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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 5
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - विष्णुर्देवता छन्दः - आर्षी गायत्री स्वरः - षड्जः
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    तद्विष्णोः॑ पर॒मं प॒दꣳ सदा॑ पश्यन्ति सूरयः॑। दि॒वीव॒ चक्षु॒रात॑तम्॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत्। विष्णोः॑। प॒र॒मम्। प॒दम्। सदा॑। प॒श्य॒न्ति॒। सू॒रयः॑। दि॒वी᳕वेति॑ दिविऽइ॑व। चक्षुः॑। आत॑त॒मित्यात॑तम् ॥५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तद्विष्णोः परमं पदँ सदा पश्यन्ति सूरयो दिवीव चक्षुराततम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तत्। विष्णोः। परमम्। पदम्। सदा। पश्यन्ति। सूरयः। दिवीवेति दिविऽइव। चक्षुः। आततमित्याततम्॥५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 5
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    भावार्थ -

    ( सूरयः ) वेद के विद्वान् पुरुष ( विष्णोः ) व्यापक परमेश्वर के ( तत् ) उस ( पदम् ) पद को जो ( दिवि ) प्रकाश में ( चक्षुः इव ) चक्षु के समान ( आततम् ) व्यापक है अथवा ( दिवि ) आकाश में ( चक्षुः इव ) सूर्य के समान व्यापक है उसको ही ( परमम् ) सर्वोत्कृष्ट ( पदम् ) पद प्राप्त होने योग्य परम धाम का ( पश्यन्ति ) साक्षात् करते हैं । 
    राजा के पक्ष में- विष्णु राष्ट्र के व्यापक उस राजा के ही परम पद को विद्वान् प्रजा के प्रेरक नेता पुरुष आकाश में सूर्य के समान तेज से व्याप्त होने वाला, देखते हैं ॥ 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    मेधातिथिर्ऋषिः । विष्णुर्देवता । निचृदार्षी  गायत्री । षड्जः ॥

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