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यजुर्वेद अध्याय - 15

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  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 61
    ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    इन्द्रं॒ विश्वा॑ऽअवीवृधन्त्समु॒द्रव्य॑चसं॒ गिरः॑। र॒थीत॑मꣳ र॒थीनां॒ वाजा॑ना॒ सत्प॑तिं॒ पति॑म्॥६१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑म्। विश्वाः॑। अ॒वी॒वृ॒ध॒न्। स॒मु॒द्रव्य॑चस॒मितिं॑ समु॒द्रऽव्य॑चसम्। गिरः॑। र॒थीत॑मम्। र॒थित॑म॒मिति॑ र॒थिऽत॑मम्। र॒थीना॑म्। र॒थिना॒मितिं॑ र॒थिऽना॑म्। वाजा॑नाम्। सत्प॑ति॒मिति॒ सत्ऽप॑तिम्। पति॑म् ॥६१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रँविश्वाऽअवीवृधन्त्समुद्रव्यचसङ्गिरः रथीतमँ रथीनाँवाजानाँसत्पतिम्पतिम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रम्। विश्वाः। अवीवृधन्। समुद्रव्यचसमितिं समुद्रऽव्यचसम्। गिरः। रथीतमम्। रथितममिति रथिऽतमम्। रथीनाम्। रथिनामितिं रथिऽनाम्। वाजानाम्। सत्पतिमिति सत्ऽपतिम्। पतिम्॥६१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 61
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    विश्वा गिरः समुद्रव्यचसं रथीनां रथीतमं वाजानां सत्पतिं प्रजानां पतिमिन्द्रमवीवृधन्॥६१॥

    पदार्थः

    (इन्द्रम्) परमैश्वर्ययुक्तं सभेशम् (विश्वाः) अखिलाः (अवीवृधन्) वर्धयन्तु (समुद्रव्यचसम्) समुद्रस्यान्तरिक्षस्य व्यचो व्याप्तिर्यस्य तम् (गिरः) विद्यासुशिक्षान्विता वाण्यः (रथीतमम्) अतिशयितो रथी। अत्र ईद्रथिनः॥ (अष्टा॰८।२।१७) इति वार्तिकेन ईकारादेशः (रथीनाम्) शूरवीराणां मध्ये अत्र अन्येषामपि॰ [अ॰६.३.१३७] इति दीर्घः (वाजानाम्) विज्ञानवताम् (सत्पतिम्) सतां व्यवहाराणां विदुषां वा पालकम् (पतिम्) स्वामिनम्। [अयं मन्त्रः शत॰८.७.३.७ व्याख्यातः]॥६१॥

    भावार्थः

    राजप्रजाजना राजधर्मयुक्तमीश्वरमिव वर्त्तमानं न्यायाधीशं सभापतिं सततं प्रोत्साहयन्तु। एवं सभापतिरेताँश्च॥६१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    (विश्वाः) सब (गिरः) विद्या और शिक्षा से युक्त वाणी (समुद्रव्यचसम्) आकाश के तुल्य व्याप्तिवाले (रथीनाम्) शूरवीरों में (रथीतमम्) उत्तम शूरवीर (वाजानाम्) विज्ञानी पुरुषों के (सत्पतिम्) सत्यव्यवहारों और विद्वानों के रक्षक तथा प्रजाओं के (पतिम्) स्वामी (इन्द्रम्) परमसम्पत्तियुक्त सभापति राजा को (अवीवृधन्) बढ़ावें॥

    भावार्थ

    राजा और प्रजा के जन राजधर्म से युक्त ईश्वर के समान वर्त्तमान न्यायाधीश सभापति को निरन्तर उत्साह देवें, ऐसे ही सभापति इन प्रजा और राजा के पुरुषों को भी उत्साही करें॥६१॥

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    विषय

    राजा के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    व्याख्या देखो ( अ० १२ ।म० ५६ ) शत० ८।७।२।१-१९॥८।७।३।८ ॥

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    विषय

    इन्द्र-वर्धन

    पदार्थ

    १. पिछले मन्त्र में 'प्रियमेधा' ने अपने ज्ञान का वर्धन किया। उस ज्ञान-वर्धन के प्रसङ्ग में उसे अनुभव हुआ कि ये (विश्वाः गिरः) = सब वेदवाणियाँ (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली, सर्वशक्तिमान् प्रभु का ही (अवीवृधन्) = वर्धन करती हैं। अन्ततोगत्वा सब वाणियाँ उस प्रभु में ही स्थित होती हैं। इस ब्रह्माण्ड के पदार्थों के वर्णन में भी उस कर्त्ता की रचना की कुशलता का उल्लेख होता है। २. उस प्रभु का ये वाणियाँ वर्णन करती हैं जो (समुद्रव्यचसम्) = [समुद्र] आनन्दमय तथा विस्तारवाले हैं। वस्तुतः विस्तार में ही आनन्द है- 'यो वै भूमा तत्सुखम् ' - विशालता ही सुख है। संकुचितता में निरानन्दता है। ३. उस प्रभु का वर्णन करती हैं जो (रथीतमं रथीनाम्) = रथवाहकों में सर्वोत्तम रथवाहक हैं। हम भी अपने शरीररूप रथ का वाहक उस प्रभु को बनाएँगे तो यात्रा को अवश्य निर्विघ्नरूप से पूरा कर पाएँगे। ४. वे प्रभु (वाजानाम्) = सब शक्तियों के पतिम् पति हैं- सब शक्तियों के स्वामी हैं। उनके सम्पर्क में आकर मन्त्र का ऋषि 'मधुच्छन्दा' भी शक्तियों का पति बनता है । ५. वे प्रभु (सत्पतिम्) = सज्जनों के रक्षक हैं। सज्जन बनकर ही हम प्रभु की रक्षा के पात्र बन सकते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ–'मधुच्छन्दा' प्रभु का स्मरण 'इन्द्र,समुद्रव्यचस्, रथीतम, वाजपति व सत्पति' इन शब्दों से करता हुआ चाहता है कि वह भी शक्तिमान् व ऐश्वर्यशाली बने, आनन्दमय व उदार हो, अपने शरीररूप रथ का सारथि उस प्रभु को बना पाये, शक्तियों का पति बनकर अपने में सत्य को प्रतिष्ठित करे।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    राजा व प्रजा यांनी राजधर्माने युक्त व्हावे व ईश्वराप्रमाणे वागणाऱ्या न्यायाधीश राजाला सदैव उत्साहित करावे, तसेच राजानेही प्रजेला व राजपुरुषांना उत्साहित करावे.

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    विषय

    पुढील मंत्रातही तोच विषय (गृहाश्रमाची कर्तव्ये) विशद केला आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ : (विश्वा:) (गिर:) विद्या आणि सुशिक्षा युक्त वाणी असलेल्या (विद्वान आणि सुजाण सर्व नागरिकांनी) (समुद्रव्यचसम्) आकाशाप्रमाणे (विशाल राज्य असलेल्या आपल्या राजाचा आपल्या उत्साहपूर्ण वाणीने उत्साह वाढवावा) (रथीनाम्) शूरांमध्ये (रथीतमम्) सर्वोत्तम शूरवीराला (वाजानाम्) ज्ञानी-विज्ञाननी पुरुषांच्या (सत्यतिम्) सत्य व्यवहारांचा, विद्वानांचा आणि प्रजाजनांचा (पतिम्) रक्षक असलेल्या (इन्द्रम्) परमसंपत्तिशाली सभाध्यक्ष राजाला (विद्वान, सुजाण नागरिकांनी प्रशंसामय वचनांनी) (अवीवृधन्) उत्साहित करावे. ॥61॥

    भावार्थ

    भावार्थ - राज पुरुषांनी आणि प्रजाजनांनी राजधर्माचे पालन करणार्‍या, ईश्वराप्रमाणे न्याय व शासन करणार्‍या सभापती राजाला नेहमी प्रोत्साहन देत राहावे. त्याप्रमाणे सभाध्यक्ष राजाचेही कर्तव्य आहे की त्याने राजपुरुषांचा आणि प्रजेचा उत्साह वाढवावा. ॥61॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    May all sacred songs coupled with knowledge and learning, magnify the king, full of wealth, protector of the doings of the learned, and master of the people, most valiant among the valorous, extensive in fame like the sky.

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    Meaning

    May all the voices exhort and strengthen Indra, leader and president of the land, great and deep as the ocean, bravest of the brave warriors in the battles of progress, promoter of truth and goodness, and protector of life and the human nation.

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    Translation

    All our praises magnify God, who is as vast as the ocean, and the most valiant leader of warriors to conquer evil forces and who is the protector of the virtuous. (1)

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ–(বিশ্বাঃ) সমগ্র (গিরঃ) বিদ্যা ও শিক্ষা দ্বারা যুক্ত বাণী (সমুদ্রব্যচসম্) আকাশতুল্য ব্যাপ্তিযুক্ত (রথীনাম্) শূর-বীরদিগের মধ্যে (রথীতমম্) উত্তম শূরবীর (বাজানাম্) বিজ্ঞানী পুরুষদিগের (সৎপতিম্) সত্য ব্যবহার এবং বিদ্বান্দিগের রক্ষক তথা প্রজাসকলের (পতিম্) স্বামী (ইন্দ্রম্) পরম সম্পত্তিযুক্ত সভাপতি রাজাকে (অবীবৃধন্) বৃদ্ধি করাইবে ॥ ৬১ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–রাজা ও প্রজাগণ রাজ কর্মযুক্ত ঈশ্বরের সমান বর্ত্তমান ন্যায়াধীশ সভাপতিকে নিরন্তর উৎসাহ দিবেন, এমনই সভাপতি এই সব প্রজা ও রাজা পুরুষদিগকে উৎসাহ প্রদান করিবে ॥ ৬১ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ইন্দ্রং॒ বিশ্বা॑ऽঅবীবৃধন্ৎসমু॒দ্রব্য॑চসং॒ গিরঃ॑ ।
    র॒থীত॑মꣳ র॒থীনাং॒ বাজা॑না॒ᳬं সৎপ॑তিং॒ পতি॑ম্ ॥ ৬১ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ইন্দ্রং বিশ্বা ইত্যস্য মধুচ্ছন্দা ঋষিঃ । ইন্দ্রো দেবতা । নিচৃদনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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