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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 136

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 136/ मन्त्र 4
    सूक्त - देवता - प्रजापतिः छन्दः - भुरिगनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    यद्दे॒वासो॑ ललामगुं॒ प्रवि॑ष्टी॒मिन॑माविषुः। स॑कु॒ला दे॑दिश्यते॒ नारी॑ स॒त्यस्या॑क्षि॒भुवो॒ यथा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । दे॒वास॑ । ल॒लाम॑ऽगुम् । प्र । वि॒ष्टी॒मिन॑म् । आवि॑षु: ॥ स॒कु॒ला । दे॒दि॒श्य॒ते॒ । नारी॑ । स॒त्यस्य॑ । अ॑क्षि॒भुव॑: । य॒था॒ ॥१३६.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्देवासो ललामगुं प्रविष्टीमिनमाविषुः। सकुला देदिश्यते नारी सत्यस्याक्षिभुवो यथा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । देवास । ललामऽगुम् । प्र । विष्टीमिनम् । आविषु: ॥ सकुला । देदिश्यते । नारी । सत्यस्य । अक्षिभुव: । यथा ॥१३६.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 136; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    (यद्) जब (देवासः) विजयशील पुरुष (ललामगुम्) सुन्दर उत्तम वाणी से युक्त, विद्वान् (प्रविष्टीमिनम्) उत्तम प्रजा के स्वामी को (आविषुः) प्राप्त होते हैं तब (यथा) जिस प्रकार (अक्षिभुवः सत्यस्य) आंख से देखे को विशेष प्रमाण योग्य माना जाता है उसी प्रकार (नारी) मनुष्यों की बनी सभा में (सक्थना) समवाय या संघ शक्ति से जो (देदिश्यते) बात निर्धारित हो जाती है वह भी प्रमाण मानने योग्य हो जाती है। जब विद्वान् पुरुष सत्यवक्ता सभापति के अधीन सभा में विराजें तो बहुसम्मति का भी प्रमाण आंख देखे सत्य के समान करें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - missing

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