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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 28
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - प्रजा देवताः छन्दः - निचृत् आर्षी अनुष्टुप्, स्वरः - गान्धारः
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    कार्षि॑रसि समु॒द्रस्य॒ त्वा क्षि॑त्या॒ऽउन्न॑यामि। समापो॑ऽअ॒द्भिर॑ग्मत॒ समोष॑धीभि॒रोष॑धीः॥२८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कार्षिः॑। अ॒सि॒। स॒मु॒द्रस्य॑। त्वा। अक्षि॑त्यै। उत्। न॒या॒मि॒। सम्। आपः॑। अ॒द्भिरित्य॒त्ऽभिः। अ॒ग्म॒त॒। सम्। ओष॑धीभिः। ओष॑धीः ॥२८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कार्षिरसि समुद्रस्य त्वाक्षित्या उन्नयामि । समापो अद्भिरग्मत समोषधीभिरोषधीः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    कार्षिः। असि। समुद्रस्य। त्वा। अक्षित्यै। उत्। नयामि। सम्। आपः। अद्भिरित्यत्ऽभिः। अग्मत। सम्। ओषधीभिः। ओषधीः॥२८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 28
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    भावार्थ -

    हे वैश्यवर्ग ! तू ( कार्षिः असि ) समस्त भूमि पर कृषि कराने में समर्थ है। अथवा हे प्रजावर्ग ! और हे राजन् ! हे पुरुष ! ( कार्षिः ) परस्पर एक दूसरे को आकर्षण करने में समर्थ है । (त्वा) तुझको मैं परमेश्वर या राजा ( समुद्रस्य अक्षित्यै ) प्रजाओं के उत्पत्ति स्थान इस राष्ट्रवासी वर्तमान प्रजाओं का कभी नाश न होने देने के लिये ( उत्नयामि ) उच्च आसन पर बैठाता हूं । ( आपः अग्निः ) जल जिस प्रकार जलों से मिलकर एक होजाते हैं उस प्रकार प्रजाओं में स्त्रियें प्रेमपूर्वक पुरुषों को ( सम् अग्मत ) प्राप्त हो । ( ओषधीभिः ओषधीः सम् अस्मत ) जिस प्रकार ओषधियों से मिलकर अधिक गुणकारी और वीर्यवान् होजाती हैं उसी प्रकार तेजस्वी पुरुष तेजस्वी पुरुषों से एवं तेजस्वी पुरुष तेजस्विनी स्त्रियों से मिलें और अधिक तेजस्वी सन्तान उत्पन्न हो । 
    इसी प्रकार गृहस्थ पक्ष में- हे पुरुष तू ( कार्षिः असि ) कृषक के समान अपनी सन्तति के खेती करने में समर्थ एवं स्त्री को अपने प्रति प्रेम से आकर्षण करनेहारा है । समुद्र =अर्थात् प्रजाओं के उग्रवरूप मानद समुद्र को नित्य बनाये रखने के लिये तुझे उन्नत पद देता हूँ । जलों में जैसे जल मिल जाएं उस प्रकार पुरुष स्त्रियों से प्रेमपूर्वक ही विवाहित होकर संगत हो । और ( ओषधीभिः ओषधीः ) जिस प्रकार एक गुण की ओषधियां परस्पर मिलकर अधिक वीर्य को उत्पन्न करती है उसी प्रकार बलवीर्य युक्त स्त्री पुरुष मिलकर अधिक गुणवान् सन्तति उत्पन्न करें ॥ 
    शत० ३ । ७ । ३ । २६ । २७ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    प्रजा देवताः । निचृदार्ष्यनुष्टुप् । गान्धारः ॥

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