यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 11
ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः
देवता - रुद्रा देवताः
छन्दः - भुरिग्ब्राह्मी त्रिष्टुप्, ब्राह्मी बृहती
स्वरः - धैवतः, मध्यमः
121
वि॒राड॑सि॒ दक्षि॑णा॒ दिग्रु॒द्रास्ते॑ दे॒वाऽअधि॑पतय॒ऽइन्द्रो॑ हेती॒नां प्र॑तिध॒र्त्ता प॑ञ्चद॒शस्त्वा॒ स्तोमः॑ पृथि॒व्या श्र॑यतु॒ प्रऽउ॑गमु॒क्थमव्य॑थायै स्तभ्नातु बृ॒हत्साम॒ प्रति॑ष्ठित्याऽअ॒न्तरि॑क्ष॒ऽऋष॑यस्त्वा प्रथम॒जा दे॒वेषु॑ दि॒वो मात्र॑या वरि॒म्णा प्र॑थन्तु विध॒र्त्ता चा॒यमधि॑पतिश्च॒ ते त्वा॒ सर्वे॑ संविदा॒ना नाक॑स्य पृ॒ष्ठे स्व॒र्गे लो॒के यज॑मानं च सादयन्तु॥११॥
स्वर सहित पद पाठवि॒राडिति॑ वि॒ऽराट्। अ॒सि॒। दक्षि॑णा। दिक्। रु॒द्राः। ते॒। दे॒वाः। अधि॑पतय॒ इत्यधि॑ऽपतयः। इन्द्रः॑। हे॒ती॒नाम्। प्र॒ति॒ध॒र्त्तेति॑ प्रतिऽध॒र्त्ता। प॒ञ्च॒द॒श इति॑ पञ्चऽद॒शः। त्वा॒। स्तोमः॑। पृ॒थि॒व्याम्। श्र॒य॒तु॒। प्रऽउ॑गम्। उ॒क्थम्। अव्य॑थायै। स्त॒भ्ना॒तु॒। बृ॒हत्। साम॑। प्रति॑ष्ठित्यै। प्रतिस्थित्या॒ इति॒ प्रति॑ऽस्थित्यै। अ॒न्तरि॑क्षे। ऋ॑षयः। त्वा॒। प्र॒थ॒म॒जा इति प्रथम॒ऽजाः। दे॒वेषु॑। दि॒वः। मात्र॑या। व॒रि॒म्णा। प्र॒थ॒न्तु॒। वि॒ध॒र्त्तेति॑ विऽध॒र्त्ता। च॒। अ॒यम्। अधि॑पति॒रित्यधि॑ऽपतिः। च॒। ते। त्वा॒। सर्वे॑। सं॒वि॒दा॒ना इति॑ सम्ऽविदा॒नाः। नाक॑स्य। पृ॒ष्ठे। स्व॒र्ग इति॑ स्वः॒ऽगे। लो॒के। यज॑मानम्। च॒। सा॒द॒य॒न्तु॒ ॥११ ॥
स्वर रहित मन्त्र
विराडसि दक्षिणा दिग्रुद्रास्ते देवाऽअधिपतय इन्द्रो हेतीनाम्प्रतिधर्ता पञ्चदशस्त्वा स्तोमः पृथिव्याँ श्रयतु प्रऽउगमुक्थमव्यथायै स्तभ्नातु बृहत्साम प्रतिष्ठित्याऽअन्तरिक्षऽऋषयस्त्वा प्रथमजा देवेषु दिवो मात्रया वरिम्णा प्रथन्तु विधर्ता चायमधिपतिश्च ते त्वा सर्वे सँविदाता नाकस्य पृष्ठे स्वर्गे लोके यजमानञ्च सादयन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठ
विराडिति विऽराट्। असि। दक्षिणा। दिक्। रुद्राः। ते। देवाः। अधिपतय इत्यधिऽपतयः। इन्द्रः। हेतीनाम् । प्रतिधर्त्तेति प्रतिऽधर्त्ता। पञ्चदश इति पञ्चऽदशः। त्वा। स्तोमः। पृथिव्याम्। श्रयतु। प्रऽउगम्। उक्थम्। अव्यथायै। स्तभ्नातु। बृहत्। साम। प्रतिष्ठित्यै। प्रतिस्थित्या इति प्रतिऽस्थित्यै। अन्तरिक्षे। ऋषयः। त्वा। प्रथमजा इति प्रथमऽजाः। देवेषु। दिवः। मात्रया। वरिम्णा। प्रथन्तु। विधर्त्तेति विऽधर्त्ता। च। अयम्। अधिपतिरित्यधिऽपतिः। च। ते। त्वा। सर्वे। संविदाना इति सम्ऽविदानाः। नाकस्य। पृष्ठे। स्वर्ग इति स्वःऽगे। लोके। यजमानम्। च। सादयन्तु॥११॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स्त्रीपुरुषाः किं कुर्युरित्याह॥
अन्वयः
