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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 17

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 17/ मन्त्र 11
    सूक्त - कृष्णः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१७

    बृह॒स्पति॑र्नः॒ परि॑ पातु प॒श्चादु॒तोत्त॑रस्मा॒दध॑रादघा॒योः। इन्द्रः॑ पु॒रस्ता॑दु॒त म॑ध्य॒तो नः॒ सखा॒ सखि॑भ्यो॒ वरि॑वः कृणोतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बृह॒स्पति॑: । न॒: । परि॑ । पा॒तु॒ । प॒श्चात् । उ॒त । उत्ऽत॑रसमात् । अध॑रात् । अ॒घ॒ऽयो: ॥ इन्द्र॑: । पु॒रस्ता॑त् । उ॒त । म॒ध्य॒त: । न॒: । सखा॑ । सखि॑ऽभ्य: । वरि॑व: । कृ॒णो॒तु॒ ॥१७.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बृहस्पतिर्नः परि पातु पश्चादुतोत्तरस्मादधरादघायोः। इन्द्रः पुरस्तादुत मध्यतो नः सखा सखिभ्यो वरिवः कृणोतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बृहस्पति: । न: । परि । पातु । पश्चात् । उत । उत्ऽतरसमात् । अधरात् । अघऽयो: ॥ इन्द्र: । पुरस्तात् । उत । मध्यत: । न: । सखा । सखिऽभ्य: । वरिव: । कृणोतु ॥१७.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 17; मन्त्र » 11

    भावार्थ -
    (बृहस्पतिः) महान् संसार का पालक, एवं बड़े राष्ट्र का पालक, वेदज्ञ विद्वान् (नः) हमें (पश्चात्) पीछे से (उत् उत्तरस्मात्) उत्तर से या दायें से या ऊपर से और (अधरात्) नीचे से (अघायोः) हम पर आक्रमण एवं आधात करने की इच्छा करने वाले दुष्ट पुरुष से और हे (इन्द्र) राजन् ! (पुरुस्तात् उत मध्यतः) आगे और हमारे बीच में से भी हम पर आक्रमण करने वाले दुष्ट रुप से (नः परिपातु) हमारी रक्षा करे। और वह (नः) हमारा (सखा) मित्र होकर हमारे (सखिभ्यः) समस्त स्नेही मित्रों या हम मित्रों को (वरिवः) धन ऐश्वर्य (कृणोतु) प्रदान करे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १-१० कृष्ण ऋषिः। १२ वसिष्ठः। इन्द्रो देवता। १-१० जगत्यः। ११,१२ त्रिष्टुभौ। द्वादशर्चं सूक्तम्।

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