Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 136

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 136/ मन्त्र 10
    सूक्त - देवता - प्रजापतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    म॑हान॒ग्नी कृ॑कवाकं॒ शम्य॑या॒ परि॑ धावति। अ॒यं न॑ वि॒द्म यो मृ॒गः शी॒र्ष्णा ह॑रति॒ धाणि॑काम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒हा॒न् । अ॒ग्नी इति॑ । कृ॑कवाक॒म् । शम्य॑या॒ । परि॑ । धावति ॥ अ॒यम् । न । वि॒द्म । य: । मृ॒ग॒: । शी॒र्ष्णा । ह॑रति॒ । धाणिकम् ॥१३६.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महानग्नी कृकवाकं शम्यया परि धावति। अयं न विद्म यो मृगः शीर्ष्णा हरति धाणिकाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    महान् । अग्नी इति । कृकवाकम् । शम्यया । परि । धावति ॥ अयम् । न । विद्म । य: । मृग: । शीर्ष्णा । हरति । धाणिकम् ॥१३६.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 136; मन्त्र » 10

    भावार्थ -
    (महानग्नी) बड़ी राजसभा (कृकवाकुं) कण्ठ से उत्तम वचन बोलने वाले का (शम्यया) शान्तियुक्त वाणी से (परिधावति) अनुगमन करती हैं। सभी कहते हैं (वयं न विद्मः) हम नहीं जानते कि (यः मृगः) कौन है जो मृग अर्थात् व्याघ्र के समान शूरवीर होकर (शीर्ष्णा) अपने सिरपर (धाणिकाम्) प्रजा के भरण पोषण के कार्य को, या भरण पोषण करने वाली राजशक्ति, या अन्नकणिका के समान सर्व पोषक पृथ्वी को (हरति) धारण करे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - missing

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top