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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 17

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 17/ मन्त्र 5
    सूक्त - कृष्णः देवता - इन्द्रः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-१७

    कृ॒तं न श्व॒घ्नी वि चि॑नोति॒ देव॑ने सं॒वर्गं॒ यन्म॒घवा॒ सूर्यं॒ जय॑त्। न तत्ते॑ अ॒न्यो अनु॑ वी॒र्यं शक॒न्न पु॑रा॒णो म॑घव॒न्नोत नूत॑नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कृ॒तम् । न । श्व॒ऽघ्नी । वि । चि॒नो॒ति॒ । देव॑ने । स॒म्ऽवर्ग॑म् । यत् । म॒घऽवा॑ । सूर्य॑म् । जय॑त् ॥ न । तत् । ते॒ । अ॒न्य: । अनु॑ । वी॒र्य॑म् । श॒क॒त् । न । पु॒रा॒ण: । म॒घ॒ऽव॒न् । न । उ॒त । नूत॑न: ॥१७.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कृतं न श्वघ्नी वि चिनोति देवने संवर्गं यन्मघवा सूर्यं जयत्। न तत्ते अन्यो अनु वीर्यं शकन्न पुराणो मघवन्नोत नूतनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कृतम् । न । श्वऽघ्नी । वि । चिनोति । देवने । सम्ऽवर्गम् । यत् । मघऽवा । सूर्यम् । जयत् ॥ न । तत् । ते । अन्य: । अनु । वीर्यम् । शकत् । न । पुराण: । मघऽवन् । न । उत । नूतन: ॥१७.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 17; मन्त्र » 5

    भावार्थ -
    (देवने) जूए के खेल में (श्वघ्नी) अपना धन नाश करने वाला जुआखोर पुरुष (कृतं न) जिस प्रकार ‘कृत’ नाम के पासे को (वि चिनोति) विशेष रूप से प्राप्त करता है उसी प्रकार (यत्) जब (मघवा) ऐश्वर्यवान् प्रभु (संवर्गम्) सबको अपने साथ मिलाये रखने वाले (सूर्यम्) सूर्य को (जयत्) अपने वश करता है (तत्) तब (ते) तेरे उस (वीर्यम्) वीर्य को, हे (मघवन्) ऐश्वर्यवन् परमेश्वर ! (न पुराणः) न कोई पुरातन (न उत नूतनः) और न कोई नवीन पुरुष ही (अन्यः) दूसरा, तेरा विपरीतगामी (अनु शकत्) जीत सकता है ! राजा के पक्ष में—जुआरी जिस प्रकार सर्वविजयी कृत नाम के पासे को प्राप्त करता है। हे इन्द्र ! राजन् ! जब तू भी (संवर्गं सूर्यम्) सबको एकत्र मिलाये रखने में समर्थ, सूर्य के समान तेजस्वी सेनापति या विद्वान् पुरुष को (जयत्) प्राप्त कर लेता है तब न कोई पुराना और न कोई नया ही (ते अन्यः) तेरा शत्रु (ते तत् वीर्यं अनु शकत्) तेरे उस वीर्य पराक्रम का मुकाबला कर सकता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १-१० कृष्ण ऋषिः। १२ वसिष्ठः। इन्द्रो देवता। १-१० जगत्यः। ११,१२ त्रिष्टुभौ। द्वादशर्चं सूक्तम्।

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