अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 136/ मन्त्र 13
सूक्त -
देवता - प्रजापतिः
छन्दः - भुरिगार्ष्युष्णिक्
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
व॒शा द॒ग्धामि॑माङ्गु॒रिं प्रसृ॑जतो॒ग्रतं॑ परे। म॒हान्वै भ॒द्रो यभ॒ माम॑द्ध्यौद॒नम् ॥
स्वर सहित पद पाठवशा । द॒ग्धाम्ऽइ॒म । अङ्गुरिम् । प्रसृ॑जत । उ॒ग्रत॑म् । परे ॥ म॒हान् । वै । भ॒द्र: । यभ॒ । माम् । अ॑द्धि । औद॒नम् ॥१३६.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
वशा दग्धामिमाङ्गुरिं प्रसृजतोग्रतं परे। महान्वै भद्रो यभ मामद्ध्यौदनम् ॥
स्वर रहित पद पाठवशा । दग्धाम्ऽइम । अङ्गुरिम् । प्रसृजत । उग्रतम् । परे ॥ महान् । वै । भद्र: । यभ । माम् । अद्धि । औदनम् ॥१३६.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 136; मन्त्र » 13
विषय - राजा, राजसभा के कर्तव्य।
भावार्थ -
(वशा) पृथ्वी या समस्त राष्ट्र को वश करने वाली शक्ति या वशीभूत प्रजा (दुग्धा) गाय के समान दुही जाकर (बिना अंगुरिम्) बिना अंगुलि लगाये, बिना कष्ट के ही, अनायास (वनं करम्) प्राप्त करने योग्य कर को (प्र सृजते) आगे उपस्थित करती है। (बिल्वः) कण्टक वाले बिल्व वृक्ष के समान दृढ शरीर वाला शस्त्रास्त्रयुक्त तेजस्वी (भद्रः) सुखकारी राजा (महान् वै) निश्चय से बड़ा है। तू हे राष्ट्रपते ! (माम् यभ) मुझ से पति के समान सुसंगत होकर रह। और (ओदनम् अद्धि) भोग्य परिपक्व अन्न के समान राज्याधिकार का भोग कर।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - missing
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