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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 126/ मन्त्र 22
    सूक्त - वृषाकपिरिन्द्राणी च देवता - इन्द्रः छन्दः - पङ्क्तिः सूक्तम् - सूक्त-१२६

    यदुद॑ञ्चो वृषाकपे गृ॒हमि॒न्द्राज॑गन्तन। क्व स्य पु॑ल्व॒घो मृ॒गः कम॑गं जन॒योप॑नो॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । उद॑ञ्च: । वृ॒षा॒क॒पे॒ । गृ॒हम् । इ॒न्द्र॒ । अज॑गन्तन ॥ क्व । स्य: । पु॒ल्व॒घ: । मृ॒ग: । कम् । अ॒ग॒न् । ऊ॒न॒ऽयोप॑न: । विश्व॑स्मात् । इन्द्र॑: । उत्ऽत॑र ॥१२६.२२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदुदञ्चो वृषाकपे गृहमिन्द्राजगन्तन। क्व स्य पुल्वघो मृगः कमगं जनयोपनो विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । उदञ्च: । वृषाकपे । गृहम् । इन्द्र । अजगन्तन ॥ क्व । स्य: । पुल्वघ: । मृग: । कम् । अगन् । ऊनऽयोपन: । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर ॥१२६.२२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 126; मन्त्र » 22

    भावार्थ -
    हे (वृषाकप) बलवान् आनन्दरस पान करनेहारे ! हे (इन्द्र) आत्मज्ञान के साक्षात् करने हारे मुमुक्षो ! (यत्) जब (उद् अञ्चः) उदय को प्राप्त होने वाले, ऊपर उठने वाले, पुरुष (गृहम्) गृह के समान शरण, सबको अपने भीतर, शरण में ले लेने वाले परमेश्वर को प्राप्त होजाते हैं तब बतला कि (पुल्वघः) अति पापभोगी (स्यः मृगः) वह विषयों को खोजने वाला (जनयोपनः मृगः इव) मनुष्यों के विध्वंस करने वाले भूखे सिंह के समान लोलुप जीव (क्क अगन् कम्) भला कहां चला जाता है ? अर्थात् मृग, सिंह जिस प्रकार (पुलु-ऊधः-पुरु-अधः) बहुतों को मारता है और (जनयोपनः) बहुत से जन्तुओं का नाश करता है। वह जिस प्रकार पुरुष को गृह में आजाने फिर दिखाई नहीं देता, वह वन में ही रह जाता है इसी प्रकार जब मुमुक्षु ईश्वर को प्राप्त होजाता है तब (पुल्वधः) पुरु अर्थात् इन्दियों द्वारा नाना पाप भोग करने हारा (मृगः) विषय को खोजने वाला, (जनयोपनः) जन्म का नाश करनेहारा जीव फिर (क्व स्यः) वह कहां रहता है वह तो (कम्) सुखस्वरूप उस आनन्दमय को प्राप्त होजाता है जो (इन्द्रः विश्वस्मात् उत्तरः) परमेश्वर सबसे ऊंचा है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वृषाकपिरिन्द्र इन्द्राणी च ऋषयः। इन्द्रो देवता। पंक्तिः। त्रयोविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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