यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 16
ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः
देवता - द्यावापृथिव्यौ देवते
छन्दः - निचृत् आर्षी त्रिष्टुप्,ब्राह्मी उष्णिक्,
स्वरः - ऋषभः
2
रक्ष॑सां भागोऽसि॒ निर॑स्त॒ꣳ रक्ष॑ऽइ॒दम॒हꣳ रक्षो॒ऽभिति॑ष्ठामी॒दम॒हꣳ रक्षोऽव॑बाधऽइ॒दम॒हꣳ रक्षो॑ऽध॒मं तमो॑ नयामि। घृ॒तेन॑ द्यावापृथिवी॒ प्रोर्णु॑वाथां॒ वायो॒ वे स्तो॒काना॑म॒ग्निराज्य॑स्य वेतु॒ स्वाहा॒ स्वाहा॑कृतेऽऊ॒र्ध्वन॑भसं मारु॒तं ग॑च्छतम्॥१६॥
स्वर सहित पद पाठरक्षसा॒म्। भा॑गः॒। अ॒सि॒। निर॑स्त॒मिति॒ निःऽअ॑स्तम्। रक्षः॑ इ॒दम्। अ॒हम्। रक्षः॑। अ॒भि। ति॒ष्ठा॒मि॒। इ॒दम्। अ॒हम्। रक्षः॑। अव॑बा॒धे॒। इ॒दम्। अ॒हम्। रक्षः॑। अ॒ध॒मम्। तमः॑। न॒या॒मि॒। घृ॒तेन॑। द्या॒वा॒पृ॒थि॒वी॒ इति॑ द्यावापृथिवी। प्र। ऊ॒र्णु॒वा॒था॒म्। वायो॒ऽइति॒ वायो॑। वेः। स्तो॒काना॑म्। अ॒ग्निः। आज्य॑स्य। वे॒तु॒। स्वाहा॑। स्वाहा॑कृत॒ऽइति॒ स्वाहा॑ऽकृते। ऊ॒र्ध्वन॑भस॒मित्यू॒र्ध्वन॑भसम्। मा॒रु॒तम्। ग॒च्छ॒त॒म् ॥१६॥
स्वर रहित मन्त्र
रक्षसाम्भागो सि निरस्तँ रक्षः इदमहँ रक्षो भि तिष्ठामीदमहँ रक्षो व बाधऽइदमहँ रक्षो धमन्तमो नयामि । घृतेन द्यावापृथिवी प्रोर्णुवाथाँ वायो वे स्तोकानामग्निराज्यस्य वेतु स्वाहा स्वाहाकृते ऊर्ध्वनभसम्मारुतङ्गच्छतम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
रक्षसाम्। भागः। असि। निरस्तमिति निःऽअस्तम्। रक्षः इदम्। अहम्। रक्षः। अभि। तिष्ठामि। इदम्। अहम्। रक्षः। अवबाधे। इदम्। अहम्। रक्षः। अधमम्। तमः। नयामि। घृतेन। द्यावापृथिवी इति द्यावापृथिवी। प्र। ऊर्णुवाथाम्। वायोऽइति वायो। वेः। स्तोकानाम्। अग्निः। आज्यस्य। वेतु। स्वाहा। स्वाहाकृतऽइति स्वाहाऽकृते। ऊर्ध्वनभसमित्यूर्ध्वनभसम्। मारुतम्। गच्छतम्॥१६॥
विषय - दुष्टों और दुष्ट भावों का दूरीकरण।
भावार्थ -
हे दुष्ट कर्म के करनेवाले ! दुराचारिन् ! तू ( रक्षसाम् ) दूसरों के कार्यों का नाश करके अपने स्वार्थ की रक्षा करनेवाले, नीच पुरुषों का ही ( भाग : असि ) भाग है अर्थात् तू उनके आचरणोंऔर नीच स्वभावों का सेवन करता है एवं उनका आश्रय है । इसलिये ( रक्षः ) ऐसा स्वार्थी दुष्ट पुरुष ( निरस्तम् ) नीचे गिरा दिया जाय । ( अहम् ) मैं (इदम्) इस प्रकार ( रक्षः ) दुष्ट पुरुष के ( अभितिष्ठामि ऊपर चढ़ाई करूं, उसका मुकाबला करूं । मैं ( इदम् ) इस प्रकार अभी, बिना विलम्ब के, ( रक्षः अववाधे ) राज्य कार्य के विनकारी पुरुष को नीचे गिराकर दण्डित करूं । (इदम्) और शीघ्र ही इस प्रकार से ( रक्षः ) राक्षस, विकारी दुष्ट पुरुष को ( अधमं तमः ) नीचे गहरे अन्धकार