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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 128

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 128/ मन्त्र 15
    सूक्त - देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा छन्दः - विराडनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    पृ॒ष्ठं धाव॑न्तं ह॒र्योरौच्चैः॑ श्रव॒सम॑ब्रुवन्। स्व॒स्त्यश्व॒ जैत्रा॒येन्द्र॒मा व॑ह सु॒स्रज॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पृ॒ष्ठम् । धाव॑न्तम् । ह॒र्यो: । औच्चै॑:ऽश्रव॒सम् । अ॑ब्रुवन् ॥ स्व॒स्ति । अश्व॒ । जैत्रा॒य । इन्द्र॒म् । आ । व॑ह । सु॒स्रज॑म् ॥१२८.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पृष्ठं धावन्तं हर्योरौच्चैः श्रवसमब्रुवन्। स्वस्त्यश्व जैत्रायेन्द्रमा वह सुस्रजम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पृष्ठम् । धावन्तम् । हर्यो: । औच्चै:ऽश्रवसम् । अब्रुवन् ॥ स्वस्ति । अश्व । जैत्राय । इन्द्रम् । आ । वह । सुस्रजम् ॥१२८.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 128; मन्त्र » 15

    भावार्थ -
    (औचैःश्रवसम्) ऊंचे कानों वाले, (घावन्तं) वेग से दौड़ते हुए, (प्रष्टिं) वेगवान् अश्व को (अब्रुवन्) लोग कहते हैं कि हे (अश्व) वेगवान् अश्व ! तू (जैत्राय) विजय करने के लिये (सुस्रजम्) उत्तम माला धारण करने वाले, या उत्तम सेना व्यूह की रचना करने वाले (इन्द्रम्) सेनापति वीर पुरुषों को (स्वस्ति आवह) कुशलपूर्वक लेजा, उसको सवारी दे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथातः पञ्च इन्द्रगाथाः।

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