारों, बलों और वीर्यवान् पुरुषों का आश्रय होकर ( घृतवती ) तेजस्विनी होकर ( इह सीद ) इस भूतल पर विराज, स्थिर हो । ( अस्मे ) हमें ( प्रजावद द्रविणा ) प्रजाओं से युक्त ऐश्वर्यों का ( यजस्व ) प्रदान कर।
टिप्पणी
दम्पती देवते । द० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
असपत्नकृद् अग्निर्देवता । ब्राह्मी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
विषय
दम्पती
पदार्थ
१. गत मन्त्रों के अनुसार शत्रुओं को दूर करके मनुष्य अपने जीवन में 'प्राण, श्रद्धा, आकाश, वायु, ज्योति:, जल, पृथिवी, इन्द्रिय, मन, अन्न, वीर्य, तप, मन्त्र, कर्म, लोक व नाम [नम्रता] ' इन सोलह कलाओं को विकसित करके षोडशी - सोलह कलाओंवाला बने । यह सोलह कलाओंवाला बनना ही (स्तोमः) = उसका स्तवन है। इस प्रकार वह प्रभु की स्तुति कर रहा होता है। इस क्रियात्मक प्रभु स्तुति से (ओजः द्रविणम्) = ओजरूप धन प्राप्त होता है, यह स्तोता ओजस्वी बनता है। २. (चतुः चत्वारिंशः) = चवालीस संख्या को पूर्ण करनेवाला ब्रह्मचर्य का आचरण ही इसका (स्तोमः) = स्तुतिसमूह हो जाता है। इस प्रकार ब्रह्मचर्यपूर्वक निवास से 'चारों अङ्गों में चवालीस वर्षों तक होनेवाली सम्पूर्णता का सम्पादन' सच्चा स्तवन है। इससे (वर्चः द्रविणम्) = अध्ययनरूप सम्पत्ति प्राप्त होती है। ३. एवं पति ने ओजस्वी व वर्चस्वी बनना है। इस प्रकार बनना ही उसका सच्चा प्रभु-स्तवन है। ४. अब पत्नी के लिए कहते हैं कि (अग्नेः पुरीषं असि) = तू इस प्रगतिशील पति की पूर्तिकरी है [पृ= पूरण], पति के कार्य का पूरण करनेवाली है। पति-पत्नी से मिलकर ही घर की व्यवस्था पूर्ण होती है। पति कमाता है तो पत्नी उसका सद्व्यय करती हुई उस धन की रक्षा करती है। एवं, गृहस्थ में पत्नी पति के साथ मिलाकर क़दम रखती है। ५. (अप्सः नाम) = [प्सा भक्षणे] [न विद्यते परपदार्थभक्षणं यस्य - द०] तू कभी पराये पदार्थ का सेवन करने का विचार नहीं करती, इसी बात में तेरी प्रसिद्धि है। 'आत्मना भुजमश्नुताम्' इस वेदसन्देश का ,ध्यान करते हुए तू स्वयं पुरुषार्थ से भोजन को जुटाना ही ठीक समझती है। ६. (तां त्वा) = उस तुझे (विश्वेदेवाः) = सब समझदार लोग (अभिगृणन्तु) - सामने व पीछे प्रशंसित ही करते हैं। तेरा व्यवहार तेरी प्रशंसा का कारण बनता है। ७. (स्तोमपृष्ठा) = [वीरजननम् = स्तोमः पृष्ठे यस्याः] = वीर सन्तानों को जन्म देने का तेरा दायित्व है। तूने 'वीरसूः' ही बनना है । ८. (घृतवती) = शरीर से मलों के क्षरणवाली और मल निराकरण से पूर्ण स्वास्थ्य का सम्पादन करनेवाली तथा मस्तिष्क में ज्ञान की दीप्तिवाली तू इह = इस घर में सीद विराज । ९. इस प्रकार इस घर में निवास करती हुई तू अस्मे हमारे लिए प्रजावत् द्रविणा उत्तम सन्तानरूप धनों को यजस्व सङ्गत करानेवाली हो, अर्थात् तेरे साथ इस गृहस्थ की मंज़िल को पूर्ण करते हुए हम उत्तम सन्तानों को प्राप्त करनेवाले बनें।
भावार्थ
भावार्थ- पति ओजस्वी व वर्चस्वी हो। पत्नी पति की पूरिका, किसी के आगे फैलानेवाली तथा वीर सन्तानों को जन्म देने के व्रतवाली, स्वस्थ्य व ज्ञान- दीप्त हो
मराठी (2)
भावार्थ
सोळा कलांनी युक्त असलेल्या या जगात विद्यारूपी बलाचा विस्तार करून माणसांनी गृहस्थाश्रमाचा स्वीकार करावा व विद्यादान इत्यादी कर्म सतत करावे.
