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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 126/ मन्त्र 16
    सूक्त - वृषाकपिरिन्द्राणी च देवता - इन्द्रः छन्दः - पङ्क्तिः सूक्तम् - सूक्त-१२६

    न सेशे॒ यस्य॒ रम्ब॑तेऽन्त॒रा स॒क्थ्या॒ कपृ॑त्। सेदी॑शे॒ यस्य॑ रोम॒शं नि॑षे॒दुषो॑ वि॒जृम्भ॑ते॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । स: । ई॒शे॒ । यस्य॑ । रम्ब॑ते । अ॒न्त॒रा । स॒क्थ्या॑ । कपृ॑त् ॥ स: । इत् । ई॒शे॒ । यस्य॑ । रो॒म॒शम् । नि॒ऽसेदुष॑: । वि॒ऽजृम्भ॑ते । विश्व॑स्मात् । इन्द्र॑: । उत्ऽत॑र ॥१२६.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न सेशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृत्। सेदीशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । स: । ईशे । यस्य । रम्बते । अन्तरा । सक्थ्या । कपृत् ॥ स: । इत् । ईशे । यस्य । रोमशम् । निऽसेदुष: । विऽजृम्भते । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर ॥१२६.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 126; मन्त्र » 16

    भावार्थ -
    (यस्य) जिसका (कपृत्) कपाल, मस्तक (सक्थ्या अन्तरा) जांघों के बीच तक देवता के प्रति मनौती के लिये, या अपने से बड़े बलवान् को देखकर उसके आगे झुकने के लिये (रम्बते = लम्बते) लटक जाता है (न सः ईशे) वह स्वामी के समान शासन करने में समर्थ नहीं होता। (सः इत् ईशे) वही शासन करता है (निषेदुषः) राज्यासन पर विराजे हुए (यस्य) जिसका (रोमशं) लोमों या मूछों वाला मुख (विजृम्भते) विविध प्रकार से या विशेष रूप से खुलता और आज्ञा देता है। (विश्वस्मात् इन्द्रः उत्तरः) शत्रुनाशक ऐश्वर्यवान् राजा ही सबसे उत्कृष्ट है। अध्यात्म में—(यस्य) जिस जीवात्मा का (कपृत्) अल्प पालन सामर्थ्य या सुखग्राही चित्त (सक्थ्या अन्तरा) आसक्ति योग्य पदार्थों के बीच में ही (रम्बते, लम्बते) लटक जाता है, मुग्ध होजाता है। (न सः ईशे) वह संसार का स्वामी, ईश्वर नहीं हो सकता। (सः इत् ईशे) वही, ईश्वर है (निषेदुषः) निगूढ रूप से सर्वत्र व्यापक (यस्य) जिसका बनाया (रोमशम्) लोमयुक्त मुख के समान तेजस्वी किरणों से युक्त सूर्य (विजृम्भते) विविध दिशाओं में फैलता है। अथवा [रोमशं = रु शब्दे। रौति शब्दयति इति रोम तेन युक्तं] सर्व उपदेशकारी, प्रवचन या गुरुपदेश के समान ज्ञान विविध रूपों से प्रकाशित होता है वह (इन्द्रः विश्वस्मात् उत्तरः) परमेश्वर सबसे ऊंचा है। अथवा [ रोमशं = लोमशं। लूयते इति लोम तद् = श्यति नाशयति इति लोमशम् ] अन्धकारों का काटने वाला और विघ्नों और जन्ममरण के बन्धनों को काटने वाला जिसका ज्ञानमय तेज सूर्य के समान चारों तरफ प्रखरता से विस्तृत है वह परमेश्वर सबसे ऊंचा है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वृषाकपिरिन्द्र इन्द्राणी च ऋषयः। इन्द्रो देवता। पंक्तिः। त्रयोविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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