Loading...
यजुर्वेद अध्याय - 15

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 41
    ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृत्पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
    122

    अ॒ग्निं तं म॑न्ये॒ यो वसु॒रस्तं॒ यं य॑न्ति धे॒नवः॑। अस्त॒मर्व॑न्तऽआ॒शवोऽस्तं॒ नित्या॑सो वा॒जिन॒ऽइष॑ꣳस्तो॒तृभ्य॒ऽआ भ॑र॥४१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निम्। तम्। म॒न्ये॒। यः। वसुः॑। अस्त॑म्। यम्। यन्ति॑। धे॒नवः॑। अस्त॑म्। अर्व॑न्तः। आ॒शवः॑। अस्त॑म्। नित्या॑सः। वा॒जिनः॑। इष॑म्। स्तो॒तृभ्य॒ इति॑ स्तो॒तृऽभ्यः॑। आ। भ॒र॒ ॥४१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निन्तम्मन्ये यो वसुरस्तँयँयन्ति धेनवः । अस्तमर्वन्त आशवो स्तन्नित्यासो वाजिन इष स्तोतृभ्यऽआ भर ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निम्। तम्। मन्ये। यः। वसुः। अस्तम्। यम्। यन्ित। धेनवः। अस्तम्। अर्वन्तः। आशवः। अस्तम्। नित्यासः। वाजिनः। इषम्। स्तोतृभ्य इति स्तोतृऽभ्यः। आ। भर॥४१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 41
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स किं कुर्य्यादित्याह॥

    अन्वयः

    हे विद्वन्! यो वसुरस्ति यमग्निं धेनवोऽस्तं यन्तीव, नित्यासो वाजिन आशवोऽर्वन्तोऽस्तमिवाहं तं मन्ये। स्तोतृभ्य इषमाभरामि तथैव त्वं तमग्निमस्तं मन्यस्वेषं चाभर॥४१॥

    पदार्थः

    (अग्निम्) (तम्) पूर्वोक्तम् (मन्ये) (यः) (वसुः) सर्वत्र निवस्ता (अस्तम्) गृहम् (यम्) (यन्ति) गच्छन्ति (धेनवः) गावः (अस्तम्) गृहम् (अर्वन्तः) अश्वाः (आशवः) आशुगामिनः (अस्तम्) (नित्यासः) कारणरूपेणाविनाशिनः (वाजिनः) वेगवन्तः (इषम्) अन्नादिकम् (स्तोतृभ्यः) स्तावकेभ्यः विद्वद्भ्यः (आभर)॥४१॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। विद्यार्थिनः प्रत्यध्यापक एवं वदेद् यथाऽहमाचरेयं तथा यूयमप्याचरत यथा गवादयः पशवः इतस्ततो दिने भ्रान्त्वा सायं स्वगृहं प्राप्य मोदन्ते, तथैव विद्यागृहं प्राप्य यूयमपि मोदध्वम्॥४१॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह क्या करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे विद्वान् पुरुष! (यः) जो (वसुः) सर्वत्र रहने वाला अग्नि है, (यम्) जिस (अग्निम्) वाणी के समान अग्नि को (धेनवः) गौ (अस्तम्) घर को (यन्ति) जाती हैं तथा जैसे (नित्यासः) कारणरूप से विनाशरहित (वाजिनः) वेग वाले (आशवः) शीघ्रगामी (अर्वन्तः) घोड़े (अस्तम्) घर को प्राप्त होते हैं, वैसे मैं (तम्) उस पूर्वोक्त अग्नि को (मन्ये) मानता हूं और (स्तोतृभ्यः) स्तुतिकारक विद्वानों के लिये (इषम्) अच्छे अन्नादि पदार्थों को धारण करता हूं, वैसे ही तू उस अग्नि को (अस्तम्) आश्रय मान और अन्नादि पदार्थों को (आभर) धारण कर॥४१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। अध्यापक लोग विद्यार्थियों के प्रति ऐसा कहें कि जैसे हम लोग आचरण करें, वैसे तुम भी करो। जैसे गौ आदि पशु दिन में इधर उधर भ्रमण कर सायङ्काल अपने घर आके प्रसन्न होते हैं, वैसे विद्या के स्थान को प्राप्त होके तुम भी प्रसन्न हुआ करो॥४१॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सर्वाश्रय राजा का कर्तव्य।

    भावार्थ

    ( यः ) जो ( वसुः ) गृहस्थ के समान व प्रजाओं का बसाने हारा है और (यं ) जिसके पास ( धेनवः ) दुधार गौवें और उनके सन्मान समृद्ध प्रजाएं (अस्तम् यन्ति ) घर के समान शरण समझ कर प्राप्त हों और ( आशवः ) शीघ्र गमनकारी ( अर्वन्तः ) अश्व और अश्वा- रोहीगण ( अस्तं यन्ति ) जिसको अपना गृह समझ कर शरण होते हैं । और ( वाजिनः ) वेगवान् या ऐश्वर्यवान् ( नित्यासः ) नित्य, सदा स्थायी रूप से रहने वाले गृहस्थ पुरुष ( ये अस्तं यन्ति ) जिसको अपना घर सा शरण जान कर प्राप्त होते हैं मैं तो ( तं अग्निम् मन्ये) उस सब के अग्रणी नेता बलवान् पुरुष को 'अग्नि' शब्द से कहाने योग्य मानता और जानता हूं। ऐसे गुणों से युक्त सर्वाश्रय हे अग्ने ! राजन् ! तू (स्तोतृभ्यः) सत्य गुणों के प्रकाशक विद्वानों को ( इषम् ) अन्न आदि ऐश्वर्य ( आभर ) प्राप्त करा, प्रदान कर।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुमारवृषावृषी अग्निर्देवता | निचृत् पंक्तिः । पञ्चमः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अग्निः अस्तम्

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र के अनुसार कामादि का पराजय करके (यः) = जो (वसुः) = शरीर में अपने निवास को उत्तम बनाता है, अर्थात् शरीर को व्याधियों से शून्य और मन को आधियों से रहित करता है (तम्) = उसी वसु को (अग्निं मन्ये) = मैं अग्नि मानता हूँ, उसी को उन्नतिशील कहता हूँ। प्रभु की दृष्टि में अग्नि वही है जो (आधि) = व्याधिशून्य जीवनवाला है। २. ये 'अग्नि' जिन घरों में उत्पन्न होते हैं, उन घरों का लक्षण करते हुए कहते हैं कि (अस्तम्) = मैं घर उसी को कहता हूँ (यम्) = जिसकी ओर (धेनवः) = गौवें (यन्ति) = आती हैं। गृहसूक्त के शब्द स्मरणीय हैं कि 'आ धनेवः सायमास्पन्दमानाः' घरों में सायंकाल उछलती-कूदती गौवें आएँ। ३. (अस्तम्) = घर उसे मानता हूँ जिसमें (आशवः) = शीघ्रता से मार्गों के व्यापनेवाले (अर्वन्तः) = घोड़े यन्ति जाते हैं। घरों में गौवे हों, घोड़े हों। गौवें सात्त्विकता की वृद्धि का कारण बनती हैं तो घोड़े शक्ति की वृद्धि में साधन बनते हैं । ४. (अस्तम्) = घर वह है जिसमें (नित्यासः वाजिनः) = स्थिर शक्ति देनेवाले अन्न प्राप्त होते हैं। [नि=in, त्य= होनेवाले, अर्थात् स्थिर पौष्टिक, वाज - शक्ति] ५. हे प्रभो ! आप (स्तोतृभ्यः) = स्तोताओं के लिए (इषम्) = प्रेरणा (आभर) = प्राप्त कराइए, जिससे वे स्तोता मन्त्र- वर्णित घर को ही बनानेवाले हों और उन घरों में 'अग्नि' बनने का प्रयत्न करें।

    भावार्थ

    भावार्थ - घर वही है, जिसमें १. दुधारू गौवें आती हैं। २. तीव्र गतिवाले घोड़े आते हैं, और ३. सदा यज्ञ की वृत्तिवाले लोग आते हैं। इन घरों में रहनेवाला अग्नि-उन्नतिशील पुरुष वही है जिसने अपने को पूर्ण स्वस्थ बनाकर उत्तमता से निवास किया है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. अध्यापकांनी विद्यार्थ्यांना असे सांगावे की, जसे आम्ही वागतो तसे तुम्हीही वागा. गाई इत्यादी पशू जसे दिवसभर इकडे तिकडे भटकून सायंकाळी आपल्या घरी आल्यावर आनंदित होतात तसे विद्यागृही तुम्हीही आनंदाने राहा.

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    पुनश्च, त्या विद्वानांनी काय करावे, याविषयी-

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (अध्यापक विद्यार्थ्याप्रत) हे विद्यार्थी शिष्या, (य:) जो (वसु:) सर्वत्र राहणारा (असणारा) अग्नी आहे, त्यास मी मानतो, योग्य ते महत्त्व देतो) ज्याप्रमाणे (धेनव:) गायी (अस्तम्) आपल्या घराकडे (यन्ति) जातात आणि (नित्यास:) कारणारूपाने अविनाशी असलेले (वाजिन:) वेगवान् (आशव:) अति वेगवान (अर्वन्त:) घोडे (अस्तम्) आपल्या घराकडे जातात, (तेवढ्या वेगाने वा तीव्रतेने) मी (तम्) त्या अग्नीला (मन्ये) महत्त्व देतो (यम्) ज्या (अग्निम्) अग्नीला (गायी आणि घोडीं आपल्या घराकडे जाण्यासाठी आतुर असतात, तेवढ्या आतुरतेने मी अग्नीकडे जातो, म्हणजे त्यास महत्त्वपूर्ण मानतो. तसेच (स्तोतृभ्य:) स्तुतिकारक विद्वानांसाठी मी (इषम्) अन्न आदी आवश्यक पदार्थ धारण करतो (विद्वानांसाठी मी (इषम्) अन्न आदी आवश्यक पदार्थ धारण करतो (विद्वानांच्या निवास भोजनादीची व्यवस्था करतो) त्याप्रमाणे, हे शिष्या, तू देखील त्या अग्नीला (आभर) धारण कर (त्याचे उचित उपयोग जाणून घे) ॥41॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. अध्यापकजनांनी आपल्या विद्यार्थ्यांना असे सांगितले पाहिजे की आम्ही तुमचे अध्यापक ज्याप्रमाणे आचरण करू, तुम्ही देखील तसेच श्रेष्ठ आचरण करीत जा. जसे गौ आदी पाळीव पशू दिवसा इकडे-तिकडे फिरून सायंकाळी त्यांच्या घरी येतात आणि आनंदित होतात, तसे तुम्ही विद्यार्थ्यांनी देखील विद्यालयाकडे (गुरुकुलाकडे) येताना आनंदित व्हायला पाहिजे ॥41॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O learned person, I value the omnipresent fire, led by which the kine go to their home. The fleet-foot, steady and active steeds seek the indestructible fire, as their home. I bring food to the learned who sing thy glory. So shouldst thou realise that fire.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    I know the Agni that is the hearth and home of existence. Homeward go the cows. The fastest coursers betake to home. The hero, the chariot, the feathered eagle, the stallion, all go home to rest without fail, all by nature. That is the home for me. That same Agni, mother of the home for all, is the ultimate haven. Mother mine, keep for the yajnic children food for life, energy for action, and light for the life divine.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    I glorify that adorable Lord, who provides habitations, gives shelter to milch-kine and the fleet-footed coursers. The constant offerers of homage also seek him. May you, O Lord, grant nourishment to those, who adore you. (1)

    Notes

    Manye,जाने, I know; I respect or praise or glorify; I recognize or consider. Vasuḥ,धनं वासयिता वा, wealth, or one who provides house or shelter. Astam, Te, to the house. Dhenavah, दुग्धवती गौः धेनु:, milch kine. Arvantaḥ, horses. Vājinaḥ, coursers.

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (1)

    विषय

    পুনঃ স কিং কুর্য়্যাদিত্যাহ ॥
    পুনঃ সে কী করিবে এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে বিদ্বান্ পুরুষঃ! (য়ঃ) যে (বসুঃ) সর্বত্র বিদ্যমান অগ্নি (য়ম্) যে (অগ্নিম্) বাণীর সমান অগ্নিকে প্রাপ্ত হইয়া (ধেনবঃ) গাভি (অস্তম্) গৃহে (য়ন্তি) যায় তথা যেমন (নিত্যাসঃ) কারণরূপে বিনাশ রহিত (বাজিনঃ) গতি সম্পন্ন (আশবঃ) শীঘ্রগামী (অর্বন্তঃ) অশ্ব (অস্তম্) গৃহকে প্রাপ্ত হয় সেইরূপ আমি (তম্) সেই পূর্বোক্ত অগ্নি কে (মন্যে) মানি এবং (স্তোতৃভ্যঃ) স্তুতিকারক বিদ্বান্দিগের জন্য (ইষম্) উত্তম অন্নাদি পদার্থসকলকে ধারণ করি, সেইরূপ তুমি সেই অগ্নিকে (অস্তম্) আশ্রয় স্বীকার কর এবং অন্নাদি পদার্থ সকলকে (আভর) ধারণ কর ॥ ৪১ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । অধ্যাপকগণ বিদ্যার্থীগণের প্রতি এমন বলিবেন যে, যেমন আমরা আচরণ করি সেইরূপ তোমরাও কর । যেমন গবাদি পশু দিনে ইতস্ততঃ ভ্রমণ করিয়া সায়ংকালে নিজ গৃহে আসিয়া প্রসন্ন হয়, সেইরূপ বিদ্যার স্থান প্রাপ্ত হইয়া তোমরাও প্রসন্ন হও ॥ ৪১ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অ॒গ্নিং তং ম॑ন্যে॒ য়ো বসু॒রস্তং॒ য়ং য়ন্তি॑ ধে॒নবঃ॑ । অস্ত॒মর্ব॑ন্তऽআ॒শবোऽস্তং॒ নিত্যা॑সো বা॒জিন॒ऽইষ॑ꣳস্তো॒তৃভ্য॒ऽআ ভ॑র ॥ ৪১ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অগ্নি তমিত্যস্য পরমেষ্ঠী ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । নিচৃৎপংক্তিশ্ছন্দঃ ।
    পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top