अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 126/ मन्त्र 2
सूक्त - वृषाकपिरिन्द्राणी च
देवता - इन्द्रः
छन्दः - पङ्क्तिः
सूक्तम् - सूक्त-१२६
परा॒ हीन्द्र॒ धाव॑सि वृ॒षाक॑पे॒रति॒ व्यथिः॑। नो अह॒ प्र वि॑न्दस्य॒न्यत्र॒ सोम॑पीतये॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
स्वर सहित पद पाठपरा॑ । हि। इ॒न्द्र॒ । धाव॑सि । वृ॒षाक॑पे: । अति॑ । व्यथि॑: ॥ नो इति॑ । अह॑ । प्र । वि॒न्द॒सि॒ । अ॒न्यत्र॑ । सोम॑ऽपीतये । विश्व॑स्मात् । इन्द्र॑: । उत्ऽत॑र: ॥१२६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
परा हीन्द्र धावसि वृषाकपेरति व्यथिः। नो अह प्र विन्दस्यन्यत्र सोमपीतये विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥
स्वर रहित पद पाठपरा । हि। इन्द्र । धावसि । वृषाकपे: । अति । व्यथि: ॥ नो इति । अह । प्र । विन्दसि । अन्यत्र । सोमऽपीतये । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर: ॥१२६.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 126; मन्त्र » 2
विषय - जीव, प्रकृति और परमेश्वर।
भावार्थ -
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् परमेश्वर ! तू जब (वृषाकपेः) सुखों के वर्षण करने और दुःख कारणों के कंपा देने वाले जीवात्मा से (परा धावसि) परे चला जाता है तब तू (अतिव्यथिः) बड़ी व्यथा, अर्थात् भीतरी चित के कष्ट का कारण होजाता है। (अह) और (अन्यत्र) अन्य स्थानों अर्थात् संसार के दृश्यों या व्युत्थित दशाओं में (सोमपीतेय) परम आनन्द रस, सोमपान कराने के लिये अथवा सोमरूप आत्मा को स्वयं पान करने, उसको अपनी शरण में ले लेने के लिये (नो प्रविन्दसि) दूरतक भी ढूंढें नहीं मिलता, वह (इन्द्रः) परमेश्वर (विश्वस्मात्) सबसे अधिक (उत्तरः) उत्कृष्ट, ऊंचा है।
परमेश्वर का साक्षात् न करके योगी साधक उसके लिये व्याकुल हो उठता है। वह ईश्वर फिर दुनियां के भोगों में उसे नहीं मिलता। वह भोग बन्धनों में पड़े उसको परम रस नहीं देता और अपने में नहीं मिलाता। वह ईश्वर सबसे महान् है।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वृषाकपिरिन्द्र इन्द्राणी च ऋषयः। इन्द्रो देवता। पंक्तिः। त्रयोविंशत्यृचं सूक्तम्॥
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