हे स्त्रि! या त्वं विराड् दक्षिणा दिगिवासि यस्यास्ते पतौ रुद्रा देवा अधिपतय इव हेतीनां प्रतिधर्त्ता पञ्चदशः स्तोम इन्द्रस्त्वा पृथिव्यां श्रयत्वव्यथायै प्रउगमुक्थं स्तभ्नातु प्रतिष्ठित्यै बृहत्साम च स्थिरीकरोतु यथा चान्तरिक्षे देवेषु प्रथमजा ऋषयो दिवो मात्रया वरिम्णा सह वर्तन्ते तथा विद्वांसस्त्वा प्रथन्तु। यथा विधर्त्ता पोषकश्चाऽयमधिपतिस्त्वा पुष्णातु तथा संविदाना विद्वांसस्ते सर्वे नाकस्य पृष्ठे स्वर्गे लोके त्वां यजमानं च सादयन्तु॥११॥
पदार्थः
(विराट्) विविधैः पदार्थै राजमाना (असि) अस्ति (दक्षिणा) (दिक्) काष्ठा (रुद्राः) बलवन्तो वायवः (ते) अस्याः (देवाः) मोदकाः (अधिपतयः) उपरिष्टात् पालकाः (इन्द्रः) सूर्यः (हेतीनाम्) वज्राणाम् (प्रतिधर्ता) (पञ्चदशः) पञ्चदशानां पूरकः (त्वा) त्वाम् (स्तोमः) स्तुवन्ति येन स ऋचां भागः (पृथिव्याम्) भूमौ (श्रयतु) सेवताम् (प्रउगम्) प्रयोगार्हम् (उक्थम्) उपदेष्टुं योग्यम् (अव्यथायै) अविद्यमानमानसभयायै (स्तभ्नातु) स्थिरीकरोतु (बृहत्) महदर्थम् (साम) (प्रतिष्ठित्यै) प्रतिष्ठायै (अन्तरिक्षे) आकाशे (ऋषयः) ज्ञापकाः प्राणाः (त्वा) (प्रथमजाः) आदौ विद्वांसो जाताः (देवेषु) कमनीयेषु पदार्थेषु (दिवः) द्योतनकर्मणोऽग्नेः (मात्रया) भागेन (वरिम्णा) बहोर्भावेन (प्रथन्तु) अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम् (विधर्त्ता) विविधाकर्षणेन पृथिव्यादिधारकः (च) (अयम्) (अधिपतिः) द्योतकानामधिष्ठाता (च) (ते) (त्वा) (सर्वे) (संविदानाः) सम्यग् विचारशीला (नाकस्य) अविद्यमानदुःखस्याकाशस्य (पृष्ठे) सेचके भागे (स्वर्गे) सुखकारके (लोके) विज्ञातव्ये (यजमानम्) एतद्विद्यादातारम् (च) (सादयन्तु) स्थापयन्तु॥११॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्वांसो वायुभिः सह वर्त्तमानं सूर्य्यं तद्विद्याविज्ञापकं विद्वांसं च समाश्रित्यैतद्विद्यां विज्ञापयन्ति तथा स्त्रीपुरुषा ब्रह्मचर्य्येण विद्वांसो भूत्वाऽन्यानध्यापयन्तु॥११॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर स्त्री पुरुषों को क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे स्त्रि! जो तू (विराट्) विविध पदार्थों से प्रकाशमान (दक्षिणा) (दिक्) दक्षिण दिशा के तुल्य (असि) है, जिस (ते) तेरा पति (रुद्राः) वायु (देवाः) दिव्य गुण युक्त वायु (अधिपतयः) अधिष्ठाताओं के समान (हेतीनाम्) वज्रों का (प्रतिधर्त्ता) निश्चय के साथ धारण करने वाला (पञ्चदशः) पन्द्रह संख्या का पूरक (स्तोमः) स्तुति का साधक ऋचाओं के अर्थों का भागी और (इन्द्रः) सूर्य्य (त्वा) तुझ को (पृथिव्याम्) पृथिवी में (श्रयतु) सेवन करे। (अव्यथायै) मानस भय से रहित तेरे लिये (प्रउगम्) कथनीय (उक्थम्) उपदेश के योग्य वचन