अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 17/ मन्त्र 8
वृषा॒ न क्रु॒द्धः प॑तय॒द्रजः॒स्वा यो अ॒र्यप॑त्नी॒रकृ॑णोदि॒मा अ॒पः। स सु॑न्व॒ते म॒घवा॑ जी॒रदा॑न॒वेऽवि॑न्द॒ज्ज्योति॒र्मन॑वे ह॒विष्म॑ते ॥
स्वर सहित पद पाठवृषा॑ । न । क्रु॒ध्द: । प॒त॒य॒त् । रज॑:ऽसु । आ । य: । अ॒र्यऽप॑त्नी: । अकृ॑णोत् । इ॒मा: । अ॒प: ॥ स: । सु॒न्व॒ते । म॒घऽवा॑ । जी॒रदा॑नवे । अवि॑न्दत् । ज्योति॑: । मन॑वे । ह॒विष्म॑ते ॥१७.८॥
स्वर रहित मन्त्र
वृषा न क्रुद्धः पतयद्रजःस्वा यो अर्यपत्नीरकृणोदिमा अपः। स सुन्वते मघवा जीरदानवेऽविन्दज्ज्योतिर्मनवे हविष्मते ॥
स्वर रहित पद पाठवृषा । न । क्रुध्द: । पतयत् । रज:ऽसु । आ । य: । अर्यऽपत्नी: । अकृणोत् । इमा: । अप: ॥ स: । सुन्वते । मघऽवा । जीरदानवे । अविन्दत् । ज्योति: । मनवे । हविष्मते ॥१७.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 17; मन्त्र » 8
विषय - परमेश्वरोपासना
भावार्थ -
(यः) जो इन्द्र परमेश्वर (क्रुद्धः वृषा न) गुस्से में आये हुए महा वृषभ के समान अति वेगवान् होकर (रजः सु) समस्त लोकों में (आपतयत्) व्याप्त हो रहा है और उनको तीव्रगति से चला रहा है और (यः) जो (इमाः अपः) इन समस्त लोकों को या इन समस्त (अपः) प्रकृति की व्यापक शक्तियों को (अर्यपत्नीः अकृणोत्) स्वामी की पत्नियों के समान परमेश्वर स्वयं स्वामीरूप होकर उनको अपनी पालक शक्तियां बना लेता है। (सः) वह (मघवा) परमैश्वर्यवान् (सुन्वते) स्तुति करने हारे (जीरदानवे मनवे) मननशील (हविष्मते) ज्ञानवान् (जीरदानवे) जीव को (ज्योतिः) परम ज्ञानमय ज्योतिः अर्थात् अपने प्रकाशमय स्वरूप का (अविन्दत्) लाभ कराता है।
राजा के पक्ष में—(यः रजःसु क्रुद्धः वृषा न आपतयत्) जो देश देशान्तरों पर क्रुद्ध हुए बैल के समान भीषण होकर चढ़ाई करता है और (अपः अर्यपत्नीः अकृणोत्) आप्त प्रजाओं को एक स्वामी की स्त्रियों के समान भोग्य प्रजाएं, अथवा एक ही स्वामी या प्रभु को पालने वाली विशाल राष्ट्र शक्ति में संगठित कर देता है (सः) वह (सुन्वते) अपना अभिषेक करने वाले (हविष्मते) अन्न आदि को कर रूप से देने वाले (जीरदानवे) चेतनाशील (मनंव) मानव समाज को (ज्योतिः अविन्दत्) परम ऐश्वर्य प्रदान करता है।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १-१० कृष्ण ऋषिः। १२ वसिष्ठः। इन्द्रो देवता। १-१० जगत्यः। ११,१२ त्रिष्टुभौ। द्वादशर्चं सूक्तम्।
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