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  • यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 29
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    यू॒प॒व्र॒स्काऽउ॒त ये यू॑पवा॒हाश्च॒षालं॒ येऽअ॑श्वयू॒पाय॒ तक्ष॑ति। ये चार्व॑ते॒ पच॑नꣳ स॒म्भर॑न्त्यु॒तो तेषा॑म॒भिगू॑र्त्तिर्नऽइन्वतु॥२९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यू॒प॒व्र॒स्का ति॑ यूपऽव्र॒स्काः। उ॒त। ये। यू॒प॒वा॒हा इति॑ यूपऽवा॒हाः। च॒षाल॑म्। ये। अ॒श्व॒यू॒पायेति॑ अश्वऽयू॒पाय॑। तक्ष॑ति। ये। च॒। अर्व॑ते। पच॑नम्। स॒म्भर॒न्तीति॑ स॒म्ऽभर॑न्ति। उ॒तोऽइत्यु॒तो। तेषा॑म्। अ॒भिगू॑र्त्ति॒रित्य॒भिऽगू॑र्त्तिः। नः॒। इ॒न्व॒तु॒ ॥२९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यूपव्रस्काऽउत ये यूपवाहाश्चषालँयेऽअश्वयूपाय तक्षति । ये चार्वते पचनँ सम्भरन्त्युतो तेषामभिगूर्तिर्न इन्वतु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यूपव्रस्का ति यूपऽव्रस्काः। उत। ये। यूपवाहा इति यूपऽवाहाः। चषालम्। ये। अश्वयूपायेति अश्वऽयूपाय। तक्षति। ये। च। अर्वते। पचनम्। सम्भरन्तीति सम्ऽभरन्ति। उतोऽइत्युतो। तेषाम्। अभिगूर्त्तिरित्यभिऽगूर्त्तिः। नः। इन्वतु॥२९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 25; मन्त्र » 29
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    भावार्थ -
    (ये) जो पुरुष (यूपव्रस्का:) यज्ञ के यूप को गढ़ने वालों के समान शत्रुओं के विनाश करने वाले राजा या उसके बल अधिकारों कों बनाते हैं- (उत) और (ये) जो (यूपवाहाः) उस शत्रुनाशक, सूर्य के समान तेजस्वी अधिकारी को अपने ऊपर धारण करते हैं और (ये) जो (अश्वयूपाय ) अश्व के लिये खड़े यशस्तम्भ के समान राष्ट्रसंचालक राजा के लिये (चपालम् ) यूंप के छल्ले या अग्र भाग के समान राजा के अग्रासन का (तक्षति) निर्माण करते हैं (ये च) और जो (अर्वते) ज्ञानवान् राजा के लिये ( पचनम् ) पाक योग्य नाना भोग्य ऐश्वर्य सामग्री को (संभरन्ति ) संग्रह करते हैं, लाते हैं ( तेषाम् ) उन सबका (अभिगूर्त्तिः) उद्यम (नः) हमें (इन्तु) प्राप्त हो, हमें समृद्ध करे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - यज्ञः । त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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