को (स्तभ्नातु) स्थिर करे तथा (प्रतिष्ठित्यै) प्रतिष्ठा के लिये (बृहत्) बहुत अर्थ से युक्त (साम) सामवेद को स्थिर करे, (च) और जैसे (अन्तरिक्षे) आकाशस्थ (देवेषु) कमनीय पदार्थों में (प्रथमजाः) पहिले हुए (ऋषयः) ज्ञान के हेतु प्राण (दिवः) प्रकाशकारक अग्नि के (मात्रया) लेश और (वरिम्णा) बहुत्व के साथ वर्त्तमान हैं, वैसे विद्वान् लोग (त्वा) तुझ को (प्रथन्तु) प्रसिद्ध करें, जैसे (विधर्त्ता) विविध प्रकार के आकर्षण से पृथिवी आदि लोकों का धारण (च) तथा पोषण करने वाला (अधिपतिः) सब प्रकाशक पदार्थों में उत्तम सूर्य (त्वा) तुझ को पुष्ट करे, वैसे (संविदानाः) सम्यक् विचारशील विद्वान् लोग हैं (ते) वे (सर्वे) सब (नाकस्य) दुःखरहित आकाश के (पृष्ठे) सेचक भाग में (स्वर्गे) सुखकारक (लोके) जानने योग्य देश में (त्वा) तुझ को (च) और (यजमानम्) यज्ञविद्या के जानने हारे पुरुष को (सादयन्तु) स्थापित करें॥११॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् लोग वायु के साथ वर्त्तमान सूर्य को और सूर्य वायु की विद्या को जानने वाले विद्वान् का आश्रय करके इस विद्या को जनावें, वैसे स्त्री-पुरुष ब्रह्मचर्य के साथ विद्वान् होके दूसरों को पढ़ावें॥११॥
भावार्थ
( दक्षिणा दिग्) दक्षिण दिशा जिस प्रकार सूर्य के प्रखर ताप से बहुत अधिक उज्ज्वल होती है उसी प्रकार हे राजशक्ते ! तू ( विराड् असि ) विराट् है, तू विशेष तेज और विविध ऐश्वर्यों से शोभा युक्त है ( रुद्राः देवाः ते अधिपतयः ) रुद्र शत्रुओं को रुलाने में समर्थ, एवं शरीर में प्राणों के समान जीवनोपयोगी द्रव्यों को और बलकारी पदार्थों को ।रोक लेने में समर्थ रुद्रगण तेरे अधिपति है। (हेतीनां प्रतिधर्त्ता ) इन्द्र शस्त्रास्त्रों का धारक है । ( पञ्चदश: स्तोमः त्वा पृथिव्यां श्रयतु ) शरीर में जिस प्रकार दश इन्द्रिय, पञ्च प्राण अथवा हाथों की दश अंगुलियें और २ पैर और २ बाहु, और आत्मा या शिर १५ वां, ये शरीर को धारण करते हैं उसी प्रकार राष्ट्र के रक्षक और धारक १५ विभाग तुझको पृथिवी पर स्थिर रखें (ये) पीड़ा कष्ट न होने देने के लिये ( प्रउगम् उक्थम् ) नाना अधिकारियों की उत्कृष्ट योजना या उत्तम २ पुरुषों की उत्तम २ पदों पर स्थापना रूप उक्थ अर्थात् अम्युदय का कार्य या बल राष्ट्र का ( स्तभ्नातु ) थामे रहे । ( प्रतिष्ठित्या ) प्रतिष्ठा के लिये ( बृहत्साम) बृहत्साम या महान बल सामर्थ्य हो ( अन्तरिक्ष ऋषयः ) इत्यादि पूर्ववत् । शत० ८।६।१। ६॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋष्यादि पूर्ववत् ।
विषय
विराट् [गृहपत्नी ]
पदार्थ
