अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 70/ मन्त्र 3
इन्द्रे॑ण॒ सं हि दृक्ष॑से संजग्मा॒नो अबि॑भ्युषा। म॒न्दू स॑मा॒नव॑र्चसा ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रे॑ण । सम् । हि । दृक्ष॑से । स॒म्ऽज॒ग्मा॒न: । अबि॑भ्युषा ॥ म॒न्दू इति॑ । स॒मा॒नऽव॑र्चसा ॥७०.३॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रेण सं हि दृक्षसे संजग्मानो अबिभ्युषा। मन्दू समानवर्चसा ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रेण । सम् । हि । दृक्षसे । सम्ऽजग्मान: । अबिभ्युषा ॥ मन्दू इति । समानऽवर्चसा ॥७०.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 70; मन्त्र » 3
विषय - राजा परमेश्वर।
भावार्थ -
मरुत् नामक वायु के समान तीव्र वेगवान् एवं शत्रु रूप वृक्षों को जड़ से उखाड़ फेंकने वाला सैन्यगण ! (अबिभ्युषा) भय रहित साधन या बल से युक्त होकर ही (इन्द्रेण) ऐश्वर्यवान् राजा या सेनापति के साथ (संजग्मानः) संगति लाभ करता हुआ (सं दृक्षसे) भला प्रतीत होता है। (हि) क्योंकि दोनों (समानवर्चसा) समान तेज को धारण करने हारे होकर (मन्दू) एक दूसरे की आवश्यकता को पूरा करने वाले एवं परस्पर आनन्द और संतोषदायक होते हैं।
ईश्वर पक्ष में—प्राणाभ्यासी योगी (अबिभ्युषा) अभय चित से संगत होकर परमेश्वर के साथ अपने को मिला पाता है। वे दोनों समान तेज के आनन्दमय होकर एक दूसर को आनन्दित करते हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः—मधुच्छन्दाः। देवता—१,२,६-२० इन्द्रमरुतः, ३-५ मरुतः॥ छन्दः—गायत्री॥
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