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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 128

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 128/ मन्त्र 13
    सूक्त - देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा छन्दः - विराडार्ष्यनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    त्वं वृ॑षा॒क्षुं म॑घव॒न्नम्रं॑ म॒र्याकरो॒ रविः॑। त्वं रौ॑हि॒णं व्यास्यो॒ वि वृ॒त्रस्याभि॑न॒च्छिरः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । वृ॑षा । अ॒क्षुम् । म॑घव॒न् । नम्र॑म् । म॒र्य । आक॒र: । रवि॑: ॥ त्वम् । रौ॑हि॒णम् । व्या॑स्य॒: । वि । वृ॒त्रस्य॑ । अभि॑न॒त् । शिर॑: ॥१२८.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं वृषाक्षुं मघवन्नम्रं मर्याकरो रविः। त्वं रौहिणं व्यास्यो वि वृत्रस्याभिनच्छिरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । वृषा । अक्षुम् । मघवन् । नम्रम् । मर्य । आकर: । रवि: ॥ त्वम् । रौहिणम् । व्यास्य: । वि । वृत्रस्य । अभिनत् । शिर: ॥१२८.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 128; मन्त्र » 13

    भावार्थ -
    हे (मघवन्) ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! हे (नये) नेताओं में कुशल ! (त्वं) तू (वृषा) बलवान् होकर भी (रजिम्) राजस भाव में लिप्त (अक्षम्) अपने आंख को या इन्द्रियों को अथवा (वृषाक्षुं) भूमि को घेरकर व्यापने वाले वृक्ष के समान प्रबल शत्रु को (नम्रम्) नम्र, विनयशील, विजित (अकरः) करता है। और (त्वं) तू (रौहिणं) रोहिण, वट के समान अपने नाना दृढ मूलों पर स्थिर राजा को भी (जि आस्यः) विविध उपायों से उखाड़ डालता है और (वृत्रस्य) मेघ के समान फैलने और राष्ट्र के घेरने और शस्त्रास्त्रों की वर्षा करने वाले शत्रु के भी (शिरः) शिर, मुख्य सेनाभाग को (अभिनत्) तोड़ डालता है, छिन्न भिन्न कर देता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथातः पञ्च इन्द्रगाथाः।

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