अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 126/ मन्त्र 21
सूक्त - वृषाकपिरिन्द्राणी च
देवता - इन्द्रः
छन्दः - पङ्क्तिः
सूक्तम् - सूक्त-१२६
पुन॒रेहि॑ वृषाकपे सुवि॒ता क॑ल्पयावहै। य ए॒ष स्व॑प्न॒नंश॒नोऽस्त॒मेषि॑ प॒था पुन॒र्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
स्वर सहित पद पाठपुन॑: । आ । इ॒हि॒ । वृ॒षा॒क॒पे॒ । सु॒वि॒ता । क॒ल्प॒या॒व॒है॒ ॥ य: । ए॒ष: । स्व॒प्न॒ऽनंश॑न: । अस्त॑म् । एषि॑ । प॒था । पुन॑: । विश्व॑स्मात् । इन्द्र॑: । उत्ऽत॑र ॥१२६.२१॥
स्वर रहित मन्त्र
पुनरेहि वृषाकपे सुविता कल्पयावहै। य एष स्वप्ननंशनोऽस्तमेषि पथा पुनर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥
स्वर रहित पद पाठपुन: । आ । इहि । वृषाकपे । सुविता । कल्पयावहै ॥ य: । एष: । स्वप्नऽनंशन: । अस्तम् । एषि । पथा । पुन: । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर ॥१२६.२१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 126; मन्त्र » 21
विषय - जीव, प्रकृति और परमेश्वर।
भावार्थ -
हे जीव ! विद्वन् ! हे (वृषाकपे) बलवान् होकर आनंदरस का पान करने हारे मुमुक्षो ! (पुनः एहि) तू फिर आ, लौट आ. संसार में न भटक कर पुनः ईश्वर रूप शरण को प्राप्त हो। हम दोनों. ईश्वर और प्रकृति मिलकर पुत्र के लिये माता पिता के समान (सुविता) तेरे लिये सुख, कल्याणजनक फल ही (कल्पयावहै) उत्पन्न करेंगे। (यः एषः) जो तू (स्वप्नंशनः) स्वप्न, निद्रा और प्रमाद और मृत्यु को दूर करता हुआ आदित्य के समान (पथा,) सन्मार्ग से. इस मोक्ष मार्ग से (पुनः अस्तम् एषि) फिर गृह के समान शरणरूप परमेश्वर को प्राप्त हो।
जिस प्रकार सूर्य उदय होकर पुनः अस्त को प्राप्त होता है इसी प्रकार तेजस्वी मुमुक्षु भी मोक्ष मार्ग से अस्त अर्थात् शरण रूप ईश्वर को प्राप्त हो। जहां वह सूर्य के समान ही महान् आनन्द सागर में अस्त हो जाय, विलीन, मग्न होजाय।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वृषाकपिरिन्द्र इन्द्राणी च ऋषयः। इन्द्रो देवता। पंक्तिः। त्रयोविंशत्यृचं सूक्तम्॥
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