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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 136

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 136/ मन्त्र 12
    सूक्त - देवता - प्रजापतिः छन्दः - निचृत्ककुबुष्णिक् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    सुदे॑वस्त्वा म॒हान॑ग्नी॒र्बबा॑धते मह॒तः सा॑धु खो॒दन॑म्। कु॒सं पीव॒रो न॑वत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सुदे॑व: । त्वा । म॒हान् । अ॑ग्नी॒: । बबाध॑ते॒ । मह॒त: । सा॑धु । खो॒दन॑म् ॥ कु॒सम् । पीव॒र: । नव॑त् ॥१३६.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुदेवस्त्वा महानग्नीर्बबाधते महतः साधु खोदनम्। कुसं पीवरो नवत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुदेव: । त्वा । महान् । अग्नी: । बबाधते । महत: । साधु । खोदनम् ॥ कुसम् । पीवर: । नवत् ॥१३६.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 136; मन्त्र » 12

    भावार्थ -
    हे (महानग्नी) महासभे ! (सुदेवः) उत्तम अर्थों का प्रकाशक एवं उत्तम तेजस्वी राजा (त्वा) तुझे (वि बाघते) विविध प्रकार से मथता है, तुझ से दूध से मखन के समान सार पदार्थ प्राप्त करता है। (महतः) बड़े भारी राष्ट्र से (साधु) उत्तम (खोदनम्) सुख ऐश्वर्य प्राप्त होता है। (पीवरः) बलवान् पुरुष (कृशं नशत्) कृश दुर्बल पुरुष को नष्ट कर देता है। अथवा (कृशितं पीवरी नशत्) कृश हुए राजा को भी ‘पीवरी’ अति बलवती राजसभा प्राप्त हो जाती है। इसलिये हे राजन् ! (यभ माम्) जिस प्रकार दृढ स्त्री अपने कृशपति को प्राप्त करके भी उससे संग लाभ करती है और पति को सुख प्राप्त होती है उसी प्रकार तू भी मेरे साथ सुसंगत होकर रह और (ओदनम्) राज्यपद के अधिकार का भोगकर।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - missing

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