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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 17

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 17/ मन्त्र 6
    सूक्त - कृष्णः देवता - इन्द्रः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-१७

    विशं॑विशं म॒घवा॒ पर्य॑शायत॒ जना॑नां॒ धेना॑ अव॒चाक॑श॒द्वृषा॑। यस्याह॑ श॒क्रः सव॑नेषु॒ रण्य॑ति॒ स ती॒व्रैः सोमैः॑ सहते पृतन्य॒तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश॑म्ऽविशम् । म॒घऽवा॑ । परि॑ । अ॒शा॒य॒त॒ । जना॑नाम् । धेना॑: । अ॒व॒ऽचाक॑शत् । वृषा॑ ॥ यस्य॑ । अह॑ । श॒क्र: । सव॑नेषु । रण्य॑ति । स: । ती॒व्रै: । सोमै॑: । स॒ह॒ते॒ । पृ॒त॒न्य॒त: ॥१७.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विशंविशं मघवा पर्यशायत जनानां धेना अवचाकशद्वृषा। यस्याह शक्रः सवनेषु रण्यति स तीव्रैः सोमैः सहते पृतन्यतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विशम्ऽविशम् । मघऽवा । परि । अशायत । जनानाम् । धेना: । अवऽचाकशत् । वृषा ॥ यस्य । अह । शक्र: । सवनेषु । रण्यति । स: । तीव्रै: । सोमै: । सहते । पृतन्यत: ॥१७.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 17; मन्त्र » 6

    भावार्थ -
    (मघवा) वह परमैश्वर्यवान् राजा के समान (विशं विशं परि अशायत) प्रत्येक प्रजा को प्राप्त होता है। वह (वृषा) सब सुखों का सब रसों का वर्षक, मेघ के समान (जनानां) सब मनुष्यों की (धेनाः) स्तुतियों को (अवचाकशत्) सुनता, प्राप्त करता और उनपर दृष्टि रखता हैं। (यस्य सवनेषु) जिसके युद्ध के अवसरों में (शक्रः) वह शक्तिशाली परमेश्वर, सेनापति के समान (रण्यति) रमण करता है (सः) वह (तीव्रैः सोमैः) तीव्रगामी, सहायक विद्वान् के समान तीव्रज्ञान रसों से (पृतन्यतः) सेना द्वारा आक्रमण करने वाले शत्रुओं के समान भीतरी शत्रुओं को (सहते) वश कर लेता है, उनपर विजय पाता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १-१० कृष्ण ऋषिः। १२ वसिष्ठः। इन्द्रो देवता। १-१० जगत्यः। ११,१२ त्रिष्टुभौ। द्वादशर्चं सूक्तम्।

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