अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 126/ मन्त्र 7
सूक्त - वृषाकपिरिन्द्राणी च
देवता - इन्द्रः
छन्दः - पङ्क्तिः
सूक्तम् - सूक्त-१२६
उ॒वे अ॑म्ब सुलाभिके॒ यथे॑वा॒ङ्ग भ॑वि॒ष्यति॑। भ॒सन्मे॑ अम्ब॒ सक्थि॑ मे॒ शिरो॑ मे॒ वीव हृष्यति॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒वे । अ॒म्ब॒ । सु॒ला॒भि॒के॒ । यथा॑ऽइव । अ॒ङ्ग । भ॒वि॒ष्यति॑ ॥ भ॒सत् । मे॒ । अ॒म्ब॒ । सक्थि॑ । मे॒ । शिर॑: । मे॒ । विऽइ॑व । हृ॒ष्य॒ति॒ । विश्व॑स्मात् । इन्द्र॑: । उत्ऽत॑र ॥१२६.७॥
स्वर रहित मन्त्र
उवे अम्ब सुलाभिके यथेवाङ्ग भविष्यति। भसन्मे अम्ब सक्थि मे शिरो मे वीव हृष्यति विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥
स्वर रहित पद पाठउवे । अम्ब । सुलाभिके । यथाऽइव । अङ्ग । भविष्यति ॥ भसत् । मे । अम्ब । सक्थि । मे । शिर: । मे । विऽइव । हृष्यति । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर ॥१२६.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 126; मन्त्र » 7
विषय - जीव, प्रकृति और परमेश्वर।
भावार्थ -
(उवे) हे (अम्ब) व्यापक शक्तिमति ! हे (सुलाभिके) सुख का लाभ कराने हारी (अंग) अंग, हे व्यक्तरूप प्रकृते ! (भसत्) देदीप्यमान तेज (मे) मेरे हों। (सक्थि मे) यह तेरी समवाय शक्ति (मे) मेरे उपयोग में आवे। (मे शिरः) मेरा शिर, मुख्य चित्त (विहृष्यति इव) विविध रूपों से हर्ष को प्राप्त होता है। (इन्द्रः विश्वस्मात् उत्तरः) इन्द, ऐश्वर्यवान् परमात्मा तो सबसे ऊंचा है। जीव कहता है कि ईश्वर विश्व से ऊंचा है। प्रकृति का यह सब सौभाग्य और सक्थि अर्थात् आसक्ति अर्थात् भोग्य शक्ति या जीवों को बांधने वाली शक्ति जीवके उपयोग में ही आती है। मैं जीव ही उससे प्रसन्न होता हूं, ईश्वर भोग बन्धनों में नहीं पड़ता।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वृषाकपिरिन्द्र इन्द्राणी च ऋषयः। इन्द्रो देवता। पंक्तिः। त्रयोविंशत्यृचं सूक्तम्॥
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