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  • यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 34
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    यत्ते॒ गात्रा॑द॒ग्निना॑ प॒च्यमा॑नाद॒भि शूलं॒ निह॑तस्याव॒धाव॑ति।मा तद्भूम्या॒माश्रि॑ष॒न्मा तृणे॑षु दे॒वेभ्य॒स्तदु॒शद्भ्यो॑ रा॒तम॑स्तु॥३४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्। ते॒। गात्रा॑त्। अ॒ग्निना॑। प॒च्यमा॑नात्। अ॒भि। शूल॑म्। निह॑त॒स्येति॒ निऽह॑तस्य। अ॒व॒धाव॒ती॒त्य॑व॒ऽधाव॑ति। मा। तत्। भूम्या॑म्। आ। श्रि॒ष॒त्। मा। तृणे॑षु। दे॒वेभ्यः॑। तत्। उ॒शद्भ्य॒ऽइत्यु॒शत्ऽभ्यः॑। रा॒तम्। अ॒स्तु॒ ॥३४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्ते गात्रादग्निना पच्यमानादभि शूलम्निहतस्यावधावति । मा तद्भूम्यामा श्रिषन्मा तृणेषु देवेभ्यस्तदुशद्भ्यो रातमस्तु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। ते। गात्रात्। अग्निना। पच्यमानात्। अभि। शूलम्। निहतस्येति निऽहतस्य। अवधावतीत्यवऽधावति। मा। तत्। भूम्याम्। आ। श्रिषत्। मा। तृणेषु। देवेभ्यः। तत्। उशद्भ्यऽइत्युशत्ऽभ्यः। रातम्। अस्तु॥३४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 25; मन्त्र » 34
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    भावार्थ -
    हे राष्ट्र ! ( शूलम् ) पीडाजनक शूल, हल आदि शस्त्रों से ( अभिनिहितस्य) मारे या खोदे गये और (अग्निना) अग्नि के समान संतापक सूर्य या राजपुरुष द्वारा ( पच्यमानात् ) परिपक्क किये हुए (गात्रात्) शरीर रूप खेतों आदि से ( यत् ) जो भाग भी ( अवधावति) अलग प्राप्त हो । ( तत् ) वह भाग ( भूम्याम् ) भूमि पर (मा)( अशिश्रिषन् ) पड़ा रहे, (मा तृणेषु) वह अंश तिनकों में न मिल जाय, प्रत्युत ( तत् ) वह (उशद्भ्यः) चाहने वाले (देवेभ्यः) देवों, विद्वान पुरुषों को (रातम् अस्तु) दान कर दिया जाय । हल आदि चला कर सूर्य द्वारा पके हुए अन्न और ओषधि आदि जो पदार्थ राष्ट्र के शरीर से उत्पन्न हों वे मिट्टी में और घासफूस में न मिल जायं प्रत्युत विद्वानों को प्राप्त हों। वे उससे प्रजा का पालन और रोग नाश करें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - यज्ञः । भुरिक् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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