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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 23
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - अब्यज्ञसूर्या देवताः छन्दः - निचृत् आर्षी अनुष्टुप्, स्वरः - गान्धारः
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    ह॒विष्म॑तीरि॒माऽआपो॑ ह॒विष्माँ॒२ऽआवि॑वासति। ह॒विष्मा॑न् दे॒वोऽअ॑ध्व॒रो ह॒विष्माँ॑२ऽअस्तु॒ सूर्यः॑॥२३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ह॒विष्म॑तीः। इ॒माः। आपः॑। ह॒विष्मा॑न्। आ। वि॒वा॒स॒ति॒। ह॒विष्मा॑न्। दे॒वः। अ॒ध्व॒रः। ह॒विष्मा॑न्। अ॒स्तु॒। सूर्यः॑ ॥२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हविष्मतीरिमा आपो हविष्माँ आ विवासति । हविष्मान्देवो अध्वरो हविष्माँ अस्तु सूर्यः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    हविष्मतीः। इमाः। आपः। हविष्मान्। आ। विवासति। हविष्मान्। देवः। अध्वरः। हविष्मान्। अस्तु। सूर्यः॥२३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 23
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    भावार्थ -

     ( इमाः आपः ) ये जल सदा ( हविष्मती : ) हवि, अर्थात् ग्रहण करने योग्य रस और अन्न से युक्त हो उनको ( हविष्मान् ) हविः, उत्तम गुण और ज्ञान से सम्पन्न पुरुष ( आविवासति ) प्रयोग में लावे, उपयोग करे । अथवा – ( इमा: ) इन ( हविष्मती: ) ज्ञान से समूद्ध प्रजाओं और आप्त पुरुषों या यज्ञादिक आप्त कर्मों को ( हविष्मान् आवि- वासाति ) ज्ञान जल और अन से समृद्ध पुरुष ही सेवन करता है। (देवः ) देव, साक्षात् राजा ( अध्वर: ) शत्रुओं से न पराजित होने वाला ( हविष्मान् ) ग्रहण करने योग्य राष्ट्र से युक्त हो । और ( सूर्यः ) वह सूर्य के समान रश्मियों से युक्त तेजस्वी होकर ( हविष्मान् अस्तु ) अनादि उपयोगी पदार्थों से सम्पन्न हो । 
    यज्ञ में ये आपः ' वसतीवरी' कहाती हैं जो ' वसति' अर्थात् राष्ट्र के नगर, ग्राम आदि में बसी श्रेष्ट प्रजाओं की प्रतिनिधि हैं । 
    अथवा - ( हविष्मान् ) हवि, ग्रहणशक्ति से सम्पन्न वायु जिस प्रकार ( हविष्मती : आपः आविवासति ) रस वाले जलों को अपने भीतर लेता है उसी प्रकार (अध्वरः देवः हविष्मान् ) अपराजित राजा स्वयं बलशाली होकर समस्त प्रजाओं को अपने वश रखे। और इसी प्रकार `अध्वर' हिंसा रहित यज्ञ जिस प्रकार अन्नवान् है और जिस प्रकार सूर्य अपने रस ग्रहण की शक्तिरूप हवि को धारण करता है उसी प्रकार राजा भी अन्न आदि से समृद्ध हो । शत० ३।९।२।१०+१२ | इसी प्रकार प्रत्येक गृहपति को भी हविष्मान् और पत्नी को हविष्मती और वीर्यवान्, वीर्यवती होने का उपदेश है । इस मन्त्र में ' आपः कन्या है क्योंकि उनको वरण द्वारा प्राप्त किया जाता है। उनके प्रतिनिधि भी वसतीवरी' हैं क्योंकि वसना चाहने वाले नवयुवकों को वे वरण करती हैं । और स्वंयवरा कन्या सूर्या' कहाती है । वरण योग्य पुरुष 'सूर्य कहाता है ||

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    आप: यज्ञ: सूर्याश्च देवताः । निचृदार्ष्यनुष्टुप् । गान्धारः॥

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