१. हे पत्नि ! विराट् असि जीवन को विशिष्टरूप से व्यवस्थित करने के कारण तू विशेषरूप से चमकनेवाली है २. (दक्षिणा दिक्) = दाक्षिण्य का उपदेश देनेवाली यह दक्षिणा तेरी दिशा है । ३. (ते देवाः रुद्राः) = ये रुद्र तेरे देव हैं। प्राणशक्ति को स्थिरता देनेवाले ये रुद्र देव ही (अधिपतयः) = तेरी आधिक्येन रक्षा करनेवाले हैं । ४. (इन्द्रः) = ऐश्वर्य को कमानेवाला, इन्द्रियों का विजेता यह पति हेतीनां प्रतिधर्ता घर पर पड़नेवाले घातक अस्त्रों का प्रतीकार करनेवाला है। ५. पाँचों ज्ञानेन्द्रियों, पाँचों कर्मेन्द्रियों व पाँचों प्राणों का यह (पञ्चदशः स्तोमः) = पन्द्रहवाला समूह (त्वा) = तुझे (पृथिव्यां श्रयतु) = इस शरीर में उत्तमता से आश्रय देनेवाला हो । ६. आज्यादि उत्तम वस्तुओं का उक्थम् प्रशंसनीय (प्रउगम्) = प्रयोग (अव्यथायै स्तभ्नातु) = किसी प्रकार की पीड़ा न होने देने के लिए तुझे थामे, दृढ़ करे। प्रत्येक वस्तु का यथायोग शरीर को बिल्कुल ठीक-ठाक रखता है। ७. बृहत्साम - निरन्तर वृद्धि की भावनारूप प्रभु - स्तवन (अन्तरिक्षे) = हृदयान्तरिक्ष में (प्रतिष्ठित्यै) = दृढ़ स्थिति के लिए हो, अर्थात् तू हृदय में 'वृद्धि' का ही संकल्प धारण कर। इस संकल्प को ही तू अपना प्रभु-स्तवन समझ। ८. (देवेषु) = विद्वानों में (प्रथमजाः ऋषयः) = प्रथम कोटि में होनेवाले तत्त्वद्रष्टा ज्ञानी (दिवो मात्रया) = ज्ञान के उस अंश से तथा (वरिम्णा) = हृदय की विशालता से (प्रथन्तु) = तेरे जीवन को प्रसिद्ध करें। तेरा जीवन मस्तिष्क में ज्ञान व हृदय में विशालता की कीर्तिवाला हो। ९. (विधर्त्ता) = आपत्तियों का प्रतीकार करनेवाला तेरा पति 'इन्द्र', (च अयं अधिपतिः) = और ये अधिष्ठातृरूपेण रक्षक प्राण (ते च सर्वे) = और ज्ञान देनेवाले वे सारे ऋषि (संविदाना:) = ऐकमत्यवाले होकर (त्वा) = तुझे (यजमानं च) = और इस घर के यज्ञशील गृहपति को (नाकस्य पृष्ठे) = दुःखाभाववाले लोक के ऊपर (स्वर्गे लोके) = प्रकाशमय लोक में (सादयन्तु) स्थापित करें, अर्थात् तुम्हारे गृहस्थ को दुःखरहित प्रकाशमय स्वर्ग-सा बना दें।
भावार्थ
भावार्थ -पत्नी व्यवस्थित व दीप्त जीवनवाली हो। गृहकार्यों में बड़ी दक्षिण व निपुण हो, प्राणशक्ति सम्पन्न हो । उसकी ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ व प्राण सभी स्वस्थ हों । उत्तम वस्तुओं का वह प्रशंसनीय प्रयोग करनेवाली हो। 'वृद्धि' को जीवन का सूत्र बनाकर चले। पति 'इन्द्र' हो, ऐश्वर्यशाली व जितेन्द्रिय। घर को स्वर्ग बनाने के लिए यह सब आवश्यक है।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. वायू व सूर्य या संबंधीची विद्या जाणणाऱ्या विद्वानाकडून जसे दुसरे विद्वान लोक ती विद्या जाणतात त्याप्रमाणे स्त्री-पुरुषांनी ब्रह्मचर्य पालनाने विद्वान बनून इतरांनाही ती विद्या शिकवावी.
