अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 126/ मन्त्र 4
सूक्त - वृषाकपिरिन्द्राणी च
देवता - इन्द्रः
छन्दः - पङ्क्तिः
सूक्तम् - सूक्त-१२६
यमि॒मं त्वं वृ॒षाक॑पिं प्रि॒यमि॑न्द्राभि॒रक्ष॑सि। श्वा न्व॑स्य जम्भिष॒दपि॒ कर्णे॑ वराह॒युर्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । इ॒यम् । त्वम् । वृ॒षाक॑पिम् । प्रि॒यम् । इन्द्र॒ । अ॒भि॒रक्ष॑सि ॥ श्वा । नु । अ॒स्य॒ । ज॒म्भि॒ष॒त् । अपि॑ । कर्णे॑ । व॒रा॒ह॒ऽयु: । विश्व॑स्मात् । इन्द्र॑: । उत्ऽत॑र ॥१२६.४॥
स्वर रहित मन्त्र
यमिमं त्वं वृषाकपिं प्रियमिन्द्राभिरक्षसि। श्वा न्वस्य जम्भिषदपि कर्णे वराहयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । इयम् । त्वम् । वृषाकपिम् । प्रियम् । इन्द्र । अभिरक्षसि ॥ श्वा । नु । अस्य । जम्भिषत् । अपि । कर्णे । वराहऽयु: । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर ॥१२६.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 126; मन्त्र » 4
विषय - जीव, प्रकृति और परमेश्वर।
भावार्थ -
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! परमेश्वर ! (यम् इमम्) जिस इस (वृषाकपिम्) सामर्थ्यवान् तेजस्वी, (प्रियम्) अपने प्रिय, जीव की तू (अभिरक्षसि) सब ओर से रक्षा करता है उस जीव को (अस्य कर्णे) इसके कर्म के निमित्त (वराहयुः) वायु को कामना करने वाला (श्वा) आशु गतिशील प्राण (नु) ही (जम्भिषत्) उसे पकड़ लेता, या बान्ध लेता है अथवा—(वराहयुः) वायु या प्राण वायु के अभिलाषी, अथवा (वराहयुः) उत्तम कहाने योग्य पदार्थों का अभिलाषी (श्वा) कुक्कुर के समान भोग करने वाला देह इसको (जम्भिषत्) अपने बन्धन में डाल लेता है। (विश्वस्मात् इन्द्रः उत्तरः) वह परमेश्वर ही सबसे ऊंचा है जो कभी देह बन्धन में नहीं आता।
जिस सामर्थ्यवान् जीव का ईश्वर रक्षक है वह जीवात्मा जब जब भी कर्म करता है तब तब प्राण से जीवित, भोगायतन देह उसको बांध लेता है। परन्तु संसार को चलाने हारे परमेश्वर पर वह देहबंधन नहीं लगता।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वृषाकपिरिन्द्र इन्द्राणी च ऋषयः। इन्द्रो देवता। पंक्तिः। त्रयोविंशत्यृचं सूक्तम्॥
इस भाष्य को एडिट करें