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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 126/ मन्त्र 11
    सूक्त - वृषाकपिरिन्द्राणी च देवता - इन्द्रः छन्दः - पङ्क्तिः सूक्तम् - सूक्त-१२६

    इ॑न्द्रा॒णीमा॒सु नारि॑षु सु॒भगा॑म॒हम॑श्रवम्। न॒ह्यस्या अप॒रं च॒न ज॒रसा॒ मर॑ते॒ पति॒र्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒न्द्राणीम् । आ॒सु । नारि॑षु । सु॒ऽभगा॑म् । अ॒हम् । अ॒श्र॒व॒म् ॥ न॒हि । अ॒स्या॒: । अ॒प॒रम् । च॒न । ज॒रसा॑ । भर॑ते । पति॑: । विश्व॑स्मात् । इन्द्र॑: । उत्ऽत॑र ॥१२६.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्राणीमासु नारिषु सुभगामहमश्रवम्। नह्यस्या अपरं चन जरसा मरते पतिर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्राणीम् । आसु । नारिषु । सुऽभगाम् । अहम् । अश्रवम् ॥ नहि । अस्या: । अपरम् । चन । जरसा । भरते । पति: । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर ॥१२६.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 126; मन्त्र » 11

    भावार्थ -
    (आसु नारिषु) इन समस्त नारियों में से मैं (इन्द्राणीम्) इन्द्र की स्त्री के समान उसके सदा साथ रहने वाली परमेश्वर की ऐश्वर्यवती प्रकृति को (सुभगाम्) सबसे अधिक उत्तम ऐश्वर्यवती सौभाग्यवती (अश्रवम्) गुरुपदेश द्वारा श्रवण करता हूं (अपरं चन) और जिस प्रकार अन्य स्त्रियों के पति बूढ़े होकर मर जाते हैं उस प्रकार (अस्याः पतिः) इसका पति (जरसा) आयु के अन्त कर देने वाले बुढ़ापे के कारण (नहि मरते) नहीं मरता। वह अजर अमर हैं। (इन्द्रः विश्वस्मात् उत्तरः) इन्द परमेश्वर समस्त संसार से ऊंचा है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वृषाकपिरिन्द्र इन्द्राणी च ऋषयः। इन्द्रो देवता। पंक्तिः। त्रयोविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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