अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 70/ मन्त्र 12
स नो॑ वृषन्न॒मुं च॒रुं सत्रा॑दाव॒न्नपा॑ वृधि। अ॒स्मभ्य॒मप्र॑तिष्कुतः ॥
स्वर सहित पद पाठस: । न॒: । वष॒न् । अ॒मुम् । च॒रुम् । सत्रा॑ऽदावन् । अप॑ । वृ॒धि॒ ॥ अ॒स्मभ्य॑म् । अप्र॑तिऽस्कुत: ॥७०.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
स नो वृषन्नमुं चरुं सत्रादावन्नपा वृधि। अस्मभ्यमप्रतिष्कुतः ॥
स्वर रहित पद पाठस: । न: । वषन् । अमुम् । चरुम् । सत्राऽदावन् । अप । वृधि ॥ अस्मभ्यम् । अप्रतिऽस्कुत: ॥७०.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 70; मन्त्र » 12
विषय - राजा परमेश्वर।
भावार्थ -
हे (वृषन्) सुखों के वर्षण करने हारे ! हे (सत्रादावन्) समस्त अभिलाषा योग्य फलों को एक साथ देने में समर्थ अथवा समस्त प्राणियों के कर्म फलों को एक ही काल में देने में समर्थ ! तू (नः) हमारे (अमुं) परोक्ष में विद्यमान (चरुम्) भोग योग्य कर्म फल को (अस्मभ्यम्) हमारे हित के लिये (अपा वृधि) खोल दे, प्रकट कर। तू (अप्रतिष्कुतः) कभी याचक को उलटा फेरने वाला, नकारने वाला या प्रत्याख्यान करने वाला नहीं है।
अथवा—हे (सत्रादावन्) सत्य ज्ञान के देने वाले परमेश्वर तू (अमुं) उस परोक्ष में विद्यमान (चरुं) आचरणयोग्य, सत्यमयं ज्ञान या मोक्ष द्वार को (अपावृधि) दूर कर। तू (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (अप्रतिष्कुतः) कभी विचलित या विस्मृत नहीं होता।
राजा के पक्ष में—हे (सत्रादावन्) विद्यमान समस्त शत्रुओं को एक ही समय काट देने में समर्थ ! तू (अमुं चरुं) उस प्रतिकूल विचरणशील शत्रु को दूरकर। तू (अप्रतिष्कुतः) कभी युद्ध में किसी से भी विचलित या पराजित नहीं होता।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः—मधुच्छन्दाः। देवता—१,२,६-२० इन्द्रमरुतः, ३-५ मरुतः॥ छन्दः—गायत्री॥
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