में या अन्धेरी कोठरी में ( नयामि ) घोर दुःख भोगने के लिये भेजढूं । और हे ( द्यावापृथिवी ) पिता, माता एवं पुरुष और स्त्री और गुरु, शिष्य ! जिस प्रकार द्यौ और पृथिवी ( घृतेन ) जल से या प्रकाश से आच्छादित रहती है । उसी प्रकार तुम दोनों ( घृतेन ) घृत आदि पुष्टिप्रद पदार्थ, वीर्य सामर्थ्य और ज्ञान से (प्र-ऊर्णुवीथाम् ) अच्छी प्रकार सम्पन्न रहो । ( वायो ) ज्ञानवन् ! जिस प्रकार वायु जल के सूक्ष्म कणों को अपने भीतर वाष्परूप में ग्रहण करलेता है उसी प्रकार तू भी ( स्तोकानाम् ) अत्यन्त सूक्ष्म ज्ञानों और सूक्ष्म २ तत्वों को भी ( वेः ) ज्ञान कर। और ( अग्नि: ) अग्नि जिस प्रकार उन अर्थात् घृत को प्राप्त होकर प्रकाशमान होजाता है उसी प्रकार या सूर्य जिस प्रकार जल को ग्रहण करता, विद्वान् पुरुष ! तू भी (अग्निः) अग्नि के स्वभाव का होकर, स्वयंप्रकाश होकर ( आज्यस्य ) अज, अविनाशी परमात्मविषयक ज्ञान को अथवा आनन्द, ज्ञान प्राणबल, सत्य तत्व, वीर्य या वेद ज्ञान को ( वेतु) प्राप्त करे । और ( स्वाहा ) यही सब से उत्तम आहुति है । या वह उत्तम यश को उत्पन्न करता है । है ( स्वाहाकृते ) इस प्रकार उत्तम उपदेश - ज्ञान की परस्परा आहुति प्रदान या ग्रहण करनेवाले स्त्री पुरुषो ! ( ऊर्ध्वनभसम् ) जिस प्रकार अग्नि घृत को ग्रहण करके प्रज्वलित करता और वायु उसके सूक्ष्म कणों को ग्रहण कर लेता है और इस प्रकार ऊपर के जल से युक्त वायु को दोनों आकाश और पृथिवी प्राप्त कर लेते हैं । उसी प्रकार तुम दोनों ( ऊर्ध्वनभसम् ) सर्वोच्च, सबके परम बन्धनकारी ( मारुतम् ) सबके जन्म मरण के कर्ता या प्राणस्वरूप परमेश्वर का ( गच्छतम् ) ज्ञान करो, उसको प्राप्त करो ॥
राज प्रजा के पक्ष में-- राजा प्रजा ( घृतेन ) तेज से, ऐश्वर्य से एक दूसरे को आच्छादित करे। वायु स्वभाव प्रजा स्वल्प २ पदार्थों का भी संग्रह करे । अग्नि राजा युद्धोपयोगी ऐश्वर्य को प्राप्त करे। एक दूसरे को ( स्वाहा ) उत्तम आदान प्रतिदान करे । इस प्रकार ( स्वाहाकृते ) आदानप्रतिदान करनेवाले हे राजा और प्रजाओ ! तुम दोनों (ऊर्ध्वनभसम् ) ऊपर सवापर बांधनेवाले एक नियन्तारुप ( मारुतम् ) मरुद्गगणों, समस्त सेनाओं या वैश्यों के महान् बल को प्राप्त करो ॥ शत० ३ । ८ । २ । १३-२२ ॥
टिप्पणी -
१६ - रक्षो, द्यावापृथिवी, वायुः प्रति वपाश्रपण्यौच देवताः । सर्वा० । 'प्रोर्ण्वायां वायो वेस्तोकानाम् । जुषाणोऽग्निरा०' इति काण्व ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
द्यावापृथिव्यौ देवते।आर्षी उष्णिक् । ऋषभः ।
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