विषय
पुढील मंत्रात स्त्री-पुरुषांच्या कर्त्तव्य-कर्मांविषयी सांगितले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - जो षोडश (सोडा) कलांनी (चंद्राच्या अमृता, आदी सोळा कला अथवा अनेकानेक सुगुणांनी युक्त) आहे, (स्तोम:) जो प्रशंसनीय (ओज:) पराक्रमाने आणि (द्रविणम्) धनाने युक्त आहे, आणि (चतुश्चत्वारिंश:) चवेचाळीस वर्षापर्यंत ब्रह्मचर्य धारण करून गृहस्थी झाल्यामुळे (ओम:) समाजात ज्याची स्तुती केली जाते (जो प्रख्यात व नामवंत पुरुष आहे) जो (वर्च:) अध्ययन करतो आणि (द्रविणम्) धनसंपत्तीचा दाता आहे, जो (अग्ने:) अग्नीच्या संपूर्ण उपयोगांना जाणतो (वा जाणते) (अप्स:) दुसर्यांच्या पदार्थांप्रत ज्याची लालसा नाही, जो असा (असि) आहे (त्वा) त्या पुरुषाची आणि (ताय्) त्या स्त्रीची (विश्वे) (देवा:) सर्व विद्वज्जनांनी) (अभिगृणन्तु) अवश्य प्रशंसा करावी. (अशी गुणवती हे स्त्री) तू (स्तोमपृष्ठा) या स्तुतीसाठी सर्वदा पात्र हो (धृतवती) तूप आदी पौष्टिक पदार्थांचे सेवन सर्वथा पात्र हो (धृतवती) तूप आदी पौष्टिक पदार्थांचे सेवन वा संग्रह करून (इह) या गृहाश्रमामधे (सीद) शांतपणे स्थित रहा आणि (अस्मे) आमच्यासाठी (प्रजावत्) आणि अनेक संततीसाठी (द्रविणा) धम देणारी होऊन (यजस्व) (विद्या-बल-धर्मादींचे) दान करीत जा.) समाजातील अशा गुणवती सर्व स्त्रियांनी सर्व समाजजनांसाठी विद्या, बल, धन आदी देत जावे) ॥3॥
भावार्थ
भावार्थ - मनुष्यांसाठी उचित आहे की सोळा कलामय या जगात विद्यारुप शक्तीचा प्रसार करावा आणि गृहस्थाश्रमी होऊन विद्यादान आदी सत्कर्म सदैव करीत जावे ॥3॥
इंग्लिश (3)
Meaning
She, the master of sixteen arts, worthy of praise, grants strength and wealth, laudable celibacy of forty-four years, learning and power. She has acquired the completion of sacrificial fire. She is free from covetousness for the wealth of others. All learned people should praise her. Enriched with songs of praise and butter, stay thou in this domestic life, and give us wealth with store of children.
Meaning
Gentle lord of the home, and charming lady of the house far from greed and grabbing, generously cooperative with the rejuvenating forces of nature, you are dedicated and loyal servants of Agni. May all the generous saints and scholars appreciate and praise you for your noble work. Dedicated to hymns of divinity and yajna, generous in prosperity and charity, settle in this sweet home. Give us the wealth of life and the gift of a blessed family.
Translation
The sixteen times repeated praise verse; vigour the wealth. (1) The forty-four times repeated praise-verse; lustre the wealth. (2) You, O lady, are the best content of the fire divine, the very sap of it. May all the enlightened ones praise you in every respect. Eager for praises and liberal in offering melted butter, settle down here in the house and get us riches as well as children. (3)
Notes
Sodasi stoma ojo dravinam, if one recites the sixteen-versed praise hymn, the reward is vigour. Varcah, तेज: lustre; brilliance. Purisam, पूरयित्री, filler. Or, complement; best content. Compare Yajuh, XIV. 4. Apsah,रस; juice; sap.
बंगाली (1)
विषय
অথ পতিপত্নীধর্ম্মমাহ ॥
এখন স্ত্রী পুরুষের ধর্ম পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- যে (ষোডশী) প্রশংসিত ষোল কলাযুক্ত (স্তোমঃ) স্তুতিযোগ্য (ওজঃ) পরাক্রম (দ্রবিণম্) ধন যাহা (চতুশ্চত্বারিংশঃ) চুয়াল্লিশ সংখ্যাকে পূর্ণকারী ব্রহ্মচর্য্যের আচরণ (স্তোমঃ) স্তুতির সাধন (নাম) প্রসিদ্ধ (বর্চঃ) পড়া এবং (দ্রবিণম্) বলকে প্রদান করে, যে (অগ্নেঃ) অগ্নির (পুরীষম্) পূর্ত্তি প্রাপ্ত (অপ্সঃ) অন্যের পদার্থের ভোগেচ্ছা রহিত (অসি) হয় সেই (ত্বা) পুরুষ তথা (তান্) স্ত্রীকে (বিশ্বে) সমস্ত (দেবাঃ) বিদ্বান্গণ (অভিগৃনন্তু) প্রশংসা করে সুতরাং তুমি (স্তোমপৃষ্ঠা) ইষ্ট স্তুতিসকলের জ্ঞাত্রী (ঘৃতবর্তী) প্রশংসিত ঘৃতাদি পদার্থযুক্ত (ইহ) এই গৃহাশ্রমে (সীদ) স্থিত হও এবং (অস্মে) আমাদের জন্য (প্রজাবৎ) বহু সন্তানদিগের হেতু (দ্রবিণা) ধনকে (য়জস্ব) প্রদান করিতে থাকিবে ॥ ৩ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগের উচিত যে, ষোল কলা রূপ জগতে বিদ্যারূপ বলের বিস্তার কর এবং গৃহাশ্রম করিয়া বিদ্যাদানাদি কর্ম্মকে নিরন্তর করিতে থাকিবে ॥ ৩ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
ষো॒ড॒শী স্তোম॒ऽওজো॒ দ্রবি॑ণং চতুশ্চত্বারি॒ꣳশ স্তোমো॒ বর্চো॒ দ্রবি॑ণম্ ।
অ॒গ্নেঃ পুরী॑ষম॒স্যপ্সো॒ নাম॒ তাং॑ ত্বা॒ বিশ্বে॑ऽঅ॒ভিগৃ॑ণন্তু দে॒বাঃ ।
স্তোম॑পৃষ্ঠা ঘৃ॒তব॑তী॒হ সী॑দ প্র॒জাব॑দ॒স্মে দ্রবি॒ণা য়॑জস্ব ॥ ৩ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ষোডশীত্যস্য পরমেষ্ঠী ঋষিঃ । দম্পতী দেবতে । ব্রাহ্মী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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