विषय
पुनश्च, पुढील मंत्रात स्त्री-पुरुषांच्या कर्तव्यकर्मांविषयी सांगितले आहे-
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (गृहस्वामिनीला उद्देशून एक विद्वान तिला आशीर्वाद देत स्तुती करीत आहे) हे स्त्री, तू (विराट्) विविध पदार्थांनी प्रकाशमान (समृद्धिशाली) असलेल्या (दक्षिणा) (विक्) दक्षिण दिशेप्रमाणे (समृद्ध वा कीर्तिवंत) (असि) आहेस यामुळे (ते) तुझा पती, आणि (रुद्रा:) वायू (देवा:) दिव्यगुणयुक्त वायू, या सर्वांनी (अधिपतय:) अधिष्ठाता अथवा तुझे स्वामी (याप्रमाणे तुला अनुकूल रहावे) (हेतीनाम्) वज्र आदी अस्त्र (प्रतिधर्त्ता) धारण करणारा (राजा) तसेच (पंचदश:) पंधरा रीतीने (स्तोम्:) स्तुती करणारा व ऋचांचे अर्थ जाणणारा (विद्वान) आणि (इन्द्र:) सूर्य, या सर्वांनी (त्वा) तुला (पृत्रथव्याम्) या पृथ्वीवर (श्रयतु) सेवन करावे (तुझा पती, वायू, क्षत्रिय, ब्राह्मण अथवा राजा व विद्वान आणि सूर्य, हे सर्व तुला अनुकूल असावेत) तुझ्या पतीने (अन्यधामै) मानसिक भयापासून मुक्त राहण्यासाठी तुला (प्रठगम्) कथनीय (उस्थम्) हितकारक वचन (स्तभ्नातु) सांगावेत तसेच (प्रतिष्ठित्यै) तुला सम्माननीय करण्यासाठी (बृहत्) पुष्कल अर्थयुक्त अशा (साम) सामवेदाचा उपदेश द्यावा. याशिवाय ज्याप्रमाणे (अन्दरिक्षे) आकाशस्थ (देवेषु) सुंदर पदार्थांमध्ये (प्रथमजा:) प्रथम उत्पन्न झालेले (ऋषय:) ज्ञानाचे कारण म्हणजे प्राण, म्हणजे वायू आणि (दिव्य:) प्रकाशयुक्त अग्नीचे अस्तित्व (वरिम्णा) बहुलतेने विद्यमान आहेत (आकाशातील वायू आणि अग्नी जगाच्या वा प्राण्यांच्या अस्तित्वाचे कारण आहेत) या वायू आणि अग्नीप्रमाणे विद्वज्जनांनी (त्वा) तुला (प्रथन्तु) प्रशंसित करावे. (विधर्ता) विविध प्रकारच्या आकर्षणाने जसा सूर्य पृथ्वी आदी लोकांना धारण करीत आहे (व) आणि जगाचे पोषण करीत आहे, तो सर्व प्रकाशक पदार्थांमध्ये श्रेष्ठ सूर्य (त्वा) तुला पुष्ट करावे (सूर्यामुळे तू नवजीवन व चैतन्य प्राप्त करीत रहा.) तसेच (संविदाना:) जे सम्यक् विचारशील विद्वान आहेत (ते) त्या (सर्वे) सर्वांनी (माकस्य) दु:खरहित आकाशाखाली (ज्यामध्ये कोणत्याप्रकारचा दाह, उष्णत्व किंवा शैत्य नाही) अशा शांत आकाशाली (स्वर्गे) सुखकर अशा (लोके) प्रदेश वा स्थानात (त्वा) तुला (च) आणि (यजमानम्) यज्ञविद्या जाणणार्या मनुष्याला (सादयन्तु) स्थापित करावे (तू शांत आकाशाखाली, स्वच्छ भूमीवर यज्ञिकजनांसह नेहमी यज्ञ करावा.) ॥11॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. ज्याप्रमाणे विद्वान लोकांनी वायू आणि सूर्य यांच्याविषयीची स्वतंत्र विद्या त्यांच्या पेक्षा अधिक विद्वानांकडून जाणून घ्यावी आणि वायू व सूर्य दोन्हीची मिळून जी विद्या, तीही अधिक मिळावावी, त्याचप्रमाणे स्त्री-पुरुषांनी ब्रह्मचर्य धारण करून विद्यावान व्हावे आणि इतरांनाही ती विद्या शिकवावी. ॥11॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O woman thou art like the bright South. Eleven Rudras (airs) are thy protectors. Thy husband, the wielder of arms and weapons, the knower of the meanings of vedic verses in fifteen ways, and the sun serve thee on earth. He, being fearless of man, preaches unto thee firmly the narratable and instructible words. For stability he recites the significant verses of the Sama Veda. The aged, learned persons, the significant plenteous airs in beautiful objects in the atmosphere, and the particles of blazing fire make thee renowned. The sustainer and nourisher of the Earth through attraction, the sun, the foremost amongst the brilliant objects, strengthens thee. May all the learned persons, unanimously establish thee and thy husband in a happy place in the space, where there is plenty of water.
