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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 6
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - विद्वांसो देवता छन्दः - आर्षी उष्णिक्,भूरिक् साम्नी बृहती स्वरः - ऋषभः,मध्यमः
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    प॒रि॒वीर॑सि॒ परि॑ त्वा॒ दैवी॒र्विशो॑ व्ययन्तां॒ परी॒मं यज॑मान॒ꣳ रायो॑ मनु॒ष्याणाम्। दि॒वः सू॒नुर॑स्ये॒ष ते॑ पृथि॒व्याँल्लो॒कऽआ॑र॒ण्यस्ते॑ प॒शुः॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प॒रि॒वीरिति॑ परि॒ऽवीः। अ॒सि॒। परि॑। त्वा॒। दैवीः॑। विशेः॑। व्य॒य॒न्ता॒म्। परि॑। इ॒मम्। यज॑मानम्। रायः॑। म॒नुष्या᳖णाम्। दि॒वः। सू॒नुः। अ॒सि॒। ए॒षः। ते। पृथि॒व्याम्। लो॒कः। आ॒र॒ण्यः। ते॒। प॒शुः ॥६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परिवीरसि परि त्वा दैवीर्विशो व्ययन्ताम्परीमँयजमानँ रायो मनुष्याणाम् । दिवः सूनुरस्येष ते पृथिव्याँल्लोक आरण्यस्ते पशुः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    परिवीरिति परिऽवीः। असि। परि। त्वा। दैवीः। विशेः। व्ययन्ताम्। परि। इमम्। यजमानम्। रायः। मनुष्याणाम्। दिवः। सूनुः। असि। एषः। ते। पृथिव्याम्। लोकः। आरण्यः। ते। पशुः॥६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 6
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    भावार्थ -

    हे राजन् ! ( त्वं ) तू ( परिवी: असि ) समस्त विद्याओं को प्राप्त करने वाला अथवा प्रजा की चारों ओर से रक्षा करनेवाला, या प्रजाओं द्वारा चारों ओर से आश्रय किये जाने योग्य है। इसी कारण (त्वा ) तुझको ( देवी: विशः ) देव, राजासम्बन्धिनी, विद्वानगण ( विशः ) प्रजाएं ( परिव्ययन्ताम् ) चारों ओर से अधीन अधिकारीरूप में घेर कर बैठें। ( इयं ) इस ( यजमानम् ) राष्ट्र की व्यवस्था करनेहारे यजमान या दानशील इसको ( मनुष्याणाम् ) मनुष्यों के उपयोगी ( रायः ) ऐश्वर्यं भी ( परि-व्ययन्ताम् ) चारों ओर से प्राप्त हों । हे राजन् ! तू ( दिवः ) प्रकाशमय सूर्य से ( सुनूः ) उत्पन्न होनेवाले किरण समूह के समान तेजस्वी ( असि ) है । और ( एषः ) यह ( पृथिव्यां ) पृथिवी पर निवास करनेवाला ( लोक: ) समस्त लोक, भूलोक, या जन भी (ते) तेरा ही है । तेरे ही अधीन है । ( आरण्यः पशुः ) अरण्यवासी समस्त पशु जाति भी ( ते तेरी ही सम्पत्ति है | 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    यूपः स्वरुश्च विद्वांसो वा देवताः । ( १ ) आर्ष्युष्णिक्। ऋषभः । ( २ ) भुरिक् 
    साम्नी बृहती । मध्यमः ॥

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