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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 17

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 17/ मन्त्र 9
    सूक्त - कृष्णः देवता - इन्द्रः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-१७

    उज्जा॑यतां पर॒शुर्ज्योति॑षा स॒ह भू॒या ऋ॒तस्य॑ सु॒दुघा॑ पुराण॒वत्। वि रो॑चतामरु॒षो भा॒नुना॒ शुचिः॒ स्वर्ण शु॒क्रं शु॑शुचीत॒ सत्प॑तिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । जा॒य॒ता॒म् । प॒र॒शु: । ज्योति॑षा । स॒ह । भू॒या: । ऋ॒तस्य॑ । सु॒ऽदुघा॑ । पु॒रा॒ण॒ऽवत् ॥ वि । रो॒च॒ता॒म् । अ॒रु॒ष: । भा॒नुना॑ । शुचि॑: । स्व॑: । न । शु॒क्रम् । शु॒शु॒ची॒त॒ ।सत्ऽप॑ति: ॥१७.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उज्जायतां परशुर्ज्योतिषा सह भूया ऋतस्य सुदुघा पुराणवत्। वि रोचतामरुषो भानुना शुचिः स्वर्ण शुक्रं शुशुचीत सत्पतिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । जायताम् । परशु: । ज्योतिषा । सह । भूया: । ऋतस्य । सुऽदुघा । पुराणऽवत् ॥ वि । रोचताम् । अरुष: । भानुना । शुचि: । स्व: । न । शुक्रम् । शुशुचीत ।सत्ऽपति: ॥१७.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 17; मन्त्र » 9

    भावार्थ -
    (परशुः) आत्मा से पर, दूसरे, अन्य अनात्म पदार्थों को काटने में समर्थ ज्ञानरूप वज्र (ज्योतिषा सह) अपने वास्तविक आत्मप्रकाश के साथ (उत् जायताम्) उदित हो। अर्थात् आत्मा के प्रकाश के साथ साथ ज्ञान का उदय हो। और (ऋतस्य) सत्य ज्ञान की (सुदुघा) अच्छे प्रकार देने वाली ऋतम्भरा नाम की प्रज्ञा (पुराणवत्) अति प्राचीन, सबसे पुराण पुरुष परमेश्वर के समान शुद्ध होकर (सह) उसके साथ (भूयाः=भूयात्) तन्मय होकर रहे। और (अरूपः) दीप्तिमान् (शुचिः) शुद्ध आत्मा (भानुना) दीप्ति से या भासमान ज्ञान के प्रकाश से (विरोचताम्) विशेष रूप से चमके। (सत्पतिः) सत्, स्वरूप ब्रह्मज्ञान का पालक होकर (स्वः न) आदित्य के समान (शुक्रम्) अपने शुद्ध, दीप्तिमय स्वरूप को (शुशुचीत) और भी उज्ज्वल करे। राजा के पक्ष में—(परशुः*) शत्रुओं को काटने वाला बल (ज्योतिषा सह उत् जायताम्) पराक्रम या तेज के साथ उदय हो, उठे, बढ़े। (ऋतस्य सुदुघा) सत्य व्यवहार को, यज्ञमय राष्ट्र को अच्छी प्रकार दोहने वाली नीति (पुराणवत्) पूर्ववत् (भूयाः) स्थापित रहे। (अरूषः) कान्तिमान या रोष रहित राजा (शुचिः) शुद्ध निष्कपट होकर (भानुना) तेजसे प्रकाशित हो। और वह (सत्पतिः) सज्जनों का परिपालक होकर (स्वः न) आदित्य के समान (शुक्रम् शुशुचीत) अपने बल को और भी प्रज्ज्वलित करे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १-१० कृष्ण ऋषिः। १२ वसिष्ठः। इन्द्रो देवता। १-१० जगत्यः। ११,१२ त्रिष्टुभौ। द्वादशर्चं सूक्तम्।

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