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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 136

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 136/ मन्त्र 7
    सूक्त - देवता - प्रजापतिः छन्दः - निचृदनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    म॑हान॒ग्न्युप॑ ब्रूते भ्र॒ष्टोऽथाप्य॑भूभुवः। यथै॒व ते॑ वनस्पते॒ पिप्प॑ति॒ तथै॑वेति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒हा॒न् । अ॒ग्नी इति॑ । उप॑ । ब्रू॒ते॒ । भ्र॒ष्ट: । अथ॑ । अपि॑ । अ॑भुव ॥ यथा॒ । एव । ते॑ ।वनस्पते॒ । पिप्प॑ति॒ । तथा॑ । एवति॑ ॥१३६.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महानग्न्युप ब्रूते भ्रष्टोऽथाप्यभूभुवः। यथैव ते वनस्पते पिप्पति तथैवेति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    महान् । अग्नी इति । उप । ब्रूते । भ्रष्ट: । अथ । अपि । अभुव ॥ यथा । एव । ते ।वनस्पते । पिप्पति । तथा । एवति ॥१३६.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 136; मन्त्र » 7

    भावार्थ -
    (महानग्नी) बड़ी राजसभा (उपब्रूते) यह बात कहती है कि हे (वनस्पते) समस्त प्रजाओं के पालक ! (अथापि) जब (भ्रष्टः) अपने न्यायमार्ग से या सत्याचरण और विवेक से तू (भ्रष्टः अबूभुवः) भ्रष्ट हो जाय तो भी ओखल में (यथैव) जिस प्रकार धान्यों को (पिंषन्ति) पीसते कूटते हैं और दाना निकालते हैं (तथैव) उसी प्रकार (ते) तेरे उपादेय तत्व को भी हम (पिंषन्ति) पीसते हैं तेरे किये पर पुनः पुनः विचार करते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - missing

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