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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 126/ मन्त्र 15
    सूक्त - वृषाकपिरिन्द्राणी च देवता - इन्द्रः छन्दः - पङ्क्तिः सूक्तम् - सूक्त-१२६

    वृ॑ष॒भो न ति॒ग्मशृ॑ङ्गो॒ऽन्तर्यू॒थेषु॒ रोरु॑वत्। म॒न्थस्त॑ इन्द्र॒ शं हृ॒दे यं ते॑ सु॒नोति॑ भाव॒युर्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वृ॒ष॒भ: । न । ति॒ग्मऽशृ॑ङ्ग: । अ॒न्त: । यू॒थेषु॑ । रोरु॑षत् ॥ म॒न्थ: । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । शम् । हृ॒दे । वम् । ते॒ । सु॒नोति॑ । भा॒व॒यु: । विश्व॑स्मात् । इन्द्र॑: । उत्ऽत॑र ॥१२६.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वृषभो न तिग्मशृङ्गोऽन्तर्यूथेषु रोरुवत्। मन्थस्त इन्द्र शं हृदे यं ते सुनोति भावयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वृषभ: । न । तिग्मऽशृङ्ग: । अन्त: । यूथेषु । रोरुषत् ॥ मन्थ: । ते । इन्द्र । शम् । हृदे । वम् । ते । सुनोति । भावयु: । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर ॥१२६.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 126; मन्त्र » 15

    भावार्थ -
    (न) जिस प्रकार (तिक्ष्मशृंगः) तीखे सीगों वाला (वृषभः) वीर्य सेचन में समर्थ सांड (यूथेषु अन्तः) गौओं के रेवड़ के बीच में (रो रुवत्) बराबर गर्जना करा करता है उसी प्रकार तू सब के हृदयों में रस वर्षण करने हारा परमेश्वर (तिग्मशृंगः) अन्धकारों का नाश करने वाले तीक्ष्ण प्रकाश से युक्त होकर (यूथेषु अन्तः) नाना यूथों, संमिलन करने योग्य स्थानों हृदयों में (रोरुवत्) अपनी ध्वनि कर रहा है ‘सोहं’ का नाद बजाता रहता है। हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! परमेश्वर ! (यं) जिस परम रस को (भावयुः) भक्ति भावों से युक्त उपासक (ते) तेरे निमित्त या तुझ से (सुनोति) उत्पन्न करता है, प्राप्त करता है वह (मन्थः) सब दुःखों का मथन, विनाश कर देने वाला एवं हृदय को मथन कर देने वाला, अति आह्लादकारी (ते) तेरा आनन्दरस (हृदे) हृदय को (शं) शांति देने वाला होता है। (इन्द्रः विश्वस्मात् उत्तरः) इन्द्र परमेश्वर सबसे उत्कृष्ट परमानन्दकारी है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वृषाकपिरिन्द्र इन्द्राणी च ऋषयः। इन्द्रो देवता। पंक्तिः। त्रयोविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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