अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 136/ मन्त्र 8
म॑हान॒ग्न्युप॑ ब्रूते भ्र॒ष्टोऽथाप्य॑भूभुवः। यथा॑ वयो॒ विदाह्य॑ स्व॒र्गे न॒मवद॑ह्यते ॥
स्वर सहित पद पाठम॒हा॒न् । अ॒ग्नी इति॑ । उप॑ । ब्रू॒ते॒ । भ्र॒ष्ट: । अथ॑ । अपि। अ॑भूवुव: ॥ यथा॑ । वय॒: । वि॑दाह्य॑ । स्व॒र्गे । न॒म् । अवद॑ह्यते॒ ॥१३६.८॥
स्वर रहित मन्त्र
महानग्न्युप ब्रूते भ्रष्टोऽथाप्यभूभुवः। यथा वयो विदाह्य स्वर्गे नमवदह्यते ॥
स्वर रहित पद पाठमहान् । अग्नी इति । उप । ब्रूते । भ्रष्ट: । अथ । अपि। अभूवुव: ॥ यथा । वय: । विदाह्य । स्वर्गे । नम् । अवदह्यते ॥१३६.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 136; मन्त्र » 8
विषय - राजा, राजसभा के कर्तव्य।
भावार्थ -
(महानग्नी) बड़ी राजसभा (उपब्रूते) कहती है कि (अथापि) जब भी तू हे राजन् ! (भ्रष्टः अबूभुवः) भ्रष्ट अर्थात् अपने सत् नीति मार्ग से च्युत हो जाता है तब तब (यथा) जिस प्रकार (दावः) वन आाग से भड़क उठता है उसी प्रकार आग भी भड़कती है और तब (मम अङ्गानि) मेरे समस्त अंग भी (दह्यन्ते) जलते हैं, पीड़ा पाते हैं।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - missing
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