अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 128/ मन्त्र 6
सूक्त -
देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
योऽना॒क्ताक्षो॑ अनभ्य॒क्तो अम॑णि॒वो अहि॑र॒ण्यवः॑। अब्र॑ह्मा॒ ब्रह्म॑णः पु॒त्रस्तो॒ता कल्पे॑षु सं॒मिता॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । अना॒क्ता॑क्ष: । अनभ्य॒क्त: । अम॑णि॒व: । अहि॑र॒ण्यव॑: ॥ अब्र॑ह्मा॒ । ब्रह्म॑ण: । पु॒त्र: । तो॒ता । कल्पे॑षु । सं॒मिता ॥१२८.६॥
स्वर रहित मन्त्र
योऽनाक्ताक्षो अनभ्यक्तो अमणिवो अहिरण्यवः। अब्रह्मा ब्रह्मणः पुत्रस्तोता कल्पेषु संमिता ॥
स्वर रहित पद पाठय: । अनाक्ताक्ष: । अनभ्यक्त: । अमणिव: । अहिरण्यव: ॥ अब्रह्मा । ब्रह्मण: । पुत्र: । तोता । कल्पेषु । संमिता ॥१२८.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 128; मन्त्र » 6
विषय - योग्य और योग्य पुरुषों का वर्णन।
भावार्थ -
(यः) जो (ब्रह्मणः) ब्रह्म के जानने वाले विद्वान् या बड़े पुरुष का (पुत्रः) पुत्र होकर भी (अब्रह्मा) स्वयं ब्रह्म, वेद का विद्वान नहीं है वह (अनाक्ताक्षः) बिना अंजी आंख के समान उत्तम रूप से देखने और विवेक करने में समर्थ नहीं है। (अनभ्यक्तः) शरीर पर तेल आदि न लगाये हुए के समान सुन्दर और चित्ताकर्षक, या स्वस्थ भी नहीं है। वह (अमणिः) मणि भूषणादि को न पहनने वाले के समान गुणहीन रहता है। वह (अहिरण्यवान्) सुवर्णादि धारण न करने वाले के समान निर्धन और ज्ञान और गुणों का दरिद्र रहता है। (ता उ ता) ये सब (कल्पेषु) क्रिया सामर्थ्यों में (सं-मिता) समान जाने गये हैं।
टिप्पणी -
‘ब्रह्मणः पुत्रः’—विद्वान का पुत्र। विद्वान् से उत्पन्न पुत्र और शिष्य दोनों होते हैं।
उत्पादकब्रह्मदात्रोर्गरीयान् ब्रह्मदः पिता।
ब्रह्मजन्म हि विप्रस्य प्रेत्य चेह च शाश्वतम्॥ १४६॥
कामान्माता पिता चैवं यदुत्पादयतो मिथः।
संभूतिं तस्य तां विद्याद् यद् योनावभिजायते॥ १४७॥
आचार्यस्त्वस्य यां जातिं विधिवद् वेदपारगः।
उत्पादयति सावित्र्या सा सत्या सा जरामरा॥ १४८॥
ब्राह्मस्य जन्मनः कर्त्ता स्वधर्मस्य च शासिता।
बालोऽपि विप्रो वृद्धस्य पिता भवति धर्मतः॥
अज्ञो भवति वै बालः पिता भवति मन्त्रदः॥ १५०॥
मातुरग्रेधिजननं द्वितीयं मौज्जिबन्धने।
तृतीयं यज्ञदीक्षायां द्विजस्य श्रुतिचोदनात्॥ १६३॥
तत्र यद् ब्रह्मजन्मास्य मौजीबन्धनचिह्नितम्।
तत्रास्य माता सावित्री पिता त्वाचार्य उच्यते॥ १७०॥
वेदप्रदानात् आचार्यं पितरं परिचक्षते।
शूद्रेण हि समस्तावद् यावद्वेदे न जायते॥ १७२॥ (मनु० अ० २)
पैदा करने वाले पिता से ब्रह्मज्ञान का देने वाला पिता बड़ा है। माता पिता पैदा कर लेते हैं सही, वह तो योनिमात्र से उत्पत्ति है परन्तु आचार्य उसको ‘सावित्री’ से उत्पन्न करता है, वह उसकी नित्य जाति है। ब्राह्म जन्म का देने वाला विद्वान् बालक भी बूढ़े का पिता है। अज्ञानी पुरुष बालक के समान है, ज्ञान देने वाला पिता है। उपनयन द्वितीय जन्म है। उसमें सावित्री माता और पिता आचार्य है। वेद प्रदान करने से आचार्य पिता है। वेद को बिना पढ़े पुरुष शूद है।
‘अमणिवो अहिरण्यवः’। इति शं० पा०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथ षट् जनकल्पाः। अनुष्टुभः॥
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