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  • यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 12
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - ईश्वरो देवता छन्दः - स्वराट् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    यस्ये॒मे हि॒मव॑न्तो महि॒त्वा यस्य॑ समु॒द्रꣳ र॒सया॑ स॒हाहुः।यस्ये॒माः प्र॒दिशो॒ यस्य॑ बा॒हू कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम॥॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्य॑। इ॒मे। हि॒मव॑न्त॒ इति॑ हि॒मऽव॑न्तः। म॒हि॒त्वेति॑ महि॒ऽत्वा। यस्य॑। स॒मु॒द्रम्। र॒सया॑। सह। आ॒हुः। यस्य॑। इ॒माः। प्र॒दिश॒ इति॑ प्र॒ऽदिशः॑। यस्य॑। बा॒हू इति॑ बा॒हू। कस्मै॑। दे॒वाय॑। ह॒विषा॑। वि॒धे॒म॒ ॥१२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्येमे हिमवन्तो महित्वा यस्य समुद्रँ रसया सहाहुः । यस्येमाः प्रदिशो यस्य बाहू कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यस्य। इमे। हिमवन्त इति हिमऽवन्तः। महित्वेति महिऽत्वा। यस्य। समुद्रम्। रसया। सह। आहुः। यस्य। इमाः। प्रदिश इति, प्रऽदिशः। यस्य। बाहू इति बाहू। कस्मै। देवाय। हविषा। विधेम॥१२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 25; मन्त्र » 12
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    भावार्थ -
    (यस्य) जिसके (महित्वा ) महान् सामर्थ्य से (इमे) ये (हिमवन्तः) हिम वाले पर्वत बने हैं और (यस्य महित्वा ) जिसके महान् सामर्थ्य से ( रसया सह ) स्नेहगुण या जलों से बद्ध, ठोस हुई पृथिवी के साथ (समुद्रम् ) महान् समुद्र को (आहुः) बतलाते हैं । और (यस्य ) जिसके महान् सामर्थ्य से बनी (इमाः) ये ( प्रदिशः) दिशा, उपदिशाएं (यस्य बाहू) जिसके बाहुओं के समान हैं, उस (कस्मै ) सुखस्वरूप, प्रजापालक (देवाय) तेजस्वी परमेश्वर की (हविषा ) स्तुति द्वारा हम ( विधेम ) उपासना करें । (२) राजा भी (यस्य महित्वा ) जिसके महान् सामर्थ्य के अधीन हिम वाले पर्वत और पृथ्वी सहित समुद्र कहे जायें, दिशा प्रतिदिशा के वासी जिसके अधीन रहकर (यस्य बाहू) बाहु के समान बल या सहायक हों उस महान् प्रजापालक राजा को हम (हविषा ) कर और अन्न द्वारा सेवा करें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कः प्रजापतिरीश्वरौ देवता । स्वराट् पंक्तिः । पंचमः ॥

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