Meaning
You are the reigning lady of light like the South direction. All the Rudra powers of love and justice are your divine protectors. Indra, lord of power and the thunderbolt, keeps off your adversaries. May the Panchadasha (fifteen part) stoma of Rks settle you on the earth. May the Pre-uga Uktha hymns firmly secure you against fear and disturbance. May the Brihat-Sama hymns and karma extend your honour to the skies. May the foremost Rshis, saints and scholars spread your honour and fame with the measure of your heavenly excellence among the noblest people. May this lord of yours and the Lord sustainer of the world and all those powers who know, together in unison, establish you and the yajamana on the heights of the heavenly regions of bliss.
Translation
You are virat (great ruler); the region is southern; Rudras (winds of mid-space) are your overlord Nature's bounties. Indra (resplendent Lord) is your warder off of the hostile weapons. Мау the pancadasa (of fifteen verses) praise-song help to establish you on the earth. May the pra uga (second morning) litany keep you firm against slipping. May the brhat ѕаmаn (chant) establish you securely in the mid-space. May the seers, foremost among the enlightened ones, extol you to the greatness of the heaven. May this sustainer and overlord of yours and all the others, with one mind, place you as well as the sacrificer on the top of the sorrowless abode in the world of light. (1)
Notes
In this and the following four verses the wife of the sacrificer is addressed and praised as the queen, the empress etc. of the five quarters. In each quarter there are different overlords, different warders off of hostile weapons, different praise hymns, ukthas and samans. Quarter Status Overlord Protector Stoma Uktha Saman Prici Queen Vasus Аgni Тrivrita — Aryam Rathantara Daksinà Virit Rudras Indra Раncadаsа Prauga Brhat Pratici Samrat Adityas Varuna Saptadasa Marutvatiyam Vairüpam Udici — Svarit Marts Soma § Ekviinsa Niskevalyam Vairajam Вай — AdhipatniViévedevah Brhaspatih Tripava — Vaivadeva — Sákvara (Urdhva) and and and Trayastimsa agnipimla гайда
बंगाली (1)
विषय
পুনঃ স্ত্রীপুরুষাঃ কিং কুর্য়ুরিত্যাহ ॥
পুনঃ স্ত্রী পুরুষদিগকে কী করা উচিত, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে স্ত্রী ! যে তুমি (বিরাট) বিবিধ প্রদার্থ দ্বারা প্রকাশমান (দক্ষিণা) (দিক্) দক্ষিণ দিকের তুল্য (অসি) হও, যে (তে) তোমার পতি (রুদ্রাঃ) বায়ু (দেবাঃ) দিব্য গুণযুক্ত বায়ু (অধিপতয়ঃ) অধিষ্ঠাতাদিগের সমান, (হেতীনাম্) বজ্রের (প্রতিধর্ত্তা) নিশ্চয় সহ ধারণকারী (পঞ্চদশঃ) পনের সংখ্যার পূরক (স্তোমঃ) স্তুতির সাধক ঋচাসকলের অর্থের ভাগী এবং (ইন্দ্রঃ) সূর্য্য (ত্বা) তোমাকে (পৃথিব্যাম্) পৃথিবী মধ্যে (শ্রয়তু) সেবন করুক (অব্যথায়ৈ) মানসভয় হইতে রহিত তোমার জন্য (প্রউগম) কথনীয় (উক্থম্) উপদেশের যোগ্য বচনকে (স্তভ্নাতু) স্থির করুক তথা (প্রতিষ্ঠিত্যৈ) প্রতিষ্ঠার জন্য (বৃহৎ) বহু অর্থযুক্ত (সাম) সামবেদকে স্থির করুক (চ) এবং যেমন (অন্তরিক্ষে) আকাশস্থ (দেবেষু) কমনীয় পদার্থগুলিতে (প্রথমজাঃ) প্রথম জাত (ঋষয়ঃ) জ্ঞানের হেতু প্রাণ (দিবঃ) প্রকাশকারক অগ্নির (মাত্রয়া) লেশ এবং (বরিম্ণা) বহুত্বের সঙ্গে বর্ত্তমান সেইরূপ বিদ্বান্গণ (ত্বা) তোমাকে (প্রথন্তু) প্রসিদ্ধ করুক, যেমন (বিধর্ত্তা) বিবিধ প্রকারের আকর্ষণ দ্বারা পৃথিবী আদি লোকান্তরের ধারণ (চ) তথা পোষণকারী (অধিপতিঃ) সকল প্রকাশক পদার্থসকলে উত্তম সূর্য্য (ত্বা) তোমাকে পুষ্ট করুক সেইরূপ (সংবিদানাঃ) সম্যক্ বিচারশীল বিদ্বান্গণ আছেন (তে) তাঁহারা (সর্বে) সকল (নাকস্য) দুঃখরহিত আকাশের (পৃষ্ঠে) সেচক অংশে (স্বর্গে) সুখকারক (লোকে) জানিবার যোগ্য দেশে (ত্বা) তোমাকে (চ) এবং (য়জমানম্) যজ্ঞবিদ্যার জ্ঞাতা পুরুষকে (সাদয়ন্তু) স্থাপিত করুক ॥ ১১ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন বিদ্বান্গণ বায়ু সহ বর্ত্তমান সূর্য্যকে এবং সূর্য্য বায়ুর বিদ্যার জ্ঞাতা বিদ্বানের আশ্রয় করিয়া এই বিদ্যাকে জানাইবেন, সেইরূপ স্ত্রী পুরুষ ব্রহ্মচর্য্য সহ বিদ্বান্ হইয়া অন্যকে পড়াইবেন ॥ ১১ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
বি॒রাড॑সি॒ দক্ষি॑ণা॒ দিগ্র॒ুদ্রাস্তে॑ দে॒বাऽঅধি॑পতয়॒ऽইন্দ্রো॑ হেতী॒নাং প্র॑তিধ॒র্ত্তা প॑ঞ্চদ॒শস্ত্বা॒ স্তোমঃ॑ পৃথি॒ব্যাᳬं শ্র॑য়তু॒ প্রऽউ॑গমু॒ক্থমব্য॑থায়ৈ স্তভ্নাতু বৃ॒হৎসাম॒ প্রতি॑ষ্ঠিত্যাऽঅ॒ন্তরি॑ক্ষ॒ऽঋষ॑য়স্ত্বা প্রথম॒জা দে॒বেষু॑ দি॒বো মাত্র॑য়া বরি॒ম্ণা প্র॑থন্তু বিধ॒র্ত্তা চা॒য়মধি॑পতিশ্চ॒ তে ত্বা॒ সর্বে॑ সংবিদা॒না নাক॑স্য পৃ॒ষ্ঠে স্ব॒র্গে লো॒কে য়জ॑মানং চ সাদয়ন্তু ॥ ১১ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
বিরাডসীত্যস্য পরমেষ্ঠী ঋষিঃ । রুদ্রা দেবতাঃ । পূর্বস্য ভুরিগ্ব্রাহ্মী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ । ধৈবতঃ স্বরঃ । প্রথমজা ইত্যুত্তরস্য ব্রাহ্মী বৃহতী ছন্দঃ ।
মধ্যমঃ স্বরঃ ॥
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