यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 23
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - द्यौरित्यादयो देवताः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
1
अदि॑ति॒र्द्यौरदितिर॒न्तरि॑क्ष॒मदि॑तिर्मा॒ता स पि॒ता स पु॒त्रः।विश्वे॑ दे॒वाऽअदि॑तिः॒ पञ्च॒ जना॒ऽअदि॑तिर्जा॒तमदि॑ति॒र्जनि॑त्वम्॥२३॥
स्वर सहित पद पाठअदि॑तिः। द्यौः। अदि॑तिः। अ॒न्तरि॑क्षम्। अदि॑तिः। मा॒ता। सः। पि॒ता। सः। पु॒त्रः। विश्वे॑। दे॒वाः। अदि॑तिः। पञ्च॑। जनाः॑। अदि॑तिः। जा॒तम्। अदि॑तिः। जनि॑त्व॒मिति॒ जनि॑ऽत्वम् ॥२३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अदितिर्द्यारदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता स पिता स पुत्रः । विश्वे देवाऽअदितिः पञ्च जनाऽअदितिर्जातमदितिर्जनित्वम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
अदितिः। द्यौः। अदितिः। अन्तरिक्षम्। अदितिः। माता। सः। पिता। सः। पुत्रः। विश्वे। देवाः। अदितिः। पञ्च। जनाः। अदितिः। जातम्। अदितिः। जनित्वमिति जनिऽत्वम्॥२३॥
विषय - अदिति के ९ प्रकार ।
भावार्थ -
( द्यौः) आकाश और सूर्यादि कारणरूप तेज (अदिति) कभी खंडित या टुकड़े-टुकड़े या विनष्ट नहीं होता । ( अन्तरिक्षम् ) अन्तरिक्ष भी (अदिति:) अविनाशी, अक्षय है । (माता) जगत् की निर्माण करने वाली प्रकृति भी (अदितिः) कभी नष्ट नहीं होती । (सः पिता) वह सबका पालक परमेश्वर और (सः पुत्रः ) वह पुत्र, पुरुषदेह का पालक ये भी (अदिति) कभी नाशशील नहीं हैं । (विश्वेदेवाः अदिति:) सब दिव्य पदार्थ या मूल तत्व को अपने गुण इस नाशवान् पदार्थों को प्रदान कर रहे हैं वे भी नाश न होने वाले हैं । (पञ्चजनाः) पांच उत्पन्न होने वाले तत्व भी (अदिति) विनष्ट होने वाले नहीं हैं । (जातम् अदितिः) उन पांचों भूतों के सूक्ष्म परमाणुओं से उत्पन्न हुआ यह जगत् भी (अदिति) कारण रूप से या प्रवाह से नाशवान् नहीं है, नित्य है । और ( जनित्वम् ) जो आगे पैदा है वह भी सत् कारण रूप से विनष्ट नहीं होता ।
राजा के पक्ष में- (द्यौः) राजसभा, ( अन्तरिक्षम् ) सर्वोपरि रक्षक राजा, (माता) राजा को बचाने वाली प्रजा, (सः पिता) वह पालक राजा और पुत्र के समान (सः) वही राजा पृथिवी का पुत्र है । समस्त विद्वान् लोग और (पञ्चजनाः) पांचों जन, चार वर्ण और पांचवां वर्ण बाह्य, ( जातम् ) नव उत्पन्न सन्तान और ( जनित्वम् ) अगली उत्पन्न होने वाली सन्तान ये सब (अदिति) पृथिवी या अखण्ड राष्ट्र का रूप हैं और ये सब (अदितिः) अदीन, दीनतारहित या प्रवाह से नाश न होने वाली हों । पञ्चम वर्ण में उस व्यवसाय के लोग हैं जो सर्वसाधारण के स्वास्थ्य की दृष्टि से अपने व्यवसाय के पदार्थ नगर की सीमा से बाहर रखते हैं, और वे इसी कारण भी नगर से बाहर रहते हैं । वे दीन या नीच नहीं प्रत्युत वे भी आदरणीय हैं ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - प्रजापतिः । द्यौरित्यादयः । त्रिष्टुप् धैवतः ॥
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