अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 126/ मन्त्र 12
सूक्त - वृषाकपिरिन्द्राणी च
देवता - इन्द्रः
छन्दः - पङ्क्तिः
सूक्तम् - सूक्त-१२६
नाहमि॒न्द्राणि॑ रारण॒ सख्यु॑र्वृ॒षाक॑पेरृ॒ते। यस्ये॒दमप्यं॑ ह॒विः प्रि॒यं दे॒वेषु॒ गच्छ॑ति॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
स्वर सहित पद पाठन। अ॒हम् । इ॒न्द्रा॒णि॒ । र॒र॒ण॒ । सख्यु॑: । वृ॒षाक॑पे: । ऋ॒ते ॥ यस्य॑ । इ॒दम् । अप्य॑स् । ह॒वि: । प्रि॒यम् । दे॒वेषु॑ । गच्छ॑ति । विश्व॑स्मात् । इन्द्र॑: । उत्ऽत॑र ॥१२६.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
नाहमिन्द्राणि रारण सख्युर्वृषाकपेरृते। यस्येदमप्यं हविः प्रियं देवेषु गच्छति विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥
स्वर रहित पद पाठन। अहम् । इन्द्राणि । ररण । सख्यु: । वृषाकपे: । ऋते ॥ यस्य । इदम् । अप्यस् । हवि: । प्रियम् । देवेषु । गच्छति । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर ॥१२६.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 126; मन्त्र » 12
विषय - जीव, प्रकृति और परमेश्वर।
भावार्थ -
हे (इन्द्राणि) इन्द्र की परमशक्ते ! प्रकृते ! (अहम्) मैं परमेश्वर भी (सख्युः) समान, आत्मा या, ‘इन्द्र’ नाम को धारण करने वाले सखा अपने मित्र (वृषाकपेः) आनन्द वर्षण करके हृदय में कम्पन या रोमाञ्च उत्पन्न करने हारे उस जीव के (ऋते) बिना न (शरण) मैं क्रीड़ा या विनोद नहीं करता अर्थात् मैं जगत् सर्जन रूप लीला का विस्तार नहीं करता। वह वृषाकपि जीव भी कैसा है ? (यस्य) जिसको (इदम्) यह (अप्यंहविः) जलों में जिस प्रकार अन्न उत्पन्न होता है उसी प्रकार सर्वत्र व्यापक प्रकृति के सूक्ष्म परमाणुओं में उत्पन्न वा लिङ्ग शरीरों में स्थित वा उनसे बना हुआ (प्रियम् हवि) अति प्रिय, ग्रहण करने योग्य अन्न, चेतनादायी प्राण ही (देवेषु) गन्ध आदि ज्ञानों के प्रकाशक इन्द्रिय गण में (गच्छति) प्राप्त होता है। और (इन्द्रः विश्वस्मात् उचरः) वह परमेश्वर ही सबसे उत्कृष्ट है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वृषाकपिरिन्द्र इन्द्राणी च ऋषयः। इन्द्रो देवता। पंक्तिः। त्रयोविंशत्यृचं सूक्